Monday, June 18, 2012

फिर से वही बवाल .......
'सो रहा था चैन से ,ओढ़े कफ़न मजार में .फिर आगये सताने ,किसने पता बता दिया ........ शहर छोड़ा ,भाग आया गाँव .न रेडियो न टेलीविजन .बस एक अखबार 'द हिन्दू ' और मेरा लैप टॉप .अच्छी हवा .दमदार गर्मी .सुबह  नाश्ते में 'माठा' दोपहर में अरहर की दाल के साथ देशी घी चूल्हे पर सेंकी रोटी .लोंगो को छेड़ना और खुद 'कुछ ' सुनना .बस एक ही शगल ...अचानक अभी परितोष जी ( परितोष चक्रवर्ती .. संपादक लोकायत ,कहानीकार ,आलोचक ) के नए उपन्यास ' प्रिंट लाइन ' के प्रकाशित होने की सूचना मिली .यह उपन्यास ज्ञानोदय से प्रकाशित होरहा है (ज्ञान मंडल ) हमें बताया गया कि इस उपन्यास  के सारे पात्र सचमुच वाले हैं और उन्हें नाम ब नाम ,जो जैसा है जस का तस दिया गया है .चुकी परितोष दादा से हमारे भी ताल्लुकात रहें हैं साथ साथ काम भी किया है इसलिए  मै अपने बारे में सोचने लगा .अगर सचमुच जस का तस दिया गया होगा तो मै .... मै तो उघार हो जाउंगा .. लबे सड़क .सब जानते हैं मै लिखने में बहुत काहिल रहा हूँ और दादा जब भी मुझसे 'कुछ' लिखवाना चाहते तो हम दोनों कुछ देर के लिए किसी विषयान्तर पर चले जाते .. थोड़ी देर बाद दादा मुस्कुराते और कहते आज मेरे पास बहुत अच्छी 'चीज' आयी है .मैंने उसे तुम्हारे लिए रखा हुआ है .फला आदमी फला जगह से आ रहा था ,वहाँसे लाया  है . जब कि मै जानता था दादा झूठ बोल रहा है ,इसे दादा ने खुद खरीदा है ....' उस किताब में यह भी तो नहीं है ? दादा रायपुर से दिल्ली आये तो उन्हें दिल्ली की सच्चाई नहीं मालुम थी .एक दिन हमने ककहा कि दादा यह बहुत खोखली जगह है ,यहाँ बस हवा पानी है .ये जो लिख्खाड बड़े बड़े बोर्ड लगाए बैठे हैं इनका खेल दूसरा है .एक दूसरे की पीठ ठोंकना इनका काम है .पुरष्कार ,सम्मान, गोष्ठी ,सब बैठे बैठे तय होती है .दिल्ली के बाहर इनका डंका गूंजता है .हमने उन्हें एक वाकया सुनाया .एक बार भारती जी (धर्मवीर भारती -संपादक धर्मयुग ) का सन्देश मिला कि मै दिल्ली  की साहित्यिक गतिविधियों पर एक रपट लिखूं .और मैंने लिख दिया .उस पर हमारे कई दोस्त नाराज हो गए .हमने एक घटना का जिक्र कर दियाथा .एक साहब जो 'सारिका' में मुलाजमत करते थे और लेखक भी माने जाते रहें .उनकी एक कहानी का ऐलान हुआ कि अगले अंक में आप इन्हें पढ़ें .कहानी कम्पोज हुई पेज बना लेकिन एन वक्त पर किसी कारण कहानी नहीं जा पाई .लेकिन डाक से बहुत सारे पत्र उस कहानी की तारीफ़ में आ गए ...'दादा ने कहा क्या वाकई ऐसा होता है ? हमने कहा अक्सर ऐसा होता है ..दादा ने उसको आजमाया भी मै नहीं जानता उन्होंने इनका जिक्र किया कि नहीं ..लेकिन दिल्ली के बड़े नामो से दादा मायूस हुए थे यह मै जानता हूँ ..

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