Wednesday, September 21, 2016

chanchal: मंडी हॉउस .गुजिस्ता खुशबुवों के दिन थे , तजकिरा य...

chanchal: मंडी हॉउस .
गुजिस्ता खुशबुवों के दिन थे , तजकिरा य...
: मंडी हॉउस . गुजिस्ता खुशबुवों के दिन थे , तजकिरा ये हुश्न से रोशन रहे वो दिन जब हम मंडी हाउस  की सड़कों पर कहकहे लगाते पुरनूर  रंगीन सपने ब...

मंडी हॉउस .
गुजिस्ता खुशबुवों के दिन थे , तजकिरा ये हुश्न से रोशन रहे वो दिन जब हम मंडी हाउस  की सड़कों पर कहकहे लगाते पुरनूर  रंगीन सपने बुना करते थे
और बाज दफे यह भूल भी  जाते कि रात गहरी हो गयी हैं ,संजीदा और समझदार लोग सोने जा चुके होंगे हम जब सहमते हुए कुण्डी खटखटाएंगे
 तो मकान मालिक पर क्या गुजरेगी . लेकिन करना पड़ता था . हमारे मकान मालिक जैन साहब थे , रेल में मुलाजमत करते थे उनकी दोनों बेटियाँ
सर्वेश्वर जी की बेटियों विभा और शुभा की सहेली थी . यह परिवार सर्वेश्वर जी की वजह से इतना सब कुछ झेल रहे था  , दूसरी एक वजह और रही जो हमे
बाद में पता चला  कि गर  जैन साहब इस बात को  पहले से  जानते  होते कि हम जार्ज फर्नांडिस से भी जुड़ें हैं तो शायद जैन साहब मकान की चाभी
 देने की जगह , एक अदद बहाना पकड़ा दिए होते . लेकिन उन्हें तब यह मालुम हुआ जब हम अपना सर सामान लिए हाजिर हुए उस समय  हमारे
 साथ लैला जी
भी दिखाई पड़ गयी . जैन साहब का पूरा परिवार डाइनिंग टेबुल पर चला गया , खुसुर फुसुर के बाद उनकी बेटी अलका चाय की ट्रे लेकर आयीऔर
 चाय देने के बाद  बहुत सकुचाते हुए  सर्वेश्वर जी से  बोली - अंकल ! पापा बहुत घबडाये  हुए हैं , जार्ज साहब उनके नेता हैं जब उन्हें पता चलेगा कि
पापा ने  उनके आदमी को किराए पर मकान दिया है ....अलका के बात को सर्वेश्वर जी ने बीच में काट कर जोर से बोले - जार्ज आज  रेल नेता हैं ,
कल रेलमंत्री बनेगे तब तुम अपने लिए मकान मांग लेना , तुम भी तो रेलवे में लग गयी हो ? उसी साल वह रेलवे में बुकिंग क्लर्क की नौकरी पर लगी थी .
इत्तफाक देखिये जार्ज जब रेल मंत्री बने और हम उनके सिपहसालारों में से एक हुए तो एक दिन वही लडकी अपने पति के साथ आयी और बड़े अधिकार
के साथ कहा कि अब आप हमे मकान दीजिये .
  इस तरह हम बंगाली मार्केट में भटक रही भांतिभांति की आत्माओं में शामिल हो गया . रंग मंच , संगीत , कला के जीते  जागते  , चरित्रों के साथ
 उठना बैठना शुरू हो गया . इनमे हम सबसे ज्यादा जुड़े थे रंगमंच की गतिविधियों से , उसकी एक वजह यह भी रही की हम उन दिनों  सारिका में
रंगमंच पर नियमित कालम लिख रहे थे . रंगमंच के दो हिस्से होते हैं . एक मंच पर घटित होता है जिसे दर्शक प्रेक्षक देखता है .लेकिन एक निहायत
दिलचस्प होता है वह है नेपथ्य का . दिल्ली रंगमंच का नेपथ्य देखना हो तो मंडी हाउस चले जाइए . मंडी हाउस का फुटपाथ , नाथू स्वीट , बंगाली  मार्केट
रिफूजी मार्केट , बहावल पुर हाउस ,  ......... ओम शिवपुरी और उनकी पत्नी सुधा शिवपुरी का एक नाम नाथू स्वीट के बैरों ने रख छोड़ा था . गाठिया .
गाठिया एक तरह की नमकीन होती है .विस्तार अगली पोस्ट में -

Monday, September 19, 2016

chanchal: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ; कभी किसी को बख्से ना .चं...

chanchal: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ; कभी किसी को बख्से ना .
चं...
: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ; कभी किसी को बख्से ना . चंचल      तमाम वाकयातों से घिरे इस तस्वीर के हर टुकड़े को जोड़ दिया जाय तो वह सर्वेश्वर दया...
हिन्द पाक रश्ते -
उरी में हुए  आतंकी हमले के बाद युद्ध उकसावे का उफान आ गया है . हर की जबाबी कार्यवाही के मांग कर  रहा है .और यह गलत नही है
इसी तरह के बयानात के  बदौलत देश को एक नालायक और नाकारा सरकार मिली है . विदेश नीति के सवाल पर तो कतई जाहिल . आज
भारत किसी भी मुल्क को अपना दोस्त कहने की स्थिति में  नहीं है . अब जरा भारत पाक सरकारों की उस नेति को झाँक कर देखिये की  आतंक वाद
इनकी सोच क्या  है . पाकितान अपने शुरुआती  दिनों  से ही इस्लाम के नाम पर पनपने वाले आतंकी हरकतों का हामी  रहा है .
 वहां  आतंवाद और सैनिक ताकत एक होकर अवाम की चुनी हुयी सरकार को दबा कर अपनी मुट्ठी  में ले   लिया है . दो - कोइ भी  सरकार जब अपने
अंदरुनी मसायल को नही  हल कर पाती तोतो अपनी नालायकी  छुपाने के  लिए , बाहरी खतरा दिखा कर  राष्ट्र प्रेम पैदा करती है .भारत का अतीत
इस सोच से अलहदा रहा . कांग्रेस  के कार्यकाल में देश और सरकार दोनों इस बात पर मुतमइन रहा की पाकिस्तान हमारा पड़ोसी मुल्क है , और हर
मायने में हमसे बहुत पीछे है . सैन्य शक्ति में तो हम पाकिस्तान से बीस  गुना ज्यादा हैं . इसके बावजूद जितनी भी  बार पाकिस्तान ने युद्ध के लिए
 उकसाया उसे उसका जवाब भी  मिल गया . भारत  पाक सीमा का उलझा हुआ मसला भी श्रीमती इंदिरागांधी केसिमला समझौते में ही सुलझा
 लिया गया था . अब दोनों देशों के लिए यह जरुरी था की वे मिल बैठ कर अपने मसायल हल करें और युद्ध खर्च को विकास की और मोड़ें .
 मनमोहन सरकार तक आपसी बातचीत की नीति चलती रही . लेकिन  नई सरकार के आते ही नई नीति बन गयी . आयर भारत पाक के रास्ते पर
 चल पडा . उनके यहाँ इस्लाम के नाम पर आतंकवाद पनपा तो यहाँ हिन्दू के नाम पर आतंकी कारनामे होने लगे . यहाँ की भी सरकार इस हिन्दू आतंक
को सरक्षण देने लगी . इस नई सरकार ने आधिकारिक रूप से बातचीत का रास्ता बंद कर दिया और लगे बन्दर घुडकी देने . लेकिन जमीनी सच्चाई
 यह रही कि हम खुफिया तंत्र में कत्तई असफल रहे . दो - जिस तरह पाकिस्तान के अन्दर का आतंकवाद न केवल भारत के के लिए सरदर्द है बल्कि
पाकिस्तान के लिए भी एक बड़ी समस्या है . वही स्थिति अब भारत में भी बन रही है . लेकिन थोड़ा सा फर्क है . पाक आतंकवाद जाहिलों को वर्गला कर
मजहब के सहारे खुद्कुसी तक पहुंचा दे रहा है और सपना दिखाता है की अगर शहीद हुए तो जन्नत में ७२ हूरें मिलेंगी . और वे आतंकवादी यह मान कर प्रवेश
लेते हैं की मरना तो तय ही है . लेकिन यहाँ का हिन्दू आतंकवाद इतना नुकीला नही है . बहादुर तो कत्तई नही , यह कायरों की जमात है . इनका
 खून खराबा अपनी ही जमीन पर होगा . कई उदाहरण हैं वे सब आपके सामने है .
    इस समस्या का हल केवल बातचीत से ही होगा . और आतंकवाद को केंद्र में रखना होगा . इस दिशा में अगर सरकारें फेल होती हैं तो अवाम
 को सामने आकर दबाव बनाना पडेगा .

Thursday, September 15, 2016

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ; कभी किसी को बख्से ना .
चंचल
     तमाम वाकयातों से घिरे इस तस्वीर के हर टुकड़े को जोड़ दिया जाय तो वह सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हो जाता है .लेकिन कोइ मुगालता मत पालिए कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना बस इतना ही है . यह तो वह
अक्स है जो हमारे हिस्से में आया . हमारे जैसे और भी बहुत हैं जिनके पास भी सर्वेश्वर जी हैं लेकिन थोड़ा अलहदा होंगे  . हम जिस हिस्से को जोड़ रहे हैं उसमे उनकी रचना नही है , न कविता , न कहानी ,आलोचना
भी  नही . सर्वेश्वर जी का यह हिस्सा साहित्यानुरागियों के पास है . हम तो उस सर्वेश्वर की शख्सियत की तस्वीर बना रहे हैं जिसे हमने देखा है , गो की वे जाने गये हैं साहित्य की ही वजह से . थोड़ा और
गाढा कर दूँ तो उनका साहित्य आमजन के सरोकार को उठाये गुर्राता हुआ  एक बयान रहा है और आज तक उसी सिद्दत के साथ दर्ज है . गाहे ब गाहे आज भी वह बयान मौकये वारदात पर किसी मजलूम
के समर्थन में उठ कर खडा हो जाता है और शोषक की आस्तीन पकड लेता है . इस वाजिब सोच को , कई आलोचकों ने विद्रोही कवि कह कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की है लेकिन सर्वेश्वर के पास
कई और भी तरह के रंग हैं . उन पर अभी बहुत खोज होगी . बहुत कुछ मिलेगा . हमने तो सीधे तौर पर शुरू में ही कह दिया है हम सर्वेश्वर जी के उस हिस्से को उठा रहे हैं जिसे हमने नजदीक से देखा ही नही
बल्कि जिया है . बाज दफे आपको लग सकता है कि हम विषय से हट रहे हैं और अपनी कथा  सुना रहा हूँ लेकिन ऐसा नही है यह हमारी मजबूरी है . क्यों कि हम न तो जीवनी लेखक हैं , न ही मुकम्मिल
इतिहास बता रहे हैं , हमने जितना कुछ सर्वेश्वर जी को जाना , उसी का खुलासा कर रहा हूँ .
     ७१ में हम पूर्वी उत्तर पादेश के एक गाँव से उठकर देश के सबसे बड़े शिक्षण संस्थान काशी विश्वविद्यालय पहुंचे थे .सर्वेश्वर जी या किसी भी जीवित रचनाकार को नही जानते थे , इकी वजह हम नही रहे ,
हमारी शिक्षा प्रणाली रही जिसमे हमे कब्रिस्तान की सैर करने के अलावा जीवित वर्तमान में जाने ही नही दिया जाता . काशी में अड्डेबाजी एक स्थायी भाव है . हम भी उसी में उतरे और उतारते चले गये .
इसमें हमारे दो अभिन्न रहे . और दोनों अपने मूल काम से इतर अतिरिक्त काम भी करते थे , वह थी कविता . उन दिनों नरेंद्र नीरव कुशुम लता से मोहब्बत कर रहे थे , और बाद बाकी बचे समय में
 कविता लिखते थे  , दुसरे धूमिल जी थे आई टी आई में लोहारी सिखाते थे और खाले समय में कविता . तीसरा यह खादिम रहा जो शहर के खौफ में खडा मुह बाए हर हरकत को देख भर रहा था और
चित्रकारी सीख रहा था , इसी अड़ी पर पहली दफा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जेरे बहस हुए और हमने जाना कि कोर्स की किताबों से अलहदा भी कई लोग हैं जो कविता , लेख , कहानी , निवंध या व्यंग
लिख कर शख्सियत के मालिक हैं . एक सांझ जब हम अड़ी पर बैठे हजारी चाय की दूकान पर ,कविता के उधेड़ बन पर खींच तान कर रहे थे तो अचानक हमने एक प्रस्ताव रख दिया /क्यों न कविता को लेकर
एक चित्र प्रदर्शनी की जाय . धूमिल जी संजीदा हो गये लेकिन नीरव जी जोर से उछले - कमाल का गुरु ! शुरू हो जा . धर्मवीर भारती , विजयदेव नारायण शाही , सर्वेशाव्र दयाल सक्सेना , जगदीश गुप्त धूमिल
और नरेंद्र नीरव की कविता पर हमने पहली कविता पोस्टर प्रदर्शनी लगाई . मन हुचुर हुचुर कर रहा था की कहीं अदालती कार्यवाही न हो जाय क्यों की जिन कवियों की कविता हमने सजाई थी ,उनकी इजाजत
तो दूर की बात रही , उन्हें सूचित तक नही किया गया था . किसी तरह प्रदशनी ख़त्म हुयी और हम भूल गये . एक हफ्ते बाद ' दिनमान ' का एक पूरा पन्ना हमारी प्रदर्शनी से भरा मिला .लेखक की जगह
लिखा था . स द स . . यह रही सर्वेश्वर जी से पहली मुलाक़ात बगैर चेहरा देखे . ब हैसियत चित्रकार  के  हम ताड़ पर चढ़ गये . रचना के दो विधाओं के मिलन पर सर्वेश्वर जी की सोच और प्रस्तुति अद्भुत थी .
उस दिन से हम दोनों के बीच एक रिश्ता बना और आखीर तक कायम रहा . हम पंडित जी हो गये और वे भाई साहब .
      ८२ में हमने बनारस छोड़ा और दिल्ली चले गये . इन दस सालों में हम कलम और ब्रश के सहारे स्वावलंबी होने लगे थे . धर्मयुग , सारिका . दिनमान , पराग , हिन्दुस्तान , कादम्बनी में छपने लगे थे .
बहुत दिनों तक हम जार्ज  साहब के साथ उनके घर पर रहे . एक दिन सर्वेश्वर जी कहा रुको तुम्हारे लिए एक सस्ता सा मकान किराए पर इंतजाम करता हूँ . ह जिम्मेवारी उन्होंने अपनी दोनों बेटिओं को
सौंप दी . बंगाली मार्केट के बगल रेल लाइन के उस पार महावत खां रोड पर रेलवे कालोनी के एक मकान में एक कमरा किराए पर ले लिया .सुबह शाम बे नागा सर्वेश्वर जी से मुलाकात होती .
एक दिन दिल्ली के बारे में हमे समझाने लगे . -देखो पंडित ! यह दिल्ली है , इसकी अपनी कोइ तमीज नही है , इसके पास अपनी कोइ रवायत नही है , यहाँ कोइ दिल्ली का बासिन्दा नही है , यहाँ जो भी
मुछ पर ताव दिए घूमते मिलेंगे , सब अपनी जड़ों से उखड कर यहाँ आ गिरे हैं कोइ उत्तर प्रदेश से है तो कोइ बिहार या राजस्थान से गरज यह की यहाँ पाकिस्तान से चलकर आये हुए लोग हैं
तुम इनकी नकल मत करना , न भेष भूषा में न ही भोजन में , जिस गाँव से आये हो उसे यहाँ ज़िंदा रखना .होटल का खाना तो कटती नही खाना . खुद बनाओ , खुद खाओ . दुसरे दिन दफ्तर से लौटते हुए
एक डिब्बा लहसन का अचार लेते आये . साथ में लंबा सा प्रवचन जो लहसन के अचार को चावल के साथ खाने के बारे में था . दिल्ली छूटा लेकिन सर्वेश्वर जी की दी हुयी सीख अभी साथ में है . हम बाजार
की कोइ भी चीज कत्तई नही खा पाते . 'खूंटियों पर टंगे लोग 'सर्वेश्वर जी की अद्भुत कृति है . भाषा और कर्म के बीच कम से कम तर दूरी पर चलना सर्वेश्वर जी की जीवन यात्रा है .
   एक दिन अल सुबह दफ्तर जाते समय सर्वेश्वर जी आये और बोले - पंडित जी ! आज टाइम्स दफ्तर में जाकर पर्सनल डिपार्टमेंट में एक लड़का है रवि , उससे मिल लेना . हमने कुछ जानना चाहा तो रोक दिए
बोले - बस जो कह  रहा हूँ . हम  टाइम्स हाउस गये . रवि से मिले . उसने कहा बैठिये आज आपका इंटरवियु है . हम चौंके . किस बात का ? उसने कहा हमे कुछ नही मालुम साधे ग्यारह पर आपको ऊपर
जी यम के कमरे में जाना है . कह कर रवि ने एक फ़ार्म हमे दिया की इसे भर दीजिये . हमने सब पूरा क्र दिया . उसमे एक कालम था , अनुमानित वेतनमान . हमने उस जगह पर छः हजार लिख दिया
 वक्त पर हम पहुंचे . वहाँ कुल चार लोग बैठे थे . पहली बहस तो तान्खाह पर ही हो गयी .  किसी ने कहा इतनी तो सम्पादक को नही मिलती . हमने कहा - इससे ज्यादा तो हम टाइम्स हाउस से ही ले लेते हैं
फ्रीलांसिंग कर के . अचानक एक साहब तने और बोले अपनी डिग्री दिखाइये . हमारे पास ओ कुछ था ही नही . इतने में जी यम   रमेश चन्द्र जैन मुस्कुराए बोले लाल साहब ! ये विश्वविद्यालय के प्रेसिडेंट भी रहे हैं
कहकर रमेश जी फोन उठा लिया और सर्वेश्वर जी से बोले - ये तो तैयार ही नही हो रहे हैं . कह कर रमेश जी ने फोन हमारी तरफ बढ़ा दिया . सर्वेश्वर जी ने अधिकार के साथ कहा कि
 पंडित जी ! हामी भर दो . जहां कहें दस्तखत करके चले आइये . और हम मुलाजिम हो गये . उस दिन सर्वेश्वर जी अपनी एक कविता सुनायी - ' इब्ने बतूता , पहन के जूता ' 'सर्वेषर जी बच्चों के लिए
लिखते ही नही थे . ताउम्र उनका बचपन उनके साथ रहा .
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अज्ञेय जी और सर्वेश्वर  जी रिश्ते /
सर्वेश्वर जी ' पराग ' का अम्पादन कर रहे थे , क अंक में अज्ञेय जी की एक छोटी से कविता प्रकाशित हुयी .लक्ष्मी चाँद गुप्त उप सम्पादक थे . वही पारिश्रमिक लगाते थे . अज्ञेय जी को क्या पारिश्रमिक लगे
इस सवाल को हल करने के लिए गुप्त जी सर्वेश्वर जी के पास गये . सर्वेश्वर जी मुस्कुराए . स्केल निकाले . कविता नापे और गुप्त जी बोले दो रूपये सैतीस पैसा . गुप्त जी भौंचक .सर्वेश्वर जी ने गुप्त जी को
कहा इतना ही होगा , लीजिये आप नाप लीजिये . दो रूपये सैतीस पैसे का  पेमेंट बन गया . एक दिन बंगाली मार्केट में जहां सर्वेश्वर जी रहते थे हम दोनों बैठे  थे . इतने में अज्ञेय जी आ गये . आते ही
सर्वेश्वर जी ने अज्ञेय जी से पूछा - कविता का पेमेंट मिल गया ? ठीक तो था ? अज्ञेय जी मुस्कुराए बोले - पेमेंट गलत बना था , तीन पैसे ज्यादा दिए हो .हमने नाप कर देख लिया है .और जोर का ठहाका लगा .
एक परम्परा खुल कर विस्तार में चली गयी .दिनमान में जब अज्ञेय जी सम्पादक थे तो नापकर भुगतान करने की परम्परा अज्ञेय जी ने इ शुरू की थी .