Tuesday, December 10, 2013

चिखुरी /चंचल
कुर्सी दौड़ चालो है .......
                           तीनो जन ...इकट्ठे ? कीन उपाधिया, लखन कहार और उमर दरजी . तीनो सजे सवरें हैं .  तेलफुलेल , से चकाचक . लोगों ने देखा तीनो मुह लटकाए चले आ रहे हैं .न कोइ बात चीत ,न हंसी मजाक , बस सरपट बढे आ रहे हैं चौराहे की तरफ . जहां आसरे की दूकान पर मजमा पहले से ही लगा बैठा है . दो चार कदम रह गया होगा तभी लाल्साहेब ने सवाल दागा -ये तीनो ....किधर से भाई ? तीनो ने कुछ नहीं बोला . बस गंभीर बने रहे . वक्त की नजाकत देखते हुए कयूम मिया ने सहलाया -अरे भाई पहले बैठने तो दो , बेचारे पता नहीं कहाँ से थके-मांदे चले आ रहे हैं ,पता नहीं इन पर क्या गुजरा है , ... आओ कीन .. हियाँ आओ .. कहाँ से लौटे हो बेटवा ? कीन कुछ जवाब देते उसके पहले ही उमर दरजी ने जवाब दिया -गए रहे टोनामेंट देखने ...
  -टोनामेंट नहीं ,टूर्नामेंट ..
जो भी हो वही देखने गए रहे ,
तो हुआ क्या ?
एक से बढ़कर एक खेल हुआ . महीनों से तो चल रहा था . 'जलेबी दौड़ 'देखा . मजा आ गया गुरू , क्या खेल है ? दोनों हाथ पीछे बंधे रहे , एक दो के नहीं ,पूरे झुण्ड के झुण्ड . जलेबी ससुरी धागे में लटकी .. कभी इधर ,कभी उधर , बाकी खेल्नेव्वाले मुह बाए कूद लगाते रहे . पर मिला उन्ही को जिनका मुह चौड़ा रहा ...
और का हुआ . ?
-तिनटंगी दौड़ . इसमें अकेले नहीं दौड़ा जाता . ...दो को मिल कर दौडना होता है . एक का बांया पैर दूसरे के दाहिने पैर से कस कर बांध दिया जा है ,फिर रेस होती है . .. एक हुआ 'बोरा दौड़ ' यह और मजेदार दोनों पैर बोरे में डाल दिया जाता है और बोरे को कमर के पास बांध देते हैं ,फिर उनका रेस देखो . ..अभी बात पूरी भी न हो पायी थी कि मद्द् पत्रकार की मोटर साइकिल आकर रुकी . लोग बताते हैं कि जब मद्दू की मोटर साइकिल रुकती है तब उनकी पत्रकारिता चलती है . चुनांचे आते ही आते मदु चालू हो गए - क्या राजनीति हो रही है भाई ? जवाब दिया कीन उपाधिया ने - राजनेति नहीं गुरू , टूनामेंट की बात हो रही है . मद्दू ने समझाया - कीन ! दोनों एक ही है . लखन कहार चकराये 'दोनों एक ही है ? जलेबी , बोरा , तीन टंगी ....? लेकिन चुप रह गए . कोइ न कोइ तो पूछेगा ही . वह क्यों फसने जाय . बहर हाल मद्दू आये और चिखुरी के बक्गल में बैठ गए .
      आज की क्या खबर है चिखुरी काका ? चिखुरी ने अखबार  बगर रख दिया . चश्मा उतार ही रहे थे कि उमर ने बयान देना शुरू कर दिया - आज की खबर ? कुर्सी दौड़ चल रही है ,हम तो ऊब कर भाग आये . हमारा कंडीडेट तो पहले ही राउंड में गिर गया . .....' लाल्साहेब को मौक़ा मिल गया -ओमर मिया ! पूरा बताओ न , कैसे क्या हुआ ?
उमर ने ,बीड़ी सुलगाया . बीड़ी उलट कर जोर से धुँआ निकाला . आँखे लाल की . फिर बताना शुरू किया .
       हम तीनो जन यहाँ से होत भिनसार  पाठशाला पे पहुच गए जहा टूनामेंट होत रहा . खेलय वाले कम देखय वाले ज्यादा . तिल रखने की भी जगह नहीं . कोइ कुर्सी पर कोइ पेड़ पर कोइ साइकिल पे इसी में हम भी तीन जन .लखन कहार मजे में रहे गमछा रहा उस पर बैठ गए . हमने ईंट खोज निकाला , कीन उपाधिया को कुछ नहीं मिला तो 'पनही ' पर ही जम गए . इतने में क्या हुआ कि पहले सीटी बजी . एकदम सन्नाटा . फिर लोड स्पीकर का भोम्पा बोला ..दिल्ली मेरी दिल्ली .. दिली .. दिल्ली .. दिल्ली ... ' रेकाट' की सूई दिली पे फस गयी . सीटी वाले साहेब ने जोर से आवाज दी -जे नहीं चलेगा कोइ धार्मिक बजाओ ... रेकाड बोला - आरा हीले ,बलिया हीले , छपरा .. रोको जल्दी रोको ... नौटंकी समझे हो का . यह टूनामेंट है . कोइ दमदार गाना लगाओ . दो पढ़े लिखे लोग उसकी मदद के लिए भेजे गए . तब कहीं जा कर देशप्रेम मिला . इन्साफ की डगर पे . बच्चो दिखाओ चल के .. यह देश है तुमारा .. तुम्हारा .. तुम्हारा .. 'और देश फंस गया . खेल रोक दिया गया . अब तय हुआ कि कि एक कुर्सी बीच में रहेगी .उसके घेर कर दौडने वाले दो होंगे . और जब सीटी बजे तो एक को उस कुर्सी पर बैठ जाना है . जो बैठ जायगा वह जीत जायगा . कई बार सीटी बजी लेकिन कोइ भी बैठने को तैयार नहीं . तब से यही चल रहा है .सीटी बजती है दोनों एक दूसरे को देखते हैं पर बैठे को राजी नहीं हैं .
  -सो क्यों ?
सच्चाई का है ये तो 'ऊपरवाला ' जाने लेकिन मुहा मुही यही हो रही है कि किसी ने कुर्सी के उस असल मुकाम पर 'केंवाच ' रगड़ दिया है . जिस पर तशरीफ रखी जाती है .जो भी बैठेगा तशरीफ खुजलाते हुए भागेगा पर खुजलाना कम नहीं होगा .राम भरोस बनिया तो आप बीती बताता रहा कि एक बार वो भी फंस चुका है , ऐसी खुजली शुरू हुई कि पूछो मत बताने में शर्म आती है .
-लेकिन यह केवांच का होता है ?
 चिखुरी मुस्कुराए .-यह एक दरख्त का फूल है जो देखने में तो बहुत खूबसूरत होता है लेकिन इनके रोंये में  एक अजीब सी फितरत होती है खुजली की .. तो सुन लो पंचो केवांच से बचना चाहिए .
और दिल्ली की खबर क्या है भाई ?
 अब सुनो ... इनका सवाल देखो ....

Tuesday, December 3, 2013

चिखुरी / चंचल
हम तुम से मोहब्बत करके  सलम .....

                (    यह सुलेख उन दोस्तों के नाम है जिन्हें तानाशाही नहीं पसंद है .इसमें रामबचन पांडे पूर्व अध्यक्ष छात्र संघ काशी विश्वविद्यालय का संशोधन नोट किया जाय कि यह उस  पीढ़ी के लिए है जो जम्हूरी निजाम चाहती है )
 ....यह लो एक खबर और ... मोहब्बत के जुर्म में जेल ..
तुम से एक बात कहा है कि जब भी अखबार बांचो ,सलीके से . लंठई मत किया कर .इ टीवी ना है अखबार है . समझे ? और उमर  दर्जी समझ गया कि अखबार लिखना ही सलीका नहीं रखता , उसका पढ़ना भी सलीका मागता है. चुनांचे उसने चिखुरी की डाट का जवाब सलीके से दिया और 'जनाब ' कहकर फर्सी सलाम मारा . चिखुरी ने उमर से कहा - चल मोटी -मोटी बता ,
मोटी मोटी ? शहर में मोटी रहें भले ही लेकिन उन्हें छपने की छूट नहीं है , हम अहमदाबाद रह के आये हैं . लोग पहले खा  पी के मोटी होती हैं फिर दुबला होने के लिए सड़क दर सड़क घूमती हैं .उमर अभी बहुत कुछ बोलता लेकिन छप हो जाना पड़ा क्यों कि अखबार का . पहला पन्ना कोलई दूबे के हाथ में है - बुड़बक हो ,उसे मार्निंग वाक् कहते हैं .
कयूम को मौक़ा चाहिए होता है -इस्वाक में क्या होता है ?कयूम सवाल नहीं पूछते ,सवाल की गाँठ खोजते हैं .सो कोलई को विस्तार में जाना ही पड़ा .- पुरुष और महिला अल सुबह पार्क में चले जाते हैं . चुस्त पजामा और ढीली कुर्ती . जोर जोर से सांस निकालते हैं बंद कमरे का मशीन वाला हवा बाहर छोड़ते हैं और पेड़ पौधों की खुशबूदार हवा अंदर खींचे हुए तेज रफ़्तार से चलते हैं . महिलायें आगे रहती हैं पुरुष पीछे . ऐसा क्यों ? लखन कहार का सवाल टेढ़ा था . चिखुरी पलटे- इस लिए कि पुरुष  बत्तमीज होता है . कोलई चौके -ये लो .ताबक तोड़ दो ख़बरें .
सुना जाओ अभी चाय पक रही है .
पक नहीं रही है , दूध ही फट गया . आसरे ने ऐलान किया और बर्तन को फिर से धोने लगा . लाल्साहेब की आँख गोल हुई -कमाल है इस जमाने में भी दूध फटे लगा ? देखते देखते ज़माना खराब हुआ है . लाल्साहेब चालू हो गए - अभी कल मी बात है दूध फटने न पाए इसके लिए कितनी साफ़ सफाई रखनी पड़ती थी ,एक के घर में घी बनता था तो पूरा गाँव जान जता था . अबतो न कोइ महक न स्वाद . सब कुछ नकली .लखन ने एक अलग का किस्सा सुनाया . ''' पप्पू क भौजी बैगन खरीद कर ले गयी थी . एक बैगन बचा कर रखदी थी कि सुबह आलू मिला के चोखा बनाएंगे ,लेकिन सुबह क्या देखती है कि बैगन फूल के लौकी हो गया है . पूरे गाँव में कोहराम .पता चला आजकल सब्जियों को भी इन्फेक्सन दिया जाता है .
      इन्फेकन नहीं इंजेक्सन कहो .
     एकै मतलब हुआ .
लेकिन इ भी तो पता चले कि पप्पुआ क भौजी  बैगन रखे कहाँ रही ? एक साथ कई ठहाके लगे . लेकिन सबसे देर तक हँसते हैं कयूम मिया और उनके हँसने का तरीका कत्तई  आलग है . वे थोड़े थोड़े देर के अंतराल पर फिस्स ... फिस्स   करते रहेंगे .
   खबर तो सुनो , कोलई ने जोर का हांका मारा . और लोगों के कां उधर हो गए . एक साथ दो खबर . दोनों का मामला एक है ..
  मामला मत सुनाइये खबर पढ़िए . ..तहलका के संपादक पर बलात्कार का आरोप .
यह तहलका क्या है भाई ?  मद्दू ने बताया -तहलका ? यह हंगामा से मिलता जुलता है . उसके कोइ संपादक हैं तरुण तेजपाल उन्होंने ,,,,,,,
किसके साथ किया ?
उसका नाम नहीं है .
दूसरा ?
एक साहब है अमित शाह उन्होंने एक लड़की की जासूसी कराई वो भी अपने साहेब के लिए .
पूरा दिन खराब हो गया .कहते हुए चिखुरी ने मद्दू को उकसाया . -आपै बताओ भाई तुम भी अखबार से हो . का लगते हो अखबार के ? मद्दू इस सवाल के लिए तैयार  नहीं थे ,झिझकते हुए बोले -संबाददाता ...... हुआ यूँ कि ये जो साहब हैं तरुण जी अपने किसी महिला संपादिका से जबरदस्ती करने लगे और लगे 'लिफ्ट' मागने ' बस बात खुल गयी लिफ्ट की वजह से . अब पुलिस तरुण को गोवा ले जा रही है क्यों कि लिफ्ट वही गोवा में ही पडी है .और दूसरी ?
दूसरी खबर और भी नाजुक है .....गुजरात के कलेत्टर थे प्रदीप शर्मा . इसलिए उन्हें गुजरात की सरकार ने गिरफ्तार कर के जेल में डाल दिया.ताकी लोगों को पता तो चले कि जब इतने ऊंचे ओहदेदार को जेल में डाला जा सकता है तो बाकी किसकी औकात ? कभी सुना कि वहा कोइ कुछ बोला हो ? कोइ सवाल उठा हो ? इसे कहते हैं तर्ज ये हुकूमत . इसे ही कहते हैं 'गुजरात माडल . ' इस माडल में हर कोइ चौकन्ना रहता है . कोइ किसी से बात नहीं करता बात करनी है तो पहले जेल जाओ ,जमानत कराओ ,बाहर निकलो ,बात करो .फिर नयी धारा में जेल जाओ . इसी नुस्खे को पूरे देश में लगाने का इंतजाम किया जा रहा है . बशर्ते जनता समझे .लेकिन इस साथ साल में जनता भी बदजुबान हो गयी है ,अपने ही नेता से जुबान लड़ाती है . भाई नेता जी जो बोलें सब सही .उस पर सवाल मत उठाओ .उठाओगे   तो भोगो गे .साहेब कुछ भी कर सकते हैं किसी के भी गर की खाना तलाशी ले सकते हैं लेकिन साहेब की तरफ मत देखो . शर्मा जी को देखो , भाई चुप चाप चुप ही रहते क्यों झाकने लगे . बस चलो जेल क्यों कि शर्मा जी उस सी डी  को जानते हैं जो अमित के साहेब और साहेब की महबूबा के बारे में है .
इ सी डी का होती है भाई .लखन ने गंभीर सवाल पूछा . चिखुरी ने घुड़का - जवानी भी जा रही है और सी डी नहीं जानते ? भाजपा तो जानते हो न ? यह उसका खेल है . सटीक लगता है . यह एक तरह का तावा होता है इसमें गाना बजाना .नाचना कूदना बातचीत सब होती है . कहते हैं कि साहेब उस सी डी में हैं .और लोग यह भी कहते हैं कि इसी सीडी से साहेब ने संजय जोशी का खेल  खत्म किया था अब वही सीडी खुद के गले में फंस गयी है . लाल्साहेब बीच में आ गए -बोया पेड़ बबूल का ... ये अमित शाह कौन है भाई ?
... लोग बताते हैं इसकी पैदाइस शिकागो में हुई है .कई तरह की पढाई किया पर सुधरा नहीं ,गुजरात आगया और सरकार कामंत्री बन गया .
और ये साहेब कौन हैं ?
साहेब कहते हैं मुख्यमंत्री को .
और साहेब क्या कहते हैं ?
खलक खुदा का ,
हुकुम शहर कोतवाल का ,
हर खास व आम को आगाह किया जाता है कि -
डॉ धर्मवीर भारती की कविता पूरे सुर में बाचते हुए नवल उपधिया आगे बढ़ गए .

Thursday, November 14, 2013

श्रद्धांजलि /
हरेकृष्ण देवसरे के बहाने .....
        वे बाल साहित्य के लिए आये थे ,और 'बाल दिवस ' के ही दिन महा प्रस्थान  पर निकल गए . (१४ नवंबर २०१३ ) उन्होंने हिन्दी में जो शोध किया था वह बच्चों के साहित्य पर था . उन्होंने कई दर्जन किताबे लिखी सब बच्चों के लिए . रेडियो ,दूरदर्शन पर जो काम किये वे सब बच्चों को केन्द्र में रख कर . हमारी उनकी मुलाक़ात तब हुई जब वे बच्चों की पत्रिका 'पराग ' के संपादक हो कर आये . उन दिनों हम पराग में ही थे . यहाँ हम विषयान्तर कर रहे हैं .
       'पराग' टाइम्स घराने की पत्रिका रही और बच्चों से लेकर बड़ों तक इसे चाव से पढते थे . यह वह दौर है जब टाइम्स घराना अपना निजाम बदल रहा था . नयी पीढ़ी आ चुकी थी . अशोक जैन , रामाजी जैन विदा हो रहे थे उनकी जगह आरहे थे समीर जैन .ऋचा जैन . रमेश जैन जिन्होंने बहुत मेहनत मसक्कत से टाइम्स घराने के तानेबाने को कस कर बनाया हुआ था ,उन्हें हासिये पर डाल दिया गया था . एक नयी सोच लेकर 'बच्चे ' उत्साहित थे . लेकिन उन्हें लगा कि जब तक 'स्थापित ' नामो को हटाया नहीं जायगा तब तक उनकी मनमानी नहीं चल पायेगी . पला काम हुआ कि 'सारिका ' से कमलेश्वर को हटाने का तरीका एक ही है उसे बंबई से दिल्ली कर दिया जाय . वही हुआ और कमलेश्वर जी ने जिन्होंने बंबई में अपनी जड़े जमा ली थी ने दिल्ली आने से मना कर दिया . 'माधुरी ' हिन्दी एक मात्र सिनेमा पत्रिका से अरविन्द जी को हटना पड़ा . और बाद में उसे भी बंद कर दिया गया . इलस्ट्रेटेड वीकली से खुशवंत जी पहले ही बाहर आगये थे . धर्मवीर भारती 'धर्मयुग से रिटायर हो चुके थे . मामला बड़ा गड्ड मद्द हो चुका था . दिनमान के सम्पादक बनाए गए कन्हैया लाल नंदन . नंदन जी को मालुम था कि उनके मातहत होकर सर्वेश्वर जी काम नहीं करेंगे . इस लिए सर्वेश्वर जी को पराग का संपादन सौपा गया . यहाँ एक और दिलचस्प घटना घटी .
  एक दिन सर्वेश्वर जी ने हमसे कहा कि मै पराग में आ जाऊं . हमने कहा जो भी काम हो बताइये हम तो हैं ही .बोले नहीं तुम्हारा नाम 'पराग ' में जायगा वह भी एक कार्टूनिस्ट की हैसियत से . हम वाकई तैयार नहे थे लेकिन उनकी बात भी नही टाल सकता था .  अचानक पर्सनल डिपार्टमेंट से हमें सन्देश मिला कि आज ग्यारह बजे आपका इंटरव्यू है . मै पहुचा . उन दिनों टाइम्स एक फ़ार्म भरवाता था जिसमे एक कालम होता था कि आप कितने 'तनखाह ' तक में काम करने को तैयार हैं ? हा,मने उसमे छ हजार लिखा . (उन दिनों संपादक की भी तनखाह इतनी नहीं करती थी ) अंदर गया .मुख्य कुर्सी पर रमेश चंद जैन बैठे थे ,बाकियों को हम नहीं पहचानते थे .सारी तक झक तनखाह  को लेकर हुई . रमेश जी ने सर्वेश्वर जी से फोन पर बात की और फोन हमें हमें पकड़ा दिया . सर्वेश्वर जी ने कहा - पंडित जी आप दस्तखत कर के  चले आइये . हमने वही किया और पराग में आ गया .
      एक साल बाद अचानक सर्वेश्वर जी का निधन हो गया . और उनकी जगह आये डॉ हरेकृष्ण देवसरे . हम उनसे परचित नहीं थे . और हमने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया . उन्ही दिनों हमारी दोस्त रंगमंच की एक बड़ी कलाकार दीपा साही जो आजकल केतन मेहता  से शादी करने के बाद दीपा मेहता के नाम से जानी जाती हैं और फ़िल्मी दुनिया की बड़ी हस्ती हैं , टाइम्स में ऋचा जैन की सलाहकार होकर आ गयी थी ,उनसे हमने कहा कि यार अब हम नौकरी नहीं करेंगे .बहर हाल दीपा और ऋचा ने हमें बुला कर आस्वस्थ किया कि कोइ दिक्कत नहीं होगी .
    दूसरे दिन देवसरे जी ने हमें बुलाया और लंबी बातचीत हुई .फिर हम दोनों के बीच बड़े अच्छे रिश्ते बने और आखीर तक रहा . उनका इस तरह से जाना अखर रहा है .
उन्ही देवसरे जी को उन तमाम बच्चों की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित करता हूँ जिनके लिए वे आजीवन लिखते रहे .
नमन

यादें /चंचल
दीनदयाल हर गलत से लड़ते रहे 
दीनदयाल ता उम्र संघ विरोधी रहे . बेहिचक ,बेख़ौफ़ , उससे लड़ते रहे . भाषा से कर्म से . ७७ में हम जेल से छूट कर आये थे . देबूदा ( स्वर्गीय देवब्रत मजुमदार ) यह तय कर चुके थे कि हमें ही चुनाव लड़ाएंगे . गोकि  हम इस पक्ष में नहीं थे . लेकिन देबू दा ने मधु जी को(स्वर्गीय मधु लिमये ) को पहले समझा चुके थे कि उसे ही लड़ाना है . हमने जब मधू जी से कहा कि हमें संसद का चुनाव लड़ने दीजिए तो मधुजी ने मना कर दिया . बोले नहीं तुम्हे विश्वविद्यालय का चुनाव लड़ना है . बहरहाल हम आ गए . सयुस में दीनदयाल एक हस्ताक्षर रहे . दो जन थे जो दीनदयाल से बेख़ौफ़ बात करते थे एक देबू दा जो दीनदयाल को बगैर जी लगाए बोलते थे दूसरे थे राम बचन पांडे (छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और समाजवादी ) वो तो बाज दफे दीनदयाल को 'कनवा' तक बोलते थे . दीन दयाल के पास सयुस के अलावा एक संगठन और था . जो कुछ भी कर सकता था . मसलन आंदोलन के समय किसी भी इमारत में आग लगा देना , पुलिस से कैसे भिडा जाता है , किसी की भी सभा को कैसे उखाडा जाता है आदि आदि .
उस चुनाव में संघियों ने हमपर आरोप लगाया -'गेस्ट हाउस 'कांड का जवाब दो . बंदे मातरम . दीन दयाल जी ने उसका काट निकाला -'हाफ पैंट खोल के बोलो बन्देमातरम ' दीनदयाल की यह खोज रात भर में विश्वविद्यालय के अंदर और बाहर प्रचलित हो गयी .यहाँ तक कि महिला छात्रावासों में भी यह नारा गुजने लगा . हमारे खिलाफ विद्यार्थी परिषद से भाई महेंद्र नाथ चुनाव लड़ रहे थे . हम दोनों आपातकाल में साथ साथ जेल में रहे थे . हमारे बहुत अच्छे दोस्त भी रहे . लेकिन थे संघी . एक दिन हम लोग टंडन जी के यहाँ चाय पी रहे थे . इतने में महेंद्र नाथ सिंह भी वहीं आ गए . महेंद्र नाथ ने कहा भी दीन दयाल जी !मेरे ऊपर भी तो कुछ दया करिये हम लोग एक ही जिला जवार (दोनों बलिया से रहे ) से हैं .दीन दयाल ने अपनी भाषा में जवाब दिया -नाट! नाट जी !! इतने में रामबचन पांडे ने दूसरा प्रस्ताव दिया- महेंदर जी ,आप दीन दयाल की शादी करवा दीजिए . जोर का ठहाका लगा . दीनदयाल ने शर्त रखी ,लेकिन वह समुच होनी चाहिए . महेंदर ने कहा यही तो दिक्कत है , दीन दयाल भाई ऐसी जगह से गलत हैं कि सब को आसानी से दिखाई पड़ जाता है . दीनदयाल ने अकाट्य तर्क दिया - जो दोनों आँख से समूचहैं उन्होंने ही क्या उखाड़ लिया है . ?
इसका किसी के पास जवाब नहीं था .
        चुनाव हुआ . हम जीते . हर तीसरे दिन दीन दयाल जी आ जाते . आफिस से सादा कागद लेते . हमारे सामने रख देते . बोलते काम के नहीं हो इस पर इस्तीफा लिख दो . और हम चुपचाप लिख्देते . दीन दयाल जी उस कागद को जेब में डालते और चुप चाप निकल जाते . एक दिन पांडे जी ( छात्र संघ के चपरासी थे ,हमारे अभिभावक थे ) हमारे पास आये और बोले -यह दीन दयाल हर दूसरे दिन एक कागद बर्बाद करता है ,यहाँ से इस्तीफा लिख्व्वायेगा बाहर गेट तक जाते जाते फाड़ कर फेंक देता है . हमने कहा क्या करें पांडे जी . पांडे जी ने कहा मै उससे बात करूँगा . बात आयी गयी हो गयी . एक दिन पांडे जी आये और मेरे हाथ में दोतीन इस्तीफा देते हुए बोले इसे अपने दराज में रखे रहा करो जब वह इस्तीफा मागे तो उसे यही दे दिया करो . मैंने वही किया . दो दिन बाद फिर दीनदयाल जी नमूदार हुए . किसी काम नहीं हो इस्तीफा लिखो . मैंने सफ़ेद कागद ले लिया और दराज से निकाल कर एक इस्तीफा दे दिया . दीन दयाल चले गए . थोड़ी देर बाद फिर लौटे . हमसे बोले -थाने फोन करो . हमने पूछा क्यों ,क्या हुआ ? छात्रसंघ में चोरी हुयी .
    किसकी चोरी ?
    पांडे जी का सब सामान गायब है .
    पांडे जी का ? क्या गायब हुआ है ?
    उनकी चुनौटी, खैनी की पुडिया , कुछ जरूरी कागजात .
    हमने कहा जाने दीजिए दीन दयाल जी ,उनके चुनौटी और खैनी का दाम मै दे देता हूँ .
    लेकिन कागजात ?
    किस चीज का कागजात ?
    बहुत कीमती है .
मैंने पांडे जी को बुलाया . -पांडे जी कागजात क्या थे ?
पांडे जी हंस दिये . दीन दयाल समझ गए . अच्छा चुनौटी और खैनी का पैसा निकालो . और हमने बीस रूपये दे दिये .
'हाट डाग' के आर्डर पर भरत सिंह उखड गए थे ,इसपर कल .

Tuesday, November 12, 2013

चिखुरी/ चंचल
एक रफूगर की तलाश है ....
किस्सा वही पुराना है .
मियाँ उसे बाद में बताना ,पहले ररा नाऊ को सुन लिया जाय ,काहे से कि उसे सैलून खोलना है .पंचाईत का मुह जो कयूम की तरफ था घूम कर ररा नाई की तरफ हो गया . गो कि कई लोगों को इस तबादले 'पोजीशन 'में दिक्कत दर पेश आयी .कोलई दूबे की धोती जो बेंच के 'फांस' में फसी पडी थी वह मसक गयी . लिहाजा उन्हें खड़ा होना पड़ा और गर्दन को  पीछे की तरह से मोड़ा जैसे वहाँ पीछे कोइ बड़ी वारदात हो गयी हो . मद्दू जो पत्रकार भी हैं ने मइके को लपक लिया -वाह गुरू हू ब हू खजुराहों लग रहे हो .कोलई का उखड़ना बनता था .मामूली धोती नहीं है जो अभी फटी है कंधे कौच्का कर बोले -कुतिया छाप मारकीन नहीं है .. कुछ और बोलते लेकिन उधर मामला और भी पेचीदा हो चुका है . ररा की बात सुनने के लिए लखन नेजब ईंट को ही घुमाना चा हा जिसपर वो बैठे तो ईंट बे काबू हो गयी और बगल में पड़े लम्मरदार के सोंटे से टकरा गयी .चूंकी सोंटों में लचक तो होती नहीं चुनाचे सोंटा उठा और तड़ाक से लम्मरदार के ही 'नरहड' सजा टकराया ( नरहड कहते हैं पैर के घुटने और ऐड़ी के बीच की वह हड्डी जो सामने रहती है .इसकी मुकम्मिल जानकारी हिन्दुस्तान की पुलिस के पास होता है ) अव्वल तो लम्मरदार  को कुछ समझ में ही नहीं आया कि यह हुआ क्या क्यों कि चोट में दम था और जब चोट में दम होता है चोट सबसे पहले मा को बुलाती है . चाहे वह कुकुर हो चाहे लम्मरदार .भाषा अलग हो सकती है लेकिन चीख की गति एक ही होती है . लम्मरदार चीखे -अरे माई रे ... कई हाथ बढ़ गए लम्मरदार के पैर की तरफ . ज्यों ज्यों दर्द कम होता गया लम्मरदार की जुबान कैची होती गयी . इस कैंची ने कईबार खुल्लाल खुल्ला लखन की मा के साथ कई तरह के रिश्ते कायम किये .फिर लम्मरदार पलते ररा नाई की तरफ .बहरहाल यह सब हुआ .और होता रहता तब तक बीच में आसरे ने चाय बाटनी शुरू कर दी .. लो लम्मरदार चाय पियो सब दर्द गायब .'
चाय इतनी कमाल की चीज होती है ? उमर दरजी जन्म क मुरहा है .बरबखत  कुबात बोलता है .
तुम काजानो चाय की महिमा . चाय पिलाय के नखडू परधान हो गया . इसकी तासीर में गजब की ....
दरबारी मास्टर अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाए थे कि किन उपधिया हत्थे से उखड गए - आस्तर सुना जाय , हम बेवक़ूफ़ ना हैं आप कहाँ से बोल रहे हैं हम सब समझ रहे हैं .इस बखत चाय पे बहस चलाने से क्या मतलब ? ऊ बचपन में चाय भले बचत रहा मुला  बेमानी त ना करत रहा . आपन पार्टी देखो ,करोड़ो खा के डकार तक ...
किसकी बात कर रहे हो भाई ?
ऊ अपने नेता को समझ लिए .बस . छोडो उसे . ररा  को सुना जाय . बोलो ररा क्या कह रहे थे?
बोफोर्स गया रहा डिल्ली. (बोफोर्स ररा नाई का लड़का है ,यह उसी दिन पैदा हुआ था जिस दिन वीपी सिंह ने बोफोर्स का कागद खीसे से निकाल कर दिखाया था . यह बात दीगर है कि उसे कोइ माई क लाल आज तक नहीं पढ़ पाया जब उसके चलते एस सरकार बदल गयी . आर ररा की बीवी ने एक बच्चे को जनम तक दे दिया और अब वह दिल्ली मेकिसी सैलून में 'बँगला ' काटता है ) पूरे सात महीने बाद लौटा है . बता रहा था कि उसने वहाँ पर  जयप्रकाश नारायण को देखा .उनके पीछे बैताली झोला लटकाए रेस कोर्स का रास्ता पूछ रहा है . जयप्रकाश नारायण उसे सलाह दे रहे हैं कि रेस कोर्स का झंझट छोड. जाकर आपनी घर देख . बाप नाराज होकर घर छोड़ गया है उसे मना . संजय तोर भाई रहा उसे बेदखल किये हो ,उसे खोज . अपनी औरत के बुला ला , और एक बात कां खोल के सुन ले 'उधार के बाप से न वरासत बदलती है , न ही वसीयत मिलती है . .. बोफ्र्स्वा कहत रहा बैतालिया क दाढ़ी बहुत बढ़ गयी रही ,हम दौड़े कि उसे बना दें पर जब तक हम पहुँचते तब तक ऊ टेशन की तरफ बढ़ गया रहा .
लम्मरदार से नहीं रहा गया . - अबे ररा के बच्चे ! जे पीकेमारे कितना दिन हुआ ? कुछ मालुम है ? औ तै कहत बाते कि ऊ बैताली से मिले रहे .. अबे चल सैलून .. /चिखुरी ने रोका - देख भाई लम्मरदार ये ज़माना ही कुछ अंड बन्ड हो गया है . एक ने तो यहाँ तक कह डाला कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और विवेकानद के बीच बात चीत होती थी . और मुखर्जी वही करते थे जो विवेकानंद  जी सलाह देते . तो ररा ने अगर यह कह दिया तो क्या गलत कहा ?
लम्मरदार ने बड़े सलीके से कहा -भाई बड़े लोगों के पास बातों के रफूगर होते हैं . बहुत महीन रफू करते हैं .पिछली बार रफू किया न कि सिकंदर बिहार की डर से भागा था .क्यों कि झेलम तक बिहार था . यह भी रफू हो जायगा .
नवल ने वाजिब सवाल उठाया -रफू सीखने का कोइ इसकूल है ,
कयूम मुस्कुराए . - दाखिला लेना है का बेटा ? ..
मिल जाय तो अच्छा रहेगा .
तो पहले यह तय कर लो रफू क्या करना है ?.. कयूम की बात नवल समझ चुके थे . कयूम की तरफ मुस्कुराकर देखे और जाते जाते एक झटका दे गए - मोरा सैयां गवन लिए जाय ,करौना की छैयां छैयां ...




Monday, October 21, 2013

चिखुरी चिचियाने /चंचल

ये गधे सब कहाँ गए भाई .......
   
           सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था . रोज की तरह आसरे की चाय की दूकान गुलजार थी .गाँव के जाने-माने लोग अलसुबह घर-बार रामभरोसे छोड़ कर चौराहे पर आ जमे थे . भट्ठी सुलग रही थी . लोग अपने अपने यथोचित जगह पर काबिज थे . अचानक पूरब की तरफ से एक मिमियाती आवाज आयी -
'शंकर का लिंग ले लो ... साछात हनुमान ले लो ००००००० ' चौराहे के लिए यह नया ऐलान था ,चुनांचे लोगों का चौकना लाजमी था . चिखुरी ने चश्मे के नीचे से झांका , कयूम ने गर्दन उठाकर देखा , लखन कहार को पीछे मुडना पड़ा , उमर दरजी को चौकना अच्छा लगा .आसरे जो उस वक्त चाय को केतली में छान रहा था वह भट्ठी में जा गिरी .गरज यह कि सब कि निगाह उस तरफ मुड गयी जिधर से यह आवाज आयी थी . जिधर से यह आवाज आयी थी वह एक साइकिल पर था लेकिन चढ़ कर नहीं ,पैदल दोनों थे साइकिल भी और चलानेवाला भी . अधेड़ उम्र का आदमी जिसके रहन-सहन ने उसे वक्त के पहले ही बूढ़ा बना दिया था , खसखसी दाढ़ी ,उखड़े हुए बाल , नीची तहमत ऊपर जालीदार बनियान कंधे पर लाल गमछा . उमर दरजी ने पहचान लिया - अरे ये तो असर्फी है .असरफी पथरकटा...
असराफी पथारकटा?  कीन उपाधिया ने ऐसे आँखें गोल की जैसे वो नहीं जानते . लखन कहार ने परिचय दिया .असर्फी ... झिंगुरी क लडिका . अरे वही जो गाँव गाँव घूम के सील लोढ़ा  कूटता था . बड़ा मजाकिया था . गाँव की औरते उसे देखते ही घूघट काढ के भितरा  जाती थी . ऐसा ऐसा मजाक करता था कि पूछो मत . चिखुरी ने असरफी को गौर से देखा -' तो यह झिंगुरी का लड़का है ? एक बात तुम लोगों को नहीं मालुम होगा ,इसका बाप झिंगुरी अपनी जवानी में पहलवान रहा लेकिन खुराक ने उसे तोड़ दिया . बुलाओ देखो क्या बेच रहा है '? नवल ने आवाज दिया आइये असरफी भाई चिखुरी काका बुला रहे हैं ... सायकिल वहीं लगा दीजिए उसी बांस से टिका दीजिए आइये .
     यहाँ एक गडबड हो गयी . साइकिल में चूंकी 'स्टैंड ' ना रहा  चुनांचे साकिल को कल्लू पंचर वाले के मडहे की उस बांस की थून से टिकाना पड़ा जिस पर छप्पर का पूर्वी पाख टिका पड़ा था . उधर साइकिल टिका कर असरफी दो कदम इधर बढे कि उधर बांस बीच से टूट गया और साइकिल नीचे गिर गयी और मडहा  झूल गया
कोइ बड़ी दुर्घटना हो इसके पहले ही कल्लू निकल कर बाहर भागा . साइकिल के कैरियर पर  लदा सामान पानी भरे तसले में जा गिरा ,पानी  उछाल मारा और आराम से सो रहे करियवा कुकुर पर जा गिरा . वह ऐसे किसी हादसे का आदी नहीं था चुनांचे कों करके भागा और वहाँ जाकर रुका जहां कीन उपाधिया जनेऊ चढाये बैठे लघु शंका कर रहे थे . कमबख्त वहाँ जाकर कुनमुनाया और अपने शरीर को ऐसा झटका कि तसले का जो पानी उसके कान में रुका पड़ा था कीन की पीठ पर जा गिरा . कीन को यह बात नागवार लगी ,जिस काम में लगे थे उसे वहीं जस का तस छोड़ कर एक अद्धा उठाया और बहादुर पे दे मारा (  चौराहे पर इस करियवा कुकुर को बहादुर कह कर बुलाया जाता है और वह सुनता भी है ) बहादुर समझ गया था कि उसके साथ क्या हो सकता है .लिहाजा वह तो कूद कर बच निकला लेकिन ईंट का वह अद्धा खेलावन की दकान पर अस्सी के स्पीड से जा पहुंचा और सामने पड़े कुम्हड़े में जा घुसा . खेलावन चौंक कर कूदे इस कूदने में उनकी धोती फट गयी .दोहरी मार से बौखलाए खेलावन ने कीन  को छोड़ कर उनकी माँ से किसी अचूक और अति गोपनीय क्रिया की घोषणा कर दी, जिसे किसी भी सभ्य समाज में गाली कहा और माना जाता है .बाज दफे तो इस एक जुमले पर कई लोग शहीद होते देखे गए हैं लेकिन यह शहर तो है नहीं  . शहर होता तो यह एक घटना दंगा के लिए काफी रहता लेकिन मामला ठहरा गाँव का और गाँव में हर कोइ हर किसी का कुछ न कुछ लगता ही है .कीन को उनकी माँ के साथ खेलावन ने जो लपेटा मारा था .उसका उन्होंने बुरा नहीं माना क्यों कि गाँव के रिश्ते में खेलावन उनका बाप लगता है. खटीक है तो क्या हुआ. यह सब पलक झपकते हुआ
जिसकी वजह से यह सब हुआ वह असरफी अभी बीच डगर में ही खड़े हैं . अचानक उनको याद आया कि साइकिल तो उसी तरह उल्टी पडी है.  असरफी लपक कर साइकिल की तरफ बढे और लगे उसे उठाने .लेकिंन सैकिल के नखडे कि उठने का नाम न ले .जब भी उठे उलार हो जाय .अगला पहिया कंधे के ऊपर और पिछला टस से मस्स न हो . . उमर दरजी और लखन कहार दौड़े मदद के लए, तब जाकर साइकिल सीधी  हुयी .
इसबार गलती न दुहराते हुए साइकिल को दीवार से टिका कर तीनो चिखुरी के दरबार में पहुचे .
     का लदा है भाई कैरियर पर ?
      एक ठो हनुमान जी औ दू ठो शंकर जी का लिंग .
     एयं ! इ कौन बात भई ?
     का करें सरकार ! बाप दादा पथर कटाई करते रहे . गाँव गाँव घूमि के घर घर सील लोढ़ा कूटते  रहे इज्जत से जिंदगी कटती रही ससुरी 'बखत 'क खेल देखिये घर से सील लोढ़ा  गायब . अब करें का ? जर जमीन तो है ना फिर सोचा शहर चाला जाय .गए भी, रिक्सा भी खींचे पर जब आदत रहे तब ना . एक दिन एक साधू  मिला .जमुना के किनारे . बोला बेटा तुम  गाँव जावो . हनुमान की मूरत बनाओ उर शंकर का लिंग गढो  मालामाल हो जावोगे . ये ज़माना है है धरम का . हम लौट लिए .ये तब कि बात हैजब अजोधा में बवाल मचा रहा .. सो तब से इसी काम में लगा हूँ . अब झूठ का बोले कमाए भी .पर अब मंदा हो गया है .
         मंदा काहे ?लखन कहार का सवाल बीच में ही लटक गया . चिखुरी ने डपट दिया बुड़बक हो का . हनुमान और शंकर सील हैं कि लोढा ? हर महीने कुटाई होए . ? एक बार जम गाये तो जम गए .
      लेकिन इ सील लोढ़ा गायब कैसे हुए ? नवल उपधिया का बुनियादी सवाल कयूम ने लपक लिया -
- नवल बेटा  एकर जवाब त तुम्हार माई देये वोसे पूछ लिह्यो . नवल लजा गए . जवाब दिया चिहुरी ने -सुन जब से इ विकास आया है सब बिगाड़ के रख दिया . अब हर चीज पिसा पिसाया मार्केट  में है .पुडिया खरीदो कड़ाही मे डालो और ऐश करो .राम लाल क दूकान देखो सब समान भरा पड़ा है .
      पर एक बात है काका ऊ स्वाद अब ना रहा जो हम बचपन में खाते रहे .खेलावन खातिक को कुम्हड़े का फूटना भूल गया और लगे स्वाद पर सवाल उठाने . चिखुरी चीखे -स्वाद खोज रहे हो . नकली समान खरीदोगे और स्वाद खोजोगे ?
       एक बात हमारी भी सुनी जाय , समान नकली नहीं है .मद्दू पत्रकार ने पत्रकारिता दिखाई -सामान सब असली है बस नाम बदला है ,घोड़े की लीद चाहिए तो पीसी धनिया खरीद लो , चिलबिल की पत्ती चाहिए तो पिसा मिर्च ले लो ललके रंग में रंगा  , कहाँ तक बताएं . प्लास्टिक खाने का मन करे तो नूडल खरीद लो  हाँ भाई ..मैदे की सेवई पर पतला प्लास्टिक चढ़ा रहता है जिससे उबालने पर अलग अलग छतकता रहता है .तो मतलब हम चू........
    चिखुरी हत्थे से उखड गए - सवाल यह नहीं कि हम असल खा रहे हैं के नक़ल . खा तो रहे हैं . यही होगा जल्दी मरेंगे .लेकिन अगली पीढ़ी तो ज़िंदा रहेगी जल्दी मरने के लिए . ईनके बारे में सोचो आख़िरी पीढ़ी जी  रहे हैं . कितने दिन बिकेंगे हनुमान ,शंकर का लिंग . पेशा खत्म तो जाति  खत्म .धुनिया दिखाई पड़ता है कहीं ?? दोना पत्तल बनानेवाले मुसहर मारे गए प्लास्टिक से . कुम्हार मारा जा रहा है .दरबारी मास्टर ने पते की बात कही - आदमी की जाति ही नहीं गायब हो रही साथ ही साथ जानवर भी गायब हो रहे हैं . अब गधा कहीं दिखाई पड़ता है ? बोलो पंचो . आखन देखी बता रहा हूँ .असरफी के बाप रहे झिंगुरी , गदहे पर जांत , चकरी सील बट्टा लिए घूमते थे .अब गदहा इलाके से गायब है प्राइमरी की किताब में भले ही दिख पडे . मंगरू धोबी गाँव भर क कपड़ा उसी गदहे पे लादते थे और खुदौ ऊपर चढ़ी के सवारी करते थे . कोइ बता सकता है कि कहाँ गए सब गदहे ?
  सुल्ताना नाई से नहीं रहा गया -हम बताएं कहाँ गए ?? हम्मे मालुम है ...
कीन उपाधिया समझ गए कि इ का बोलेगा , -अबे निकाली पनही ?
उमर दरजी ने टांका मारा -कीन पहिले पनही खरीदै के पडी  .. 'ठहाका उठा और दाना च्गती गौरैया फुर्र से उड़ गयी .
        नवल उपधिया जो अब तक चुप चाप सुनते रहे संजीदा हो गए और चिखुरी से बोले -एक बात बतावा काका ! अगर इस सब सही है त अब का कीन जाय ? कयूम्कुछ बोलने के लिए मुह खोले की थे कि चिखुरी ने आँख के इशारे से घुडूक दिया , कयूम  मुस्कुरा के रह गए . चिखुरी ने संजीदगी से कहा एक बात मानोगे ? सब चुप रहे . चिखुरी बोले आज से पिसा मसाला बंद ,खड़ा मसाला चालू .सस्ता क सस्ता ,स्वाद क स्वाद . मसाला पैदा हम करें मुनाफ़ा खायं वो . ?
      नवल ने तुरत आडर दिया - असरफी  भाय एक सील लोढ़ा बनाय दो.
    उमर दरजी ने हांक लगाया -सील ... लोढ़ा ..... कुट्वाय .....लो........
देखिये कल क्या होता है . बहादुर कुनमुना कर देखा और फिर जमीन से कान सटा कर सो गया . 

Saturday, October 12, 2013

कांग्रेस का परिमार्जन जरूरी है , खात्मा नहीं ......
चंचल 
    आजादी के बाद     कांग्रेस को ज़िंदा रखना ,कांग्रेस कीसबसे बड़ी दिक्कत थी . विशेष कर तब जब वह स्थापित संस्थान की तरह स्थापित होने जा रही हो और उसमे अधिनायकवादी डगर की तरफ बढ़ने की संभावना हो..ऐसे समय गांधी की यह चिंता एक नए अध्याय की शुरुआत करती है ,जब वह कहते हैं कि कांग्रेस का काम समाप्त हो गया है ,अब उसे 'समाप्त ' कर दिया जाना चाहिए .
        चूंकी देश नया नया आजाद हुआ था ,एक उमंग , जोश और उल्लास पूरे वातावरण में में था चुनांचे गांधी की बात नतो देश ने सुना न ही कांग्रेस ने .और इसके लिए कोइ तैयार भी नहीं था . जब कि गांधी कांग्रेस को नया जीवन देने जा रहे थे .कांग्रेस को उस तरह ले जाना चाहते थे जो सारी दुनिया के सामने एक मिसाल बने .गांधी ने बड़े सहज ढंग से कहा 'कांग्रेस का काम समाप्त हो गया है ' उनका इशारा इतिहास की एक गाँठ खोलता है -कल तक कांग्रेस एक सत्ता से लड़ रही थी ,उसकी वरीयता दूसरी थी .आज कांग्रेस स्वयं 'सत्ता है ' इसकी वरीयता अब दूसरी है .कांग्रेस अपने को शासक न समझे 'सेवक ' समझे ' और उस लिहाज से अपनी वरीयता तय करे . गांधी कांग्रेस के 'नए अवतार 'की बात करते हैं .वे कांग्रेस की काया और आत्मा के पुनर्जन्म की वकालत करते हैं .यह पहला परिमार्जन था .लेकिन नए जोश में सब काफूर हो गया और एन वक्त पर  गांधी की ह्त्या कर दी गयी . तुर्रा यह कि जिस दक्षिणपंथी ,कट्टर और कायर सोच ने गांधी की ह्त्या की ,वही ताकते बार बार  गांधी को याद करती हैं और कहते नहीं अघाती कि गांधी जी ने तो कांग्रेस को समाप्त करने की बात कही थी .
     प्रसिद्ध समाजवादी चिन्तक मधुलिमये ने अपनी पुस्तक 'राजनीति के अंतर्विरोध ' में एक पूरा अद्ध्याय ही कांग्रेस को दिया है .कांग्रेस काया और उसकी आत्मा पर मधु जी बड़ी बेबाकी से कते हैं कि कांग्रेस देश की ही नहीं दुनिया की सबसे बड़े जनाधार की पार्टी है .सुदूर गाँव गाँव इसकी पैठ है .मधु जी इस पार्टी की तुलना बोल्शेविक पार्टी से करते हुए कहते हैं कि सोवियत संघ ने इसी आधार पर एक पार्टी के तंत्र को स्वीकारा जब कि कांग्रेस ने बहुदलीय व्यवस्था को जन्म दिया . यहाँ फिर गांधी का हवाला देना चाहूँगा जब वे पहली अंतरिम सरकार में तीन ऐसे लोगों को कबिनेट में जगह दिया जो निजी रूप से गांधी और कांग्रेस के विरोधी थे . और ये तीनो तीन अलग अलग दिशाओं से रहे . मद्रास , महाराष्ट्र और बंगाल से . इनमे से दो तो आज तक चर्चा में हैं -बी आर  अम्बेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी . मधु लिमये यहाँ पंडित नेहरू की प्रशंसा करते हैं और उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा 'डेमोक्रेट ' बताते हैं और कई उहारण भी देते हैं .पंडत नेहरू के कार्यकाल तक कांग्रेस के अधिनायक वाद की तरफ बढ़ने का खतरा नहीं है इससे सब आस्वस्थ हैं . लेकिन नेहरू के बाद ?
         यहाँ थोड़ा विषयान्तर चाहूँगा और उस कालखंड का जिक्र करने की इजाजत लेता हूँ जब कांग्रेस सत्ता में है और देश ने संवैधानिक रूप से जनतंत्र और बहुदलीय व्यवस्था को धर्म की तरह स्वीकार कर लिया है .कांग्रेस अगर अधिनायकवाद की तरह बढ़ती है तो उसे रोकेगा कौन ? और रोकने का 'साधन ' क्या होगा ?ये दो बड़े सवाल थे . .. और तब जब की गांधी नहीं हैं . ? कांग्रेस स्थापित संस्था बन कर जड़ न हो जाय ,अधिनायकवाद के जरिये तानाशाही न ठोंक दे ,इससे 'लड़ने ' के लिए गांधी के ही एक उत्तराधिकारी ने यह जिम्मेवारी ली वह हैं डॉ राममनोहर लोहिया . और उनका गढा हुआ समाजवादी आंदोलन . ( एक गैर जरूरी सच यह है कि समाजवादी  कभी भी 'पार्टी' नहीं रही ,यह आंदोलन रहा .और जब यह पार्टी बनने की कोशिश की तो बिखर गयी .इस विषय पर फिर कभी .) यहाँ एक बात का जिक्र कर देना जरूरी है कि कांग्रेस स लड़नेवाली दो ताकते और भी रही .वामपंथी साम्य्वादी और दक्षिण पंथी संघी . इन दोनों एक साम्य रहा जो सिद्धांतः आज भी है वह है - दोनों  का जनतंत्र में यकीन नहीं है और न ही बहुदलीय व्यवस्था में . एक मजदूर और सर्वहारा की तानाशाही चाहता है दूसरा 'एक नेता ,एक झंडा . एक पार्टी फिर एक राष्ट्र " चाहता है . गो कि उसी जनतंत्र और बहुदलीय व्यवस्था के तहत दोनों 'सत्ता सुख ' भी लेते रहते हैं . चुनांचे यह तय हो गया कि अगर कांग्रेस अधिनायकवादी हो जाती है तो उसका विरोध या प्रतिकार करने की कोइ ताकत मुल्क में नहीं है . समाजवादी आंदोलन कांग्रेस को चुनौती देता है . संसद में और सड़क पर . कांग्रेस पर दबाव बढ़ता है और यह  नेहरू के ही कार्यकाल से शुरू हो गया था . ६३ में पहली बार संसद में सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव आया . संसद में पहली बार हिन्दी बोली गयी . तीन आने बनाम तेरह आने की बहस चली . देश के आम आदमी ने पहली बार जाना कि संसद उसकी अपनी है . और चार साल पहुचते -पहुचते गैरकांग्रेसवाद का नतीजा सामने आगया , सात सात सूबों से कांग्रेस का सफाया हो गया .जनतंत्र के लिए और सबसे ज्यादा कांग्रेस के लिए यह शुभ था .
     यहाँ गैर कांग्रेसवाद का 'प्रयोग 'समझ लेना जरूरी है . डॉ लोहिया आम आदमी की भाषा में गैरकांग्रेसवाद की व्याख्या करते हैं , 'रोटी को सेंकते समय उल्तोगे ,पलटोगे नहीं तो जल जायगी 'सत्ता को उलटो पलटोगे नहीं तो तानाशाह बन जायगी . डॉ लोहिया का गैरकांग्रेसवाद कांग्रेस को समाप्त नहीं करता परिमार्जित करता है .परिमार्जन का पहला नतीजा ६७ में आया . कांग्रेस पर दबाव बढ़ गया .६९ में कांग्रेस नए रूप में आयी .
      ६९ नेकीराम नगर कांग्रेस में श्रीमती गांधी ने समाजवादी प्रस्ताव (१९५४ में जे पी ने पंडित नेहरू को एक प्रस्ताव भेजा था ,१४ सूत्रीय कार्यक्रम का , जिससे नेहरू सहमत थे लेकिन उस समय संगठन पर य्थास्थित्वादियों का इतना दबाव था कि नेहरू उस मुद्दे पर जोखिम नहीं लेना चाहते थे .लिहाजा वह पत्र जस का तस पड़ा रह गया था उसे इंदिरा गांधी ने ६९ कांग्रेस में पेश कर दिया और उस पर अड् गयी .)पेश कर समूचे राजनीति को ही झकझोर दिया . नतीजा हुआ इंदिरागांधी को कांग्रेस ने बाहर निकाल दिया . यह कांग्रस का परिमार्जित रूप था जिसने ७१ के चुनाव में इंदिरा कांग्रस को देश की सबसे बड़ी ताकत के रूप में स्थापित कर दिया .
           अब एक बार फिर कांग्रेस के सामने वही ख़तरा 'अधिनायकवाद ' की तरफ झुकने का आ गया . और वही  हुआ भी चार साल बीते बीतते इंदिरागांधी एक अधिनायक की तरह उभरी . और उनके विरोध में फिर एक समाजवादी आया जे पी . आपातकाल लगना . अगले चुनाव में कांग्रेस का सफाया . यह इतिहास सब को मालुम है . जो दबा और अन कहा है उसे देखिये .
       जनता पार्टी की सरकार बन रही है . जे पी अपने पसंद के किसी भी पुराने समाजवादी को सरकार में नहीं भेजते . चंद्रशेखर , मधु लिमये , यस यम जोशी . सब संगठन में जाते हैं सत्ता उनके हाथ जाती है जिसके खिलाफ समाजवादी आंदोलन मुखर रहा है -मोरार जे भाई , नीलम संजीव रेड्डी , संघ का उच्च नेतृत्व . उधर सरकार बन रही है दूसरी तरफ जे पी इंदिरा गांधी के घर पर हैं .दोनों एक दूसरे को पकड़ कर रो रहे हैं . इन्दिरा गांधी का जे पी के सामने रोना कांग्रेस का प्रायश्चित है . जे पी कहते हैं धैर्य रखो ' यह धैर्य कांग्रेस का परिमार्जन है .आगे की कहानी पूरी कथा बता देती है .
      मोरार जी सरकार के एक मंत्री राज नारायण जो लगातार इंदिरागांधी से टक्कर लेते रहे हैं ,समाजवादी हैं और मोरार जी सरकार से टक्कर ले लेते हैं और सरकार से बाहर हो जाते हैं . दोसाल जाते जाते समाजवादियों मोरार जी की सरकार को गिरा दिया . अगल चुनाव आया . कांग्रेस ने अपने किये के लिए जनता से माफी माँगी .कांग्रेस एक बार फिर परिमार्जित होकर चुनाव मैदान में आयी और  बहुमत उसके हाथ रहा .
लेकिन आज कांग्रेस से ऐसी ताकत टकरा रही है जो देश में सदैव के लिए तानाशाही लाना चाहती है .फैसला जनता के हाथ में है .


 

Friday, October 11, 2013

१२ अक्टूबर डॉ लोहिया का निर्वाण दिवस
ज़िंदा कौमें पांच साल इन्तजार नहीं करती .....
चंचल 
      ५९ साल की उम्र में १२ अक्टूबर १९६९ को डॉ लोहिया का निधन हुआ . पूरा देश स्तब्द्ध रह गया . वह न किसी ओहदे  पर रहा , न ही उसकी चाह थी .आजादी की लड़ाई से निकला एक तपा तपाया सेनानी था और सारे बड़े ओहदेदारों से उसके रसूख रहे . वह गांधी का चहेता था ,नेहरू से दोस्ताना रिश्ते थे लेकिन उसकी सबसे बड़ी पूंजी उसकी अपनी शख्सियत थी जिसके सामने किसी की टिकने की हिम्मत नहीं थी . यह उसे गांघी से मिली थी . पूरे देश का जो दबा कुचला , मजबूर मजलूम था वह उसे अपना मानता था . शायद यही वजह थी कि जब डॉ लोहिया के मरने की खबर फ़ैली तो पूरा देश रो पड़ा . देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री  मती इंदिरागांधी डॉ लोहिया को कंधा देने के लिए खड़ी थी . उनके मंत्रिमंडल के कई  सदस्य डॉ लोहिया की अंतिम यात्रा में पैदल चल रहे थे . जे पी रो रहे थे और कवक एक वाक्य बोल पाए थे -राम मनोहर मुझसे दो साल छोटा था ' . शेख अब्दुल्ला को उनके अनुरोध पर जेल से लाया गया था .जिस समय वे शोक सन्देश लिख रहे थे रो रहे थे -कश्मीर तुम्हे सलाम करता है .' .गांधी के बाद शायद यह पहली मौत थी जिसे देश ने सिद्दत के साथ महसूस किया . केवल सियास्दान ही नहीं -साहित्य ,कला .संस्कृत सबको डॉ लोहिया ने एक साथ प्रभावित किया था . सबसे ज्यादा पत्रकारिता से जुड़े लोगों को .एक तरह से कहा जाय तो डॉ लोहिया ने पत्रकारिता को विषय ही नहीं दिया ,भाषा भी दी . नया मुहावरा दिया . आज सब इस यात्रा में शामिल हैं .
    डॉ लोहिया ६३ में पहली बार फरुक्खावाद से उप चुनाव जीत कर आये .और आते ही अपने पुराने दोस्त से टकरा गए . नेहरू को पहलीबार संसद में चुनौती मिली . ६३ में पहलीबार लोक सभा में नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव आया . यह परम्परा आज तक चल रही है . सबसे बड़ी जो बात हुई कि संसद की शक्ल बदल गयी .६३ के पहले संसद की कार्यवाही में हिन्दी न के बराबर है . यहाँ एक रोचक घटना का जिक्र करना चाहूँगा .जिस दिन पहलीबार डॉ लोहिया खड़े हुए बोलने के लिए उन्होंने हिन्दी में बोलना शुरू किया . पत्रकार दीर्घा में बैठे तमाम पत्रकार उठकर चले गए .केवल एक पत्रकार वहाँ मौजूद रहे ,वे थे रघुवीर सहाय .दूसरे दिन जब सहाय जी की रपट उनके पत्र में प्रकाशित हुई तो मजबूरन अंगरेजी अखबारों को उसका तर्जुमा लेना पड़ा . संसद का वह स्वर्णिम युग है . समाजवादी पार्टी के सासद में नेता है किशन पटनायक . उस समय चली हर एक बहस संसद की धरोहर है . विशेष कर तीन आने बनाम तेरह आने . जिस पर नेहरू को अपने वित्त मंत्री मोरारजी भाई की तरफ से माफी तक मागनी पडी है . इसी समय किशन पटनायक और पंडित नेहरू के बीच जो पत्र व्यवहार हुआ वह आज एक दस्तावेज है " ट्वंटी फाइव थाउजैंड ये डे'
          डॉ लोहिया संसद ही नहीं सड़क को भी गरम करने में यकीन रखते थे . भाषा आंदोलन आजादी के बाद उठा नौजवानों का पहला कदम था जिसने पूरे देश को झकझोर दिया . आज तक जो पीढ़ी सियासत में मायने रख रही है वो उसी काल खांड की उपज हैं दल कोइ भी रहा हो उसे अपनी कार्य शैली बदलनी पडी थी और नौजवानों को ऊपर उठाना पड़ा था . आज वह सब समाप्त है और सियासत संदूक और बन्दूक के हवाले है .
    केवल एक सवाल है क्या हम कोइ नयी और सार्थक शुरुआत कर सकते हैं ?
  डॉ लोहिया को नमन .
     
   

Monday, October 7, 2013

सबुज रंग छीट मगाय द सजना ....
            आज भावना मिलने आयी थी . हम लोग जब भी मिलते हैं खाने बनाने पर उलझे रहते हैं . आज विषय बदल गया . छीट पर चला गया . भावना को नहीं मालुम की छीट क्या है . सहज और सरल तरीके से हमने बताया कि यह अक्टूबर महीना है बापू का जन्मदिन चल रहा है .खादी पर छूट होगी . वहाँ खादी की छीट खरीदो और खुद सिलो . 'मै सिलूं ? पूरी जोकर लगूंगी ' तो क्या हुआ कुछ तो लगोगी . देखिये क्या होता है . 
        बहुत सारी महिलायें हमारी दोस्त हैं .वो किसी भी उम्र की हों इससे कोइ मतलब नहीं . इनमे से कईयों के पास कमाल का जज्बा है . उनसे कहता हूँ चलिए इस महीने खादी की छीट पर आइये . साड़ी ,कुर्ती .ब्लाउज .दुपट्टा आदि आदि . खरीदिए और पहन कर ब कायदे सड़क पर उतारिये . बिंदास . दीजिए चुनौती उन घरानों को जो देश को लूट रहे हैं . अखबार के पन्नों और डब्बे के लिपेपुते चेहरों को जो झूठ बोल कर 'सिंथेटिक कपड़ों' का विज्ञापन करते हैं . अपनी जेब भरते हैं और सौकीन मिजाज लोगों के 'स्किन ' को बर्बाद करते हैं . खादी में स्वाभिमान है उस स्वाभिमान को राष्ट्रीय चरित्र बनाने हमें गर्व होगा . खादी से जुड़े चौवालीस लाख परिवार के हाथ मजबूत होंगे . यह एक घराने की बपौती नहीं है . इस तरह हम छोटी -छोटी चीजों को उठा कर खुद में स्वाभिमान और राष्ट्र को समर्थवान बना सकते हैं . 
        एक दिन किसी अति 'बड़ी पार्टी ' में जहां एक से बढ़ कर एक प्रदर्शन होते हैं वहाँ खादी के 'रफ त्रेक्चार 'के साथ अपने खादी लिबास में  पहुंचिए . .... यह पार्टी के 'एथिक 'में ' इरर ' होगा . यहीं न ? खादी कहता है -'इरर इज आवर ब्यूटी ' 
     भावना ने पूछा -ते छीट होता क्या है ? हमने कहा रुको ,और हमने 'कादम्बनी ' का वह नया अंक उसे सौंप दिया जिसे हमारे मित्र राजीव कटारा ने हमें दिया था . उसके आख़िरी पन्ने पर हमारे 'पुराने ' मित्र इब्बार रब्बी ने छीट पर लिखा है . और जो उन्होंने नहीं लिखा उसे हम बता रहे हैं . छीट हमारा इतिहास है . सौंदर्यबोध का अदभुत उदाहरण . भारत कापसे बुनता था , उस पर छपाई करता था . उस छपाई को छीट कहते थे वह छीट सारी दुनिया में व्यापार देती रही . हम खुशहाल रहे . इसे अंग्रेजों ने तबाह किया . हमें सेंथेटिक की तरफ ले गए .गांधी जी ने उसका जवाब दिया . आज वो हथियार आपके हाथ में है .उसे उठा कर चलिए न दो कदम. 

Wednesday, October 2, 2013

बापू ता उम्र लोगों को जोड़ते रहे .....
               कल आटोवाले ने पते की बात की . उसने कहा -साहब जल्दी चलिए .हमने जल्दी कर दी और ऑटो में बैठ गया . दिल्ली में कोइ भी चीज अकेले नहीं चलती अगल बगल को चलाते हुए चलती है . उधर ऑटो चला उसी के साथ उसकी जुबान भी चली . है क्या कि ये जो दिल्ली है न क़ानून से चलती है . इधर से उधर हुए हुए नहीं कि गए काम से . हमने पूछा तो तुम्हे चलने की क्या जल्दी थी ? उसने कहा -कल गांधी का जन्मदिन है न ,तो ड्राई डे होगा . इस लिए जल्दी कर रहा था कि एक बार दूकान बंद हो जायगी तो मिलेगा नहीं . गांधी का जन्मदिन इस भी तरह से याद किया जाता है यह पहला अनुभव था . काफी देर तक सोचता रहा गांधी जो ताउम्र एक एक पल रचना और उत्पादन में लगाते रहे उनका जन्मदिन सरकारी छुट्टी से मनाया जाता है . बाद बाकी पूरा मुल्क अपने काम में लगा रहता है . किसान ,मजदूर . कुम्हार . लोहार ,मुसहर सब काम में लगे रहेंगे क्यों कि ये उत्पादक जाति है . दूसरी तरफ कलम घिस्सू अनुत्पादक जाति है जिसे सरकारी कर्मचारी कहते है वह छुट्टी पर रहेगा .होना तो यह चाहिए कि आज तमाम सरकारी लोग उस तरफ रुख करें जो दबे कुचले हैं . मजबूर हैं ,मजलूम है .जलालत और जिल्लत की जिंदगी जीने पर मजबूर हैं ,उनके साथ ,उनके बीच पूरा दिन गुजारें .इसका असर यह होगा कि कल कोइ भी फ़ाइल 'पेंडिंग' में नहीं जायगी तुरत कार्यवाही होगी क्यों कि हर फ़ाइल पर किसी न किसी मजलूम का चेहरा दिखाई पड़ेगा जिनके साथ दो अक्टूबर गुजरा है . ... यही मजबूर ,मजलूम गांधी का ईश्वर था .
         एक दिन काका (राजेश खन्ना ) ने ऐलान कर दिया कि 'आज मै नहीं पिऊँगा ' .८१ लोधी  रोड में यह खबर खबर बन रही थी कि आज काका नहीं पियेंगे .  सांझ सात बजे के करीब ज्यो ही मै गेट से अंदर घुसा अशोक रंधावा काका का सबसे खास उसने हमें रोक कर बता या -साहेब ! आज की खबर सुनते जाइए , काका आज नहीं पियेंगे ,जो भी आ रहा है सब को यही बोल रहे हैं . हमने पूछा क्या बात हो गयी ? उसने कहा उन्ही से पूछिए ज्यादा अच्छा रहेगा . मै अंदर गया .पहुचते ही शुरू हो गए .-साहिब ! आज हम नहीं पियेंगे . हमने कहा -यह तो बहुत अच्छी बात है . चुप रहे . नहीं रहा गया तो बिलकुल बच्चों के अंदाज में बोले तो आप यह नहीं पूछेंगे कि क्यों ? हमने कहा बिलकुल नहीं पूछूंगा क्यों .फिर चुप रहे . फिर बोले साहिब आप बहुत खतरनाक हैं . हमने कहा कि आपसे भी पहले किसी ने मेरे बारे में यह कह रखा है . वह आपकी प्रेमिका होगी ? हमने कहा आपने कैसे जाना ? बहुत संजीदगी से बोले - मै भी तो आपको प्यार करता हूँ ... सन्नाटा . अचानक फ़िल्मी सेट पर चले गए .ओके . लाईट आफ . पैक अप ... और जोरदार ठहाका . देखिये साहिब आज दो अक्टूबर है गांधी जी का जन्म दिन . इस लिए आज मै नहीं पियूँगा . अब तो आप मान गए न कि मै गांधी का भक्त हो गया हूँ ? हमने कहा कि यह तो हम उसी दिन समझ गए थे जिस दिन आप आगे बढ़ कर हमारे पास आये थे और दूसरे दिन दोपहर खाने का न्योता दिए थे . 
    अब वह भी किस्सा सुन लीजिए हमारी काका से मुलाक़ात का किस्सा . दिल्ली में हमारे एक दोस्त हैं नरेश जुनेजा . उनके कई शौक हैं उसमे से एक है पार्टी देना . एक दिन उनका फोन आया . भाई साहब कल घर पर एक पार्टी है आ जाइयेगा . और हम पहुचे . उनका ड्राइंग रूम विदेशी लोगों से भरा  पड़ा था .अंदर पहुचते ही हमें कहा गया कि आप बेड रूम में चले जाइए .मै वहाँ गया ,वहाँ फिल्म बितरक् . फिल्म वाले . कई डाक्टर पहले से ही मौजूद रहे . उनमे एक सोफे पर गीतकार संतोषानन्द धसे पड़े मिले . हमें देखते ही संतोषानंद ने आवाज दिया देखो भाई अकेले फसा पड़ा हूँ .संघियों घेर रखा है . ( संतोषानंद मनोज कुमार की फिल्मो के लिए गाने लिखते रहे और फ़िल्मी दुनिया में कांग्रेसी मान लिए गए थे ) हमने पूछा कितनी देर से चल रहा है . डॉ कसाना ने कहा अभी दूसरा ही है . हमने हँसते हुए कहा रुकिए हमें भी लेबिल पर आने दीजिए . इतने में हमारे दोस्त गिप्पी (सिद्धार्थ द्विवेदी सुपुत्र पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ) जो पहले से वहाँ मौजूद थे हमारे हाथ में ग्लास दे दिए . एक फ़िल्मी ने संतोषानंद से पूछा - गांधी की एक खूबी बता दो तो जाने . हमने मजाक के लहजे में कहा दोस्त पाहे लड़के से बतिया लो फिर बाप से पूछना . ...गांधी दुनिया का सबसे बड़ा पोस्टर डिजाइनर है . 'उससे बड़ा कोइ दूसरा आर्टिस्ट पैदा ही नहीं हुआ '. यह चौकानेवाला बयान था . एक चुप्पी तैर गयी . किसी ने कहा हम समझे नहीं . हमने चिढाया बहुत हैं जो अब तक गांधी को नहीं समझ पाए हैं . तो सुनिए - गांधी ने आजादी की लड़ाई में चरखा खोज निकाला . उस जमाने में जो चरखा चलाता मिल जाता था मान लिया जाता था कि यह कांग्रेसी है .और मजे की बात यह कि इस पर कोइ प्रतिबन्ध भी नहीं लग सकता था क्यों कि यह उत्पादन का जरिया भी था . इतने में पीछे से आवाज आयी ..साहिब ! मेरा नाम राजेश खन्ना है क्या मै आपसे मिल सकता हूँ ? कह कर वे आगे बढे तब तक मै खुद उनकी तरफ बढ़ गया .काका के साथ राजीव शुक्ला थे जो हमसे पहले से ही परचित थे उन्होंने हमारा परिचय दिया .यह थी काका से पहली मुलाक़ात जो बापू के बहाने से शुरू हुई आर आखीर तक बनी रही . 
         उस दो अक्टूबर को काका ने नहीं पिया .
   यह सुलेख पूरे अक्टूबर के लिए है . अक्टूबर को ही समर्पित है .






Tuesday, October 1, 2013

धन्यवाद कांग्रेस .....
 ...देश में  भ्रष्टाचार को लेकर हाहाकार मचा हुआ था . निकलने का रास्ता क्या है ? यह मूल सवाल कटी पतंग की तरह इधर से उधर घूम रहा था . संसद किम् कर्तव्यविमूढ बनी बैठी थी . क्यों कि हर दल उस कुवें का पानी पी चुका था जिसमे भांग पडी थी . अन्तः उसने सुप्रीम कोर्ट को चुनुती देते हुए एक अध्यादेश पारित करवाना चाहा जिससे सुप्रीम कोर्ट का फैसला तत्काल प्रभाव से खारिज हो जाता ,लेकिन ऐसा नहीं हो पाया . क्यों ?
    इस क्यों का जवाब भारत के जम्हूरी निजाम के पास है . उसे देखिये . यहाँ हर संस्थान 'बड़ा'  है लेकिन स्वच्छंद नहीं . विधायिका , कार्यपालिका और न्याय पालिका . तीनो स्वतंत्र हैं पर स्वच्छंद नहीं . तीनो एक दूसरे की नक्लेल पकडे बैठे हैं . क्यों कि इन सब के उपर एक संविधान है . अब संविधान का किस्सा सुनिए (उन्हें सुना रहा हूँ जो अम्बेडकर को तो पूजते हैं पर गांधी को गरिआते हैं ) देश आजादी के मुहाने पर खड़ा है .देश आजाद होगा तो उसका स्वरुप कैसा होगा यह कांग्रेस की चिंता थी . क्यों कि बाकी दल कांग्रेस के विरोध में थे और अंग्रेजों के साथ थे .  प्रसिद्ध समाजवादी नरता और कांग्रेस के मुखर आलोचक मधु लिमये लिखते हैं कि कांग्रेस देश की नहीं दुनिया की सबसे बड़े जनाधार की पार्टी थी वह चाहती तो सोवियत यूनियन की तर्ज पर एक पार्टी तंत्र की स्थापना करती लेकिन उसने ऐसा नहीं किया . उसने जनतंत्र और बहुदलीय व्यवस्था की नीव डाली . पहली अंतरिम सरकार में गांधी ने तीन ऐसे लोगों को सरकार में शामिल कराया जो कांग्रेस और गांधी के कटु आलोचक थे . इनमे से दो मंत्री बनाए गए . एक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दूसरे भीमराव अम्बेडकर . मजे की बात संविधान बनाने की बात चली तो गांधी ने संविधान के प्रारूप समिति के लिए अम्बेडकर का नाम सुझाया . नेहरू ने आश्चय्र से पूछा . तो गांधी का छोटा सा जवाब था -यह कांग्रेस का संविधान नहीं है देश का संविधान है .' जब्य्ह पत्र अम्बेडकर के पास पहुचा तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ था . खुशी भी . 
आज इस संविधान ने देश की जनता को राहत दिया है जो भ्रष्टाचार का हल खोज रही थी और हर बार छली जा रही थी . देश की न्यायपालिका संविधान के तहत काम करती है . इस्लियेहमने कहा - धन्यवाद कांग्रेस .
    देश में अस्थिरता फैलाने में माहिर संघी गिरोह इन हालात के चलते खुल कर सामने आया और संविधान को चुनौती दीऔर संसद को कटघरे में खड़ा कर दिया .यहाँ यह रखा जाना चाहिए कि इस देश में कांग्रेस के अलावा कोइ भी विचार ऐसा नहीं है जो जनतंत्र, समाजवाद और सर्वधर्मसमभाव में यकीन रखता हो . यहाँ साम्यवादी और संघी 'जनतंत्र ' की सुविधा तो ले लेंगे ,उसका सुख भी भोग लेंगे लेकिन उनका यकीन न तो संसदीय व्यवस्था में है न ही संविधान में . 
     बाज दफे जनता घपला खा जाती है कि जनतंत्रीय व्यवस्था है क्या ? संसद पक्ष और प्रतिपक्ष की धार पर चलती है . दोनों के बीच जितना ज्यादा तनाव रहेगा संसद उतनी ही कारगर ढंग से जनमन को अपनाती रहेगी . अगर पक्ष मजबूत हुआ तो सत्ता की तानाशाही का ख़तरा रहता है (जैसा कि ७५ में इंदिरा जी के कार्यकाल में हुआ ) और प्रतिपक्ष अराजक होकर किसी संवाद से दूर भागेगा और संसद को जाम करेगा तो अराजकता की स्थिति बनेगी . जैसा कि मनमोहन जी के दूसरे कार्यकालमे भाजपा कर रही है . ये दो नो ही स्थितियां जनतंत्र के लिए खरनाक होती हैं . आजादी के तुरत बाद पंडित नेहरू का कार्यकाल कांग्रेस के लिए स्वर्णिम युग है . लेकिन चुकी नेहरू स्वयं में इतने बड़े जनतंत्र के वाहक रहे कि जम्हूरी निजाम को कोइ ख़तरा नहीं था . संसद आराम से चल रही थी . दस सालबाद १९६३ में पहली बार देश ने महसूस किया कि प्रतिपक्ष भी होता है जब  तीन उप चुनाव के नतीजों के साथ दो दिग्गज -डॉ राम मनोहर लोहिया और कृपलानी संसद में पहुचे ( तीसरे नेता दीं दयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव हार गए थे ) ६३ में पहली बार नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव जेरे बहस हुआ .कहना यह है कि संसदीय व्यवस्था में सत्ता पक्ष की जिम्मेवारी से ज्यादा जिम्मेवारी प्रतिपक्ष की होती है और इन दिनों हमारा प्रतिपक्ष अपनी भूमिका में नालायक रहा है .
    तीसरा रास्ता है 'सड़क ' का .सड़क की गर्माहट संसद को गरम करती है . इसका सबसे बड़ा उदाहरण है अन्ना का आंदोलन . अगर आपको याद हो तो अन्ना ने संसद को बौना बना दिया था . उस दिन मै एक अखबार के संपादक के कमरे बैठा था और बात अन्ना आंदोलन पर चल रही थी . हमने कहा कि भाई इस आंदोलन ने सड़क की आग को खत्म कर दिया . यह नपुंशक सोच सड़क की गर्मी खींच लेगी और अदले सालोसाल तक जनता किसी पर यकीन नहीं करेगी . और हुआ वही . वरना जो काम आज न्यायपालिका कररही है उसे संसद को करना चाहिए था . अगर संसद खामोश थी तो यह सड़क की जिम्मेवारी बनती थी .लेकिन जब सब नाकारा हुए तो न्यायपालिका आ खड़ी हुयी . क्यों कि हम उस देश में हैं जहां एक संविधान है और वह संविधान आजादी की लड़ाई का निचोड़ है जिसे कांग्रेस ने सींचा है .इसलिए हम कांग्रेस को धनुवाद दे रहे हैं .

Monday, September 30, 2013

बना रहे बनारस ....
...... माला रॉय को बधाई और धन्यवाद दोनों कि उन्होंने दिल्ली में यह प्रदर्शनी आयोजित की . इस प्रदर्शन में 'उत्तर ,दक्षिण,पूर्व और पश्चिम को एक साथ जोड़ा . इसमें हमें भी बुला लिया गया . हम गए और साथ में बनारस ( हमारे चित्रों का विषय ) लादे गए . स्याह -सफ़ेद और पारदर्शी तरल जलरंग का प्रयोग जो कि बनारस का मूल चरित्र है , को माध्यम बनाया . रांड,सांड ,सीढ़ी, सन्यासी . इनसे बचे तो पूजै काशी . ' हमारे चित्रों के केन्द्र में रहे . एक तरह से ये हमारे कुल ग्यारह सालों की 'सशरीर ' काशी प्रवास की कमाई है .बाद बाकी अभी भी काशी से मुक्त नहीं होपाया हूँ . बाज दफे जब कोइ पाखंडी मोक्ष की बात करता है तो मन करता है इसे पकड़ कर काशी छोड़ आऊँ और उसे दिखाऊँ कि देखो यहाँ हर कोइ मोक्ष को प्राप्त कर लिया है लेकिन पूर्व जन्म के पुण्य को खर्चने के लिए अपने धंधे में लगा है पर भाव वही  'विरक्ति' का ही है . केशव पान की दूकान पर बैठे राजेंदर पान 'थमा ' रहे हैं . काशी में पान नतो बनता है , न ही लगाया जाता है . याचक एक 'थमाय दियो गुरू ' का मन्त्र जाप करेगा और दाता पान थमा देगा  .आहुति की मुद्रा में . क्यों कि यह काशी है . यह न दिल्ली है न ही 'नखलऊ' (शुभा प्रदीप जी के सौजन्य से ) दिल्ली 'लगाता ' है , लखनऊ 'बनाता ' है . और काशी 'थमाता है . थमाने में बनाना और लगाना दोनों शामिल है यह आपकी नियति है कि आप को क्या पसंद है . वो मीर साहिब क किस्सा दमदार है . मीर साहेब दिल्ली से चले लखनऊ आ गए . पान की तलब लगी ,दूकान [पर गए और बोले -मियाँ एक पान लगा दो . पानवाले ने गौर से मीर साहेब को देखा और बोला - मियाँ यह लखनऊ है यहा पान बनाया जाता है लगाया नहीं जाता . यहाँ जूता लगाया जाता है . क्या करते मीर साहेब मसोस कर रह गए . तो हम इस काशी में रहे . उसे दिल में रखे घूम रहे हैं . यहाँ आप से नतो कोइ नफ़रत करेगा और न ही आप किसी से नफ़रत कर पायेंगे चाहे वह संघी ही क्यों न हो . यह काशी अकेली है . एक छतरी के नीचे है . इतना जुनूनी है कि इसने गंगा को अपने पास बुला लिया उनके रुख को बदल दिया गंगा हिमालय से चल कर गंगासागर में समाहित होती हैं उत्तरवाहिनी हैं . उत्तर से दक्षिण बही हैं . लेकिन काशी में दक्षिण बाहिनी होना पड़ा है . आज गंगा काशी की मैया हैं . न जाति पूछती हैं न मजहब सब को एक रूप से निर्मल करती हैं .यह बनारस लेकर मै दिल्ली आया और आइफेक्स में लटक गया . 
      २७ सितम्बर से शुरू हुई इस प्रदर्शनी का उदघाटन सांसद राज बब्बर ने किया . मुख्य अतिथि थे 'सोनालिका' के मालिक श्री यल डी मित्तल . 
   बाकी क्या हुआ ? कल ....( राज बब्बर ने अपना सन्देश हिन्दी में लिखा . एक पत्रकार ने पूछा -हिन्दी में ? राज ने मुस्कुराकर मेरी तरफ देखा ... हमने वह वाकया सुनाया जब 'अंगरेजी हटाओ ' के आंदोलन में राज पीते जा रहे थे और जार्ज ने राज के ऊपर लेट कर बचाया वरना आज यह कलाकार मलंग की भूमिका कर रहा होता ......'तराजू नहीं ')

Thursday, September 19, 2013

छात्र की पहचान बने ....
     अफलू ने अपने एक पोस्ट में दो बातो का जिक्र किया है . एक -हर  शिक्षण संस्थान में खुली भर्ती .और दूसरा उसकी 'पहचान ' . अफलू ने ७७ के अपने कार्यकाल (अध्यक्ष छात्रसंघ काशी विश्वविद्यालय ) में किये गए कार्यों के लिए हमारी पीठ ठोंकी है .उसपर कुछ सवाल भी उठे हैं ,उसे बहस के लिए खोलना ज्यादा जरूरी है . डॉ लोहिया जिनके हम अनुआयी रहे हैं की एक परिकल्पना थी -अगर कोइ लड़का या लड़की आगे पढ़ना चाहता /चाहती है तो उसे दाखिला मिलना चाहिए . इसी परिकल्पना पर 'स यू स ' ने एक नारा दिया था -खुला दाखिला सस्ती शिक्षा , लोकतंत्र की यही परिक्षा ' .७७ में जब हम जेल से छूट कर बाहर आये तो हमें देबूदा ( काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और हमलोगों के अभिभावक ) ने चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतार दिया . हम उतर भीगए . हमारा मुकाबला संघी से था . वह धन और बल दोनों से मजबूत था . लेकिन अगर कहीं से कमजोर था तो बस 'बुद्धि 'से .( यह स्थापना हमारी नहीं है , हमें इतनी छूट मिलती भी नहीं कि हम अपने अग्रज के बारे ऐसा कहें . यह परिपाटी अब तक चली आ रही है . कई संघी आज भी फेसबुक पर हमारी टिप्पणी से बौखला तो जाते हैं लेकिन वो उस परिपाटी का निर्वहन करते है जो कभी विश्वविद्यालय से जुड़े रहे .यह सथापना राजनीति विभाग के विभागाधाक्ष प्रोफ़ेसर हरिहर नाथ त्रिपाठी की थी ) चुनांचे हमने नयी तरकीब निकाली . ७२ में हमने राजाराम छात्रावास में जे पी की एक मीटिंग कराई थी जिसमे उन्होंने कहा था -जनतंत्र की रक्षा करनी है तो चुनाव को सस्ता करो ' इसे हमने जस का तस ले उठा लिया . फिर हमने कहा कि इस चुनाव में हम पोस्टर नहीं छापायेंगे . देबू दा ने पूछा - तो ? हमने कहा हमारे विभाग ( कालेज आफ फाइन आर्ट्स ) के लड़के और लड़किया हाथ से पोस्टर बनाएंगे और उसे प्रदर्शित करेंगे . वही हुआ . एक दिन लड़कियों ने हमें घेर लिया -आप जीत गए तो हमें क्या मिलेगा ? हमने मजाक किया - एक तो मै मिलूँगा कि विश्वविद्यालय की सबसे छोटी फैकल्टी का लड़का उड़ कुर्सी तक गया और दूसरा हम इस विश्वविद्यालय में स्थाई रूप से एक कोना दे कर जांएगें जिसे आप याद रखेंगी . जीत के बाद 'मधुबन ' का निर्माण जिसेफाइन आर्ट्स  के लडको और लड़कियों ने अपनी  कला से सजाया आज भी फलफूल रहा है . हमें खुशी है कि इस साल विश्वविद्यालय प्रशासन ने उसे पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की है .कुलपति लालजी सिंह को बधाई . 
       अब आयी बात खुले दाखिला की . उसे भी हमने प्रशासन से हासिल कर लिया ज्यादा जद्दो जेहद नहीं करनी पडी . कुलपति अनंत रमण साहब मानते गए . हमारा तर्क था कि 'अगर सरकार की तरफ से ३३ फीसद अंक पास होने के लिए काफी है तो प्रवेश के लिए क्यों ना काफी है ? दूसरा हमारे अध्यापक अगर 'घोड़ों' को ही घोड़ा बनाएंगे तो वे इतनी मोटी राकन क्यों ले रहे हैं . यह उनकी जिम्मेवारी है कि बच्चे को हुनर मंद बनाए . अगर कोइ अध्यापक ऐसा नहीं कर सकता तो वह अपना नाम सार्वजनिक कर दे . और हम जीत गए . इस तरह विश्वविद्यालय ने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया . शर कई कालेज बंद होने के कगार पर आ लगे . उस सने संघियों ने हम पर आरोप लगा था कि हम विश्वविद्यालय की गक्रिमा बिगाड़ रहे हैं .हम इसे  a.b.c.d ( आजमगढ़ ,बलिया . छपरा ,देवरिया ) बना दे रहे हैं . दूसरा प्रयोग विश्विद्याल ने देखा - लडकियां कैद के बाहर हो गयी . 
     चुनाव के समय एक दिन हम ज्योतिकुंज ( महिला छात्रावास ) में बोलने पहुचे . उस समय हमारे प्रतिद्वंदी संघी भाई बोल रहे थे . हमें देखते ही उनका सुर बदल गया और कुछ ज्यादा ही उत्तेजित आवाज में उन्होंने ऐलान किया कि अगर मै जीता तो कल से किसी लड़की को कोइ लड़का छेड़ने की हिम्मत नहीं करेगा . लड़कियों ने जोरदार ताली मारी . इसी के बाद हमें बोलना था . हमने शुरुआत ही आक्रामक की , - किसी लड़की की सुरक्षा की गारंटी केवल दो है जो ले सकता है .एक गुंडा और दूसरा पुलिस हम दोनों ही नहीं हैं लेकिन दावे के साथ इतना कह सकते हैं कि हम आपके मोहब्बत के हिफाजत की गारंटी लेंगे . यह अप्रत्यासित था ,एक सन्नाटा छा गया . अचानक कोने से एक लड़की ने निहायत ही मस्ती के मूड में बालो को को पीछे झटक कर ताली बजानी शुरू की . उसकी गर्दन नीचे झुकी थी और उसके द्दोनो हाथ ऊपर थे . यह 'कान्फीडेंस ' मै पहलीबार देख रहा था . पूरा हाल तालियों से गूँज गया . मेरा दोस्त जो मेरे खिलाफ लड़ रहा था ,हमें हाथ के इशारे से कुछ बोला और आगे निकल गया . हमने बात आगे बढाई - अगर कल को हम छात्र संघ पर गए तो तो आप उसी वक्त 'जेल के बाहर हो जायंगी .( उस समय तक विश्वविद्यालय का नियम था कि अगर कोइ लड़की बाहर निकल रही है तो उसे रजिस्टर पर लिखना पड़ता था कि वह किसके साथ बाहर जा रही है ? ) हमने कहा कि जीत की घोषणा को आप यह मान लेना कि वह रजिस्टर अब जला दिया गया है . अब आप झूठ नहीं बोलेंगी क्यों कि अब आपसे कोइ पूछेगा नहीं . अगर लड़के आजादी का अर्थ जानते हैं तो आपको भी य७ह हक है कि आपाजादी से जियें . 
   बहर हाल हम जीते और वायदे को निभाया . डॉ काशी नाथ ने हँस में जब हमारे बारे में लिखा तो एक मजेदार जुमला लिखा यह पहला अध्यक्ष था जो केवल छात्रों का नहीं था ,छात्राओं का भी था . 
   अफलू ने 'अलग पहचान की बात ' कही है . देश के जितने भी विश्वविद्यालय हैं उनके छात्र संघ ने किसी 'सकारात्मक बदलाव ' की डगर न तो देख पाए न ही दिखा पाए . काशी विश्वविद्यालय इस मायने में अकेला है जो बापू के साथ है . भाषा आंदोलन का हीरो देवब्रत मजुमदार . विश्वविद्यालय से अनिवार्य हाजिरी समाप्त , भाई मार्कंडेय सिंह काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष की देंन . यह खादिम तो सब का शिष्य रहा है . (ऊपर जो चित्र है वह मधुबन के निर्माण के समय का है . लड़के और लड़किया पत्थर को तोस कर आकृति दे रहे हैं ) शुक्रिया अफलू .शुक्रिया प्रमोद जोशी जी , और शुक्रिया बिपेंद्र जी . आप लोगो ने उकसाया हमें बता दिया . यथास्थितवादी संघी और सकारात्मक परिवर्तनवादी स्थितिया जस की तस ही नहीं हैं बल्की आज वे वे ज्यादा आक्रामक हो गए हैं . इस लिए हमने वाकयात को बीच में डाला .  
      

Wednesday, September 18, 2013

गांधी और कांग्रेस .... 
अफलू /अफलातून देसाई . गांधी 'परिवार ' से ताअल्लुक रखते हैं . बापू के साथ एक परिवार साये की तरह बापू के साथ रहा है . प्यारेलाल , फिर महादेव देसाई जिनके सुपुत्र हैं प्रसिद्ध गांधीवादी नारायण देसाई . इस देसाई परिवार के दो सदस्य जो दोनों नारायण जी के सुपुत्र हैं हमारे मित्र है . नाचिकेता देसाई और यह अफलू . इन दिनों हमें कांग्रेस और गांधी कीओर चलते देख कर अफलू ने एक जुमला ठोंका है . कांग्रेस और गांधी ? यह आलेख उसी जिरह का एक हिस्सा है . - लेखक 
     गांधी और कांग्रस के रिश्ते पर जब सवाल उठता है तो वह एक कालखंड पर आकर टिक जाता है . और वह कालखंड है आजादी का आगाज और हिंद-पाक बटवारे का घटना क्रम . इसके पहले गांधी ही कांग्रेस रहे इसमें दो राय नहीं . लेकिन 'चर्चिल ' के  बटवारे की चाल ने एक साथ कई गुल खिलाए . -दुनिया की यह पहली घटना दर्ज होने जा रही थी कि भारत एक ऐसी लड़ाई लड़ कर आजादी हासिल की है जिसमे कोइ खून खराबा नहीं हुआ . एक ऐसी जंग जिसमे दोनों आमने सामने की ताकते एक दूसरे को दिल से शुक्रिया अदा करके अलग हो जाते . लेकिन यह चर्चिल को नहीं भा रहा था . चर्चिल व्यक्तिगत तौर पर गांघी जी से खफा था और चाहता था कि अहिंसा के इस पुजारी की आख़िरी ख्वाहिस को खून से रहगा जाय . जिसमे उनकी कौम (अंग्रेज ) बेदाग़ बच जायं और ये हिन्दुस्तानी आपस में ही लड़ मरें. इस खेल में चर्चिल सफल रहा . उसने एक ऐसे शख्स को 'खलनायक बनाया जो मुसलमान तो कत्तई नहीं था ,हाँ आधा अंग्रेज जरूर था . वह थे जिन्ना . जिन्ना को अंग्रेस सेअलग करने के लिए और गांधी को कमतर आकने लिए सियासत में पहलीबार 'लिबास' का खेल खेला गया . गांधी को 'अधनंगा फ़कीर ' कहने का मतलब केवल गांधी उपहास करना भर नहीं था . जिन्ना के लिबास को मान्यता भी देना था . और जिन्ना चर्चिल के चक्रव्यूह में फसते चले गए .  और एक दिन 'अनायास ' जिन्ना पाकिस्तान की मांग के सबसे बड़े नेता हो गए जब कि सच्चाई इसके बरक्स है . जिन्ना अदरूनी तौर पर विभाजन के पक्षधर नहीं थे ,लेकिन उनके गले में पाकिस्तान ऐसे फसा कि वे न तो उसे निगल सकते थे ,नहीं उगल सकते थे . ( कृपया लार्ड मौन्त्बेतन के दस्तावेजों को देखें ) .इतिहास चक्र देखिये जाजादी की लड़ाई के दो महत्वपूर्ण स्तंभ गांधी और जिन्ना दोनों अकेले हो गए थे . जिन्ना की उल जलूल बातों से लार्ड माउंट बेतन को झल्लाहट होने लगी थी . जिन्ना ने कहा हम उस पाकिस्तान को लेकर क्या करेंगे जिसमे न कल्कत्ता न बंबई . एक हरकत और की जिन्ना ने उन्होंने प्रस्ताव रखाकी कि पूर्वी पाकिस्तान और और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच सत्तर मील चौड़ा रास्ता दिया जाय . और इधर -
      बगैर गांधी को बताए कांग्रेस ने बटवारे का फैसला कर लिया था . कांग्रेस कार्य कारिणी में पहली बार यह मतभेद उभर कर सामने आया जब गांधी अकेले हो गए उनके साथ कांग्रेस के सामाजवादी लोग ही रह गए थे इनमे डॉ लोहिया , जेपी आचार्य नरेन्द्रदेव ,अशोक मेहता प्रमुख थे . लेकिन गांधी उस विष को भी पी गए . और कांग्रेस को अपनाए रखा . कांग्रेस की मजबूरी थी वह बापू को छोड़ नहीं सकती थी . आजादी के बाद कांग्रेस और गांधी के बीच कई मुद्दों पर असहमति थी . उसमे गाँव ' एक असल मुद्दा था . तब तक नेहरू सोवियत रूस के माडल से प्रभावित थे और उसी ढर्रे पर चलना चाहते थे जब कि गांधी जी का कहना था कि जब तक गाँव विकसित नहीं होगें देश मजबूत हो ही नहीं सकता . गांधी की ह्त्या के बाद नेहरू ने इसे स्वीकार किया और ग्रामोन्मुखी नीतियों की तरफ बढे . पंचायती राज , विकेन्द्रीकरण आदि को खुल कर स्वीकारा . आज तक कांग्रेस गांधी के उसी रास्ते पर चल रही है . . 

Sunday, September 15, 2013

युसूफ भाई ....
खबर है कि युसूफ भाई जिन्हें देश दुनिया दिलीप कुमार के नाम से जानती और पहचानती है ,बीमार हैं .लीलावती अस्पताल में भर्ती है . डुआ मांगते है वो जल्द से जल्द ठीक हो जांय . हमारी उनसे जो जानपहचान हुई वह एक दिलचस्प वाकया है . 
बाबरी मस्जिद तोडी जा चुकी थी . देश एक अजीब से जद्दो जेहद से गुजर रहा था . हम उड़ीसा से लौट कर बंबई आये थे . नादिरा जी ने घर पर पार्टी दी थी . वहाँ से लौट कर मै होटल आया . और रिसेप्शन पर गया कि हमें दिल्ली की जो भी फ्लाईट मिले उससे भेज दीजिए . इतने में मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा ,और बोले आज नहीं कल का टिकट बुक होगा . यह थे हमारे अजीज सलमान खुर्शीद . उन दिनों विदेश राज्य मंत्री थे . मै भी चौका . हम दोनों गले मिले . सलमान भाई हमें लेकर लिफ्ट की तरफ बढ़ गए . यहाँ दिलीप साहब दिखे लंगडाते हुए चल रहे थे . सब एक ही साथ लिफ्ट में चढ़े . हमने दिलीप साहब से पूछा -युसूफ भाई पैर में चोट लगी है क्या ? दिलीप साहब ने बड़ी संजीदगी के साथ हमें देखते हुए कहा - नहीं जनाब ! चोट तो जिगर में लगी है . ' सलमान भाई समझ गए कि कुछ गडबड हो रहा है . दरअसल हुआ क्या था कि कटक में रवि दा (प्रसिद्ध समाजवादी और लोक सभा के पूर्वद्ध्य्क्ष ) ने हमें उडिया का एक गमछा दिया था ,वह मेरे गले में था . गडबड यह हुआ कि उस गमछे का रंग केसरिया था .सलमान भाई ने तुरंत परिचय कराया युसूफ भाई ये चंचल जी हैं . समाजवादी हैं जार्ज के बहुत नजदीकी है ,और्हमारे दोस्त हैं . दिलीप साहब बिलकुल फ़िल्मी हो गए . ऊपर जो चित्र आप देख रहे है हू ब हू यही अंदाज और हमें खीच कर गले से लगा लिए . फिर तो खूब जमी . 
    ऊपर हाल में जहां पार्टी थी वहाँ एक से बढ़ कर एक मिले . नौशाद साहब , जानीवाकर , सुनील दत्त . अमजद खान वगैरह वगैह . नौशाद साहब जब यह मालुम हुआ कि मै जौनपुर से हूँ तो उन्होंने हमें अपने पास बुला लिया उनसे बहुत लंबी और दिलचश्प बात हुई . इतने में खाना लगने का ऐलान हुआ . दिलीप साहब ने कहा वे खाना नहीं  खायेंगे . हम जिस टेबुल पर बैठे थे उसपर नौशाद साहब ,जानीवाकर . नरेश जुनेजा थे . नौशाद जी उस समय वो किस्सा सुना रहे थे जब गंगा जमुना में दिलीप कुमार ने काम करने से इस लिए मना कर दिया था कि यह तो अवधी भाषा में है मेरे ऊपर फिट नहीं बैठेगी . नौशाद जी ने किस तरह दिलीप जी को मना कर तैयार किया . दिलीप साहाब सब सुन रहे थे .वे भी वहीं आकर बैठ गए . चलते चलते बात सियासत पर आ गयी . जानीवाकर ने एक गंभीर जुमला बोला - समाजवादियों ने कांग्रेस से निकल कर गलत किया वरना आज मुल्क कहीं और होता . जानीवाकर और सियासत पर यह पकड़ ? मै पहलीबार उन्हें समझ रहा था . इसी बीच सुनीलदत्त जी अपनी प्लेट लेकर उसी टेबुल पर आ गए और एक पीस निकाल कर दिलीप साहब की ओर बढ़ाते हुए बोले युसूफ भाई इसका जायका देखिये . युसूफ ने बच्चे की तरह मुह खोल दिया . एक एक कर के दत्त जी खिलाते रहे और उसुफ़ खाते रहे . यह प्यार हमने वहाँ फ़िल्मी दुनिया में देखा . 
     नौशाद साहब ने एक गाना बताया ,बैजूबावरा का ( शायद , ) लिखनेवाला शकील बदायुनी . गायक मोहम्मद रफ़ी . संगीत नौशाद का और जिस पर फिल्माया गया वेही युसूफ खान ... मन तरसत हरि दर्शन को आज .....
       युसूफ भाई ठीक होइए , आइये गले मिल कर कुछ गप्पिया जाय .

Tuesday, September 10, 2013

मै कांग्रेस के साथ हूँ .........
....बार -बार हमसे यह जायज सवाल पूछा जाता है कि मै कांग्रस में क्यों हूँ , जब छात्र राजनीति के समय से ही मै समाजवादी 'आंदोलन ' से जुड़ा रहा और अपनी पहचान बनाई ? विस्तार में जाने से बचने के लिए हमने एक अंग्रेज विचारक जो आजीवन गांधी का समर्थक रहा उनके हवाले से एक जुमला सुना देता हूँ . -'अगर कोइ २५ साल की उम्र तक क्रान्ति की बात नहीं करता तो साझ लेना चाहिए कि उसमे कुछ दिमागी खराबी है , और ४० साल की उम्र के बाद भी वह क्रान्ति की बात करता है तो समझ लेना चाहिए कि ,निश्चित रूप से उसका दिमाग खराब है . '.आज थोड़ा विस्तार चाहूँगा . कांग्रेस और समाजवादी आंदोलन के रिश्ते वाकई दबे रह गए हैं . इसके पीछे हमारे तथाकथित 'इतिहासकारों ' का हाथ है . आप भारत की आजादी का इतिहास और आजादी के बाद का भारत देखें तो इतिहास कारों की कलई  खुलती है . दरअसल ये अनुवादक है . पश्चिमी लेखकों की सामग्री को अपनी भाषा देकर ये इतिहास की सपाट बयानी करते हैं . इधर जब से रामचंद्र गुहा ने इतिहास को कुरेदना शुरू किया है तब से नौजवानों में भी एक बेचैनी बढ़ी है . बहर हाल  मुल्क के बटवारे का ही इतिहास देखिये . बड़ी तकलीफ होती है जब यह एहसास होता है कि हम उस मुल्क के संभ्रांत शहरी है जिस मुल्क में आज तक 'बटवारे ' जैसे बड़े सवाल को लेकर दुविधा बनी हुई है कि बटवारे का जिम्मेवार कौन है ? इस विषय पर सबसे बड़ी खुराफात संघियों ने की है . गाँव- गाँव, घर- घर, जन जन तक इन्होने ' कनफुसिया प्रचार किया कि बटवारे का मूल 'अपराधी ' गांधी है . इससे उन्हें दो फायदा मिलता दिखाई दे रहा था . एक बटवारे के समय दिया हुआ उनका नारा "मुसलमानों भारत छोड़ो ' को भुला दिया जाय और बापू की ह्त्या की एक बड़ी वजह बापू के मत्थे मध् कर गोडसे को महिमा मंडित किया जाय . शुक्र है जाज के सूचना क्रान्ति का जिसने आज की पीढ़ी को असलियत बता रहा है . पर पूछता कौन है . भारत के अनुवादी इतिहासकारों ने दबी जुबान से बटवारे को गोलमटोल व्याख्या में लपेट दिया क्यों कि इनमे से तकरीबन सारे इतिहासकार 'प्रगतिशील 'यानी साम्यवादी रहे हैं . और भारत -पाक बटवारे को साम्यवादियों ने बकायदे प्रस्ताव पास करके बटवारे का समर्थन किया है .  इतना ही नहीं मुस्लिम लीग ने जब 'सीधी कार्यवाही ' का ऐलान किया और पूरे देश में क़त्ल ये आम शुरू हुआ तो कांग्रेस  गृह युद्ध के खौफ से दर गयी . इतना ही नहीं कांग्रेस का एक बड़ा बर्ग यह महसूस करने लगा कि यह अंग्रेजों के भारत से न निकलने की चाल है . इन दो तर्कों ने कांग्रेस को मजबूर किया कि वह लीग की माग को मान ले और बटवारे के फैसले को सहमति दे दे . और यही हुआ . मजे की बात यह कि गांधी जी इन सब से दूर रखा गया .
  सबसे गूढ़ रहस्य उस समय खुलता है जब कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक होती है . जिसमे बटवारे का फैसला होना है . उस समय बापू नोआखाली में थे . उन्हें बुलाया गया 'विशेष आमंत्रित ' की तरह . ( गांधी कांग्रेस के साथ आधिकारिक रूप से कुल सत्रह साल ही रहे . १९१७ में कांग्रेस के सदस्य बने और १९३४ में यह कह कर कांग्रेस से अलग हो गए कि जब भी कांग्रेस को मेरी जरूरत पड़े वह हमारी राय ले सकती है . यह बात दीगर है कि कांग्रेस को बापू के आख़िरी दिन तक राय की जरूरत पडी और वे देते रहे . ) बैठक में गांधी जी जब आये तो उनके बैठने का कोइ इंतजाम नहीं था . ( यह पहली और शायद आख़िरी बैठक थी जो कुर्सियों पर बैठ कर पूरी की गयी . वरना कांग्रेस की बैठक नीचे जमीन पर होती है और अद्ध्यक्ष के सामने एक मुनीम वाली डेस्क रख दी जाती है . ) आचार्य कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं . चादर ओढ़ कर सिर झुका कर बैठे हैं उनकी 'तबियत ' ठीक नहीं थी . गांधी ने आते ही सबसे पहले यही सवाल पूछा - इतना बड़ा फैसला ( बटवारे का ) आप लोगो ने ले लिया हमें बताया तक नहीं ? कोइ कुछ नहीं बोला . थोड़ी देर में पटेल ने कहा हम कहाँ से आपको बताते आप थे भी तो इतनी दूर . गांधी ने पलट कर पटेल को देखा . पटेल ने सिर झुका लिया . फिर नेहरू ने कहा - बापू हमने तो आपको 'इशारतन' बता दिया था . बापू झुंझला गए हमें कुछ भी नहीं बताया गया . बीच में जे.पी ने नेहरू को टोका -बापू गलत नहीं बोल रहे हैं . नेहरू ने जे पी को घुडक दिया .जे पी चुप हो गए . लेकिन लोहिया ने बड़ी बेबाकी से कहा - दोनों में कौन झूठ बोल रहा है यह सब को मालुम है . यहाँ लोहिया और नेहरू में पहली तकरार हुयी . बीच बचाव गांधी ने किया . और गांधी ने एक प्रस्ताव रखा - पहले अंग्रेज यहाँ से चले जाय हम बटवारे का फैसला कर लेंगे . कांग्रेस को यह फैसला और भी खून्खाराबेवाला लगा . 'गृहयुद्ध ' की आशंका ने कांग्रेस को मजबूर कर दिया कि गांधी का यह भी प्रस्ताव ना मंजूर हो गया . बहुमत पटेल के साथ रहा . (वे ही सबसे ज्यादा मुखर थे ) गांधी ने आखिरी प्रस्ताव रखा कि चलो बटवारे को मान लिया जाय लेकिन यह स्पष्ट कर दिया जाय कि कांग्रेस दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं मानती . आज भी कांग्रस अकेली पार्टी है जो दोराश्त्र के सिद्धांत के खिलाफ है .
     यहाँ यह जिक्र करदेना जरूरी है कि गांधी यहाँ आते आते अकेले हो गए है उनके साथ मुट्ठी भर समाजवादी है .डॉ लोहिया ,जय प्रकाश नारायण , आचार्य नरेंद्र देव , कृपलानी खान अब्दुल गफ्फार खान . इन तमाम असहमतियों के बावजूद गांधी उस कांग्रेस को नहीं तोड़ना चाहते थे जिसे उन्होंने सींच कर बड़ा किया था .
     इतिहास का यह हिस्सा हमने इस लिए उठाया कि आपको यह जानने में सुविधा हो जाय कि समाजवादी कांग्रस का एक हिस्सा रहा . नेहरू इसके नेता थे . पटेल और समाजवादियों के बीच यहाँ से तनाव बढ़ता है . नेहरू की दिक्कत थी कि वे संगठन में मजबूत नहीं थे ,संगठन पर पटेल का कब्जा था . लेकिन नेतृव के सवाल पर नेहरू से बड़ा कोइ दूसरा नहीं था , अ कद में ,न सोच में . यही वजह थी कि गांघी ने प्रधान मंत्री के लिए नेहरू का न केवल समर्थन किया अपितु जब उन्हें मालुम हुआ कि नेहरू और पटेल के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है तो बापू ने पटेल से इस्तीफा तक मांग लिया . अभी कम ही लोग जानते हैं कि ३० जनवरी को जिस दिन बापू की ह्त्या हुई पटेल अपना इस्तीफा बापू को देकर गुजरात के लिए रवाना हो गए थे . गांधी की ह्त्या की खबर उन्हें नडियाद में मिली और दिल्ली लत आये . उस इस्तीफे को नेहरू और पटेल के सामने वायसराय लार्ड माउंट बेटन ने फाड़ कर फेका और कहा अब आप दोनों मिल कर देश को देखिये अब तो बापू भी नहीं हैं .
      पतेल्वादियो और समाजवादियो के बीच बढ़ती दूरी ने पटेल को उकसाया कि यह सटीक समय है समाजवादियों को बाहर करने का . समाजवादी चाहते तो नहीं निकलते . लेकिन पटेल से जे पी आहत हो गए और उन्होंने निकले का फैसला ले लिया . जंतर मंतर (कांग्रेस कार्यालय ) की सीढ़ियों से उतारते समय डॉ लोहिया ने जे पी को रोका - नेहरू को देखा कितने उदास और अकेला महसूस कर रहे हैं चलो लौट चले . जेपी नहीं माने . तब लोहिया ने कहा -जेपी एक बात याद रखना आज अगर बाहर निकल ही रहे है तो फिर वापस आने का मन न बनाना . और समाजवादी बाहर निकल आये . यहाँ बहुत संक्षेप में उन मुद्दों का जिक्र कर दूं जिस पर पटेल और समाजवादियों के बीच असहमति थी . वह था -प्रिवीपर्स की समाप्ति , बैको का राष्ट्रीय करण , जमीन का बटवारा वगैरह जिसे इतिहास में 'चौदह सूत्रीय कार्यक्रम ' कहते हैं . मजे की बात यह कि १९६९ नेकीराम नगर कांग्रेस जिसमे इंदिरागांधी को कांग्रेस से बाहर निकाल दिया गया और कांग्रेस टूट गयी उसका कारण भी वही चौदह सूत्रीय कार्यक्रम था जिसे समाजवादियो ने बनाया था . इंदिरा गांधी इसके समर्थन में थी और तमाम यथास्थितवादी इसके विरोध में थे . इंदिरा गांधी के साथ जो अन्य पांच चंद्रशेखर, कृष्णकांत , मोहन धारिया ,रामधन और अर्जुन अरोड़ा निकाले गए सब के सब समाजवादी थे . कांग्रस इंडीकेट बनी और उसने सबसे पहले अपने 'चवन्निया रसीद ' (सदस्यता फ़ार्म ) पर अपने को समाजवादी घोषित करते हुए 'समाजवादी समाज बनाने के के लिए ' संकल्प लिया . वह आज भी उनके फ़ार्म पर दर्ज है .
       अंत में आज जब समाजवादी आंदोलन बिखर गया है , समाजवादी आंदोलन की जो मूल अवधारणा थी आज वह कांग्रेस की पूंजी है तो हमारे जैसे लोग कांग्रेस से परहेज क्यों करेंगे . 

Monday, September 9, 2013

गेस्टहाउस कांड का जवाब .............
            ... यह एक अधेड़ का हलफनामा है जिसे वह अपने होश व हवास के साथ दाखिल कर रहा है . उनवान है उसकी जवानी के किस्सों का जिसके चलते वह परेशान रहा और खुश भी . बात है ७७ की . वह दो साल की जेल यात्रा से लौट कर घर को आया था . उन दिनों उसका घर काशी विश्वविद्यालय था . डालमिया कमरा  ४०५ . तब तक विश्वविद्यालय में नए लोग आ चुके थे और जो पुराने थे वो जा चुके थे . एक दिन हमारे मित्र भाई राम कृपाल ( आजकल नवभारत टाइम्स के संपादक हैं ) आये और बोले कि आपको शुक्ला जी ( स्वर्गीय विनोद शुक्ला ) ने बुलाया है . उनदिनो शुक्ला जी कानपुर से 'आज ' दैनिक निकाल रहे थे . मै बगैर किसी को बताए कानपुर निकल गया . और छ महीने रहा . वहाँ की कथा बहुत बड़ी है उसे फिर कभी . यहाँ विश्वविद्यालय में छात्रसंघ का चुनाव घोषित हो गया . और देश में आम चुनाव . मै दिल्ली में मधुजी और जार्ज से मिला कि हमें भी टिकट मिलना चाहिए . शायद मिल भी जाता लेकिन इस बीच देबू दा ( स्वर्गीय देव ब्रत मजुमदार ,देश के सबसे चमकदार और संघर्षशील युवा नेता ) जार्ज और मधु जी से मिल कर उन्हें समझा चुके थे कि चंचल को विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव लड़ना है . मै जब जार्ज से मिला तो उन्होंने कुछ बोला नहीं , बस मुस्कुराकर बोले -तुम मधु जी बात कर लो . मधु जी से मिला तो उन्होंने दोटूक जवाब दिया . जाओ पहले छात्र संघ का चुनाव लड़ो . और मै चुप चाप कानपुर लौट आया . देबू दा ने विनोद जी से बात की कि उसे बनारस भेज दीजिए . विनोद जी तैयार नहीं थे . देबूदा ने राम कृपाल को पटा लिया . एक सांझ राम कृपाल ने हमें समझा बुझा कर बनारस लौटने को राजी कर लिया कि चुपचाप निकल जाइए मै विनोद जी को समझा दूंगा . और मै बनारस आ गया . 
      संघी घराने ने अपने सबसे मजबूत उम्मीदवार महेंद्र सिंह को मैदान में उतार दिया था . उन दिनों तक छात्र राजनीति में भी मतभेद तो रहते थे लेकिन मनभेद नहीं था . मै महेंद्र सिंह साथ साथ जेल भी काटे थे . आपातकाल में . हम दोनों अच्छे और बेबाक दोस्त भी रहे . चुनाव शुरू हो गया . विश्वविद्यालय का चुनाव आदर्श चुनाव होता है . आप अपनी बात कहिये पर न माइक लगेगा और न ही बाह्य आडम्बर का सहारा लिया जायगा . दो बार केवल आप माइक से प्रचार करेंगे .एक विश्वविद्याल प्रशासन अपने खर्चे पर एक मंच से सब उम्मीदवार को बोलने का मौक़ा देगी जहां लॉस स्पीकर लगता है . दूसरा विश्वविद्यालय के गेट पर . इस बीचैक आफत आ गयी . यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में ,एक कमरे में मै एक महिला मित्र के साथ बैठा काफी पी रहा था इसे संघियों ने देख लिया . यह एक मुद्दा बन गया . संघी चरित्र हनन की सारी भाषा जानते हैं . जो कुछ नहीं भी हुआ था सब का बखान ऐसे करते थे जैसे वे वहाँ कुर्सी लगा कर बैठे थे . देबू दा ने हमें बुलाया . वहाँ समाजवादी युवजन सभा के सारे कारीगर मौजू थे . मोहन प्रकाश , दींन  दयाल . राम बचन पांडे . देबू दा हत्थे से उखड गए - स्साले तुमने सब सत्यानाश कर दिया क्या जरूरत थी मोहब्बत करने की . और इस समय ? मै चुप रहा  हमने कहा कि मै जवाब दे लूंगा . रामबचन पांडे हमारे समर्थन में उतरे . मोहन जी चुप रहे . बहर हाल मामला तो बढ़ ही चुका था . जहां मै वोट मागने जाऊं 'गेस्ट हाउस ' पहले से मौजूद मिले . और मै एक ही बात बोलता था -'आखिरी मीटिंग जो लंका गेट पर होगी उसमे इसका जवाब दूंगा . नतीजा यह हुआ कि लंका की आख़िरी मीटिंग बहुत जबरदस्त हुई . उसके पहले यह रिवाज था कि उस आख़िरी दिन हर उम्मीदवार एक निश्चित दूरी पर माइक लगा कर प्रचार किया करते थे और वह मीटिंग ही तय कर देती थी कि कल के चुनाव में किसका पलडा भारी है ,लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ . विद्यार्थी परिषद ने एक दिन पहले ही अपनी सभा कर ली . सारे विश्वविद्यालय की निगाह हमारी सभा पर लगी हुयी थी . समूचा लंका खचा खच भरा हुआ था . लडकियां महिला विद्यालय की छत पर भरी पडी थी . हमारे मंच पर देबू दा के अलावा मोहन प्रकाश , राम बचन पांडे , नितीश कुमार वगैरह वगैरह सब रहे . 
        जब मेरा नाम बुलाया गया तो एक दम सन्नाटा . लंका के दुकानदार तक बाहर आ गए . वह हमारी जिंदगी का सबसे छोटा भाषण था . ..... 'आप सुनना चाहते हैं गेस्ट हाउस कांड .. आप सब नौजवान है .. कोइ एक नौजवान है जो किसी लड़की से दोस्ती करना नहीं चाहेगा ? कोइ हो हाथ उठा दे .. ' एक सन्नाटा पसर गया , अचानक तालियों की गडगडाहट से पूरा लंका भर गया . यह ताली सामने तो चुप हो गयी लेकिन महिला विद्यालय की छत से उठी तालियाँ बजती ही रही . मैंने आगे बोला -' लेकिन तीन हैं जिन्हें लड़किओं से दोस्ती नहीं पसंद है .. एक 'डेड बाड़ी ' दूसरे नपुंशक और तीसरे संघी .. आप हमें वोट दो या न दो लेकिन हम जमीज के हामी कभी नहीं हो सकते जहां पुरुषों का पुरुषों से सम्बन्ध जायज माना जा है .. ' चौतरफा तालिया बज रही थी , मै चुपचाप मंच पर खड़ा था एक शख्स रो रहा था वह थे देबू दा .. जब मै नीचे उतरा और देबू दा की तरफ बढ़ा तो तो वो गमछे से आँख पोंछ रहे थे और इतना ही बोले - स्साला फ्राड ...
         मोहन जी ने कहा पैदल चलो , लड़किया पुपर ताली बजा रही है उन्हें विष कर दो ...
( इस कथा को साहित्य में पढ़ना हो भाई काशी नाथ को पढ़ लीजिए जो उन्होंने विस्तार से 'हँस ' में लिखा है .
                                                                           जारी 

Sunday, September 8, 2013

दंगा तो होगा ही .........
.......अन्ना दिल्ली में था . ( हम थे भी लिख सकते थे , लेकिन जानबूझ कर 'था' लिख रहा हूँ . क्यों कि उसने संघ के उकसावे पर बहुत बड़ा पाप किया है . सड़क की उर्ज्वा को कम से कम तीस साल के लिए गोबर कर दिया है . जनता का यकीन 'सड़क ' से उठ गया है .जम्हूरी निजाम में संसद की ताकत सड़क से ही मापी जाती है .उसने सड़क को तोड़ा है जनता के अरमान को तोड़ा है ) आंदोलन गति के साथ आगे बढ़ रहा था .हम घुमते घामते हिन्दुस्तान टाइम्स के सामने पहुँच गए . सोचा अपने दोस्त शशि शेखर से मिल लूं . ( संपादक हिन्दुस्तान हिन्दी ) दफ्तर में गुसा तो लगा कि साउथ ब्लाक में जाना हो रहा है . सुरक्षा चाक चौबंद . मुलाहिजा हुआ . ऊपर गया फिर रोका गया . हम बैठे बैठे सोचते रहे भाई पहले तो ऐसे नहीं होता था ( गलती हमारी थी , बहुत दिनों बाद हम इस दफ्तर में जा रहे थे और उस जमाने में जाया करता था जब दहशतगर्दों का खौफ नहीं था . आज इन दफ्तरों की मजबूरी है ) मनोहर श्याम जोशी मृणाल पांडे .शीला झुनझुनवाल से मिलने ( झूठ बोल रहा हूँ ,कुछ लिखने और बनाने के लिए बे धड़क दफ्तर में घुसते थे और कहना नहीं पड़ता था काम तुरत मिल जाता था . जानते सब थे कि इस चिलचिलाती धूप में . हड्डी तोड़ ठंढ में , मूसलाधार बारिश में कोइ किसी से केवल 'मिलने ' नहीं आया है . एक वाकया मजेदार है तब साप्ताहिक हिन्दुस्तान चपटा था उसके संपादक थे मनोहर श्याम जोशी . कठिन गर्मी के दिन थे पसीने से तरबतर दफ्तर पहुंचा . बाहर ही केजरीवाल साहेब मिल गए मुस्कुराए बोले आज तुम लोगो की कोइ विशेष बैठक है ,अंदर तुम्हारा दोस्त रमेश दीक्षित भी है . मै कुछ जवाब दिए ही जोशी जी के कमरे में घुस गया . जोशी जी मुस्कुराए - बोलो कैसे चले ? हमने कहा बस ऐसे ही मिलने आ गया . जोशी जी गंभीर हो गए .घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और उससे बोले केजरीवाल साहेब को बुलाओ . केजरीवाल साहेब आ गए . जोशी जी ने कहा -हमें सौ रूपये उधार दे दीजिए . अगर आपके पास न हो तो किसी से मांग कर लाइए जरूरी है . केजरीवाल साहेब थोड़ी देर बाद लौटे और सौ रूपये जोशी के हाथ में रख दिए . जोशी जी ने नोटों को देखा .. मुस्कुराए और बोले - कई लोगो से मांगना पड़ा आपको ? केजरीवाल कुछ जवाब देते इसके पहले ही जोशी जी ने सारे नोट टेबुल पर फैला दिए .ये तीन नोट उसके हैं जो बस से सफर करता है ,ये चार नोट कैंटीन के हैं , और ये आपके अपने हैं . सही ? केजरीवाल हक्का बक्का जोर का ठहाका लगा . फिर जोशी जी ने खुलासा किया . जो नोट लम्बाई में दोहरी गयी है यह बस कंडक्टर ही करता है . बाकी तीन पर बेसन लगा है ताजा वह इस समय ब्रेड पकौड़ा बना है बाकी आपके हैं इनमे आपके बनारसी तम्बाकू की महक है ... बहुत बहुत धन्यवाद केजरीवाल साहेब अब आप भी यहीं बैठिये और काफी पीजिए . अचानक जोशी जी ने उन नोटों को मेरी तरफ बढ़ा दिया और बोले - इन नोटों को चला कर दिखाना तो और नोटों को मेरी तरफ बढ़ा दिए . हमारी आँखे गोल हो गयी . देखो तुम समाज्बादी हो ,पत्रकार हो , कार्टूनिस्ट हो और सबसे बड़ी बात 'फ्रीलांसर हो .ये जो फ्रीलांसर समाज्बादी होता है वह किसी से मिलने यूँ ही नहीं जाता ... फिर केजरीवाल की तरफ मुड़े -एक काम करिये अगले अंक में जिन कहानियों और कविताओं को जाना है उसे चंचल को दे दीजिए समय पर मिल जाय यह आपकी जिम्मेवारी है .)
    विषयान्तर हो गया . मुआफी नहीं मांगूगा . भाई शशी शेखर के दफ्तर में बैठे बैठे यह याद आ गया था . बहरहाल जब शेखर जी को पता चला तो उन्होंने तुरत बुलाया . हम लोग काफी देर बतियाते रहे उसमे हम दोनों एक जगह सहमत रहे कि अन्ना सड़क को धोखा दे रहा है . सड़क की राजनीति मरती है है तो फिजूल की सियासत घेरा बनाती है . मुजफ्फर नगर इसका ताजा उदाहरण है . 
एक पाव धूप ......
......उन दिनों काशी विश्वविद्यालय का दिल बड़ा हुआ करता था . गधे  को गढ़ कर घोड़ा बनाना और उसे दौड़ में उतार देने का चलन था . आज उसके बरक्स है . अब तो उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो पीठ पर जींस और आँखों पर ठप्पा बंधे आते है और जो कुछ भी रहता है बेचारे उसे भी उतार कर बाहर चले जाते हैं . इन्तेरेंस ? प्रवेश हुआ नहीं कि परीक्षा पहले दे दो . यह कौन सा चलन है ? जब लड़का पहले से ही तैयार है तो मोटी रकम पर ऐश करनेवाले प्राध्यापक किस लिए हैं ? लेकिन तब ऐसा कुछ नहीं था . और उसी दौर में मै भी पहुचा था . उन दिनों प्रवेश के लिए दो रूपये का एक फ़ार्म मिलता था . पीआरओ आफिस से . और यह आफिस कुलपति निवास और रुइया छात्रावास के सामने हुआ करता था . हमने फ़ार्म तो ले लिया . मुतमईन होने की खुशी में वापसी का डगर भूल गया . आना चाहिए था 'सिंह द्वार ' की तरफ मै मुड गया 'हवाई अड्डे की तरफ ' मई की कड़क धूप पैदल का सफर . चलता रहा . इक्का दुक्का लोग दिखे लेकिन किसी से डगर पूछने की हिम्मत नहीं हुई और मै कई मील आगे निकल गया . विश्वनाथ मंदिर के पीछे एक पेड़ के नीचे एक आदमी मिला . जो हमारे गाँव के लोंगो से मेल खाता दिखा . घुटने तक की धोती और बंडी पहने बैठा सुस्ता रहा था . हम उसके पास जा कर रुके और पूछा -अभी लंका कितनी दूर है ? वह समझ गया . तुम गलत आ गए हो , लंका तो उसी तरफ है जिधर से आ रहे हो . ... बैठो सुस्ता लो . गर्मी बहुत है . अभी एक बस आयेगी विश्वविद्यालय की है उस पर बैठ जाना लंका छोड़ देगी पैसा नहीं लगेगा . ... पानी पियोगे ? वह उठा और बगीचे में चला गया वहाँसे एक लोटे में पानी और थोड़ा सा गुड़ लेकर आया . विश्वविद्यालय का यह पहला सबक था जिसे मैंने उस 'आदमी ' से सीखा . उसने हमें बस में बिठा दिया और मै लंका आ गया . 
     तींन साल बाद जब मै छात्र संघ का अध्यक्ष बना तो वह 'आदमी 'हमें याद आया . उसकी तलाश में मै कईबार उस जगह को देखा , दरियाफ्त किया लेकिन कुछ पता नहीं चला . एक दिन मैंने देबू दा ( स्वर्गीय देव ब्रत मजूमदार ) से पूछा कि उसका पता कैसे किया जा सकता है . चूंकी देबू दा चार्टों के ही नेता नहीं थे कर्मचारियों के भी नेता थे . दादा ने सुझाव दिया तुम सुरेन्द्र त्रिपाठी से मिलो वह खोज देंगे आजकल कर्मचारियों के अध्यक्ष वही हैं . सुरेन्द्र त्रिपाठी थे तो कम्युनिस्ट पर दोस्त बहुत अच्छे थे . उन्होंने कहा क्यों खोज रहे हो . हमने कहा उसने हमें कुछ 'उधार ' दिए हैं उसे लौटाना है . सुरेन्द्र जी ठहाका लगा कर हँसे , भाई यहाँ जितने भी लोग हैं सब के सब का कर्जदार तो मालवी जी रहे आज तक इनका कर्ज उतार रहे हैं . चाहे वी सी श्री माली हों या आपका दोस्त मलिक , इन सब ने मालवी जी को कर्ज दिया है ..... एक काम करो कल सेन्ट्रल आफिस आ जाना , ग्यारह बजे मालियों की मीटिंग है उसमे से पहचान लेना . एन वक्त पर मै गया और उस 'आदमी ' को पहचान लिया . शिव धनी राम . दूसरे दिन शिव धनी का तबादला केन्द्रीय दफ्तर से छात्रसंघ हो गया . 
   बात उन दिनों की है जब छात्रसंघ के कर्मचारियों की तूती बोलती थी .आज से शिव धनी छात्र संघ के माली थे . आहिस्ता आहिस्ता शिव धनी घुल मिल गए . पांडे जी जो कि चपरासी थे वहीं छात्रसंघ में रहते भी थे अब दो जन हो गए . बाकी स्टाफ ड्यूटी के बाद घर चला जाता था लेकिन शिव धनी और पांडे जी वहीं खाना बनाते और दिन भर की खबर ... एक दो के बाद .. आप से तुम पर उतर जाते .. मजूमदार......मार्कंडे के साथ काम किया हूँ ..वो ठीक नहीं है , पीठ पीछे तुम्हारी बुराई करता है . वगैरह वगैरह . और रात का खाना 'साझा होता ' . एक दिन हमने शिव धनी से पूछा तुम्हे याद है किसी लड़के को गुड़ खिला कर पानी पिलाया था और उसे बस में बिठाया था . हाथ में पानी का ग्लास लिए शिव धनी ने बहुत अन्मयास्क ढंग से कहा -साहेब बहुतों को खिलाया पिलाया है कहाँ तक याद करें . सच कहता हूँ अगर वह मलिक का बच्चा वहाँ न मौजूद रहता तो मै शिव धनी का पैर पकड़ कर रो लेता और हल्का हो जाता . लेकिन ऐसा नहीं कर सका . दूसरे दिन कैम्पस में नई चर्चा चल निकलती --'हव स्साला ज्यादा ले लिया था ' . उसी तरह जैसे हमसे चुनाव के समय पूछा गया था 'गेस्ट हाउस कांड ' का जवाब दो . 
  शिव धनी ने एक बार भी नहीं बोला -नेकी कर दरिया में डाल .यह तो अध्यापक लोग पढ़ाते हैं . शिव धनी तो उसमे जीते हैं .
                                                -जारी   

Friday, September 6, 2013

अन्न भोग  
अन्न महज पेट भरने की सामग्री भर नहीं है . पेट को अन्न की जरूरत भी नहीं  होती और न ही अन्न को पेट पसंद करता है . भूख दिमाग में लगती है . बेचारा पेट अपनी बनावट और बुनावट के लिए दिमाग की बेगारी करता है . बाज दफे तो पेट दिमाग के बर् खिलाफ जाकर हड़ताल तक कर बैठता है . जो भी हो लेकिन अन्न की जरूरत तो होती ही है . 
    प्रकृति में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अन्न को खाता ही नहीं उससे खेलता भी है . अपने रूचि के अनुरूप अन्न को बदलता है . इस अन्न बदलाव पर आज फेसबुक पर अंजना चौहान सिंह का एक आलेख है 'जंक फ़ूड ' के खिलाफ . हमने देखा कि इतना खूबसूरत और ज्ञानवर्धक आलेख बहुत  हल्के से चला जा रहा है . इसलिए हम अंजना जी के साथ उनके किचेन तक जाने की इजाजत  चाहता हूँ . हमारे पास कई टिप्स हैं . 
         'अन्न की पूजा करो ' यह प्राण है .
वेद की ऋचा है जिसका भाष्य उपनिषद करता है . कई वामपंथी जो संस्कृत से , वेद उपनिषद से चिढते हैं उनसे कहता हूँ मित्र 'अन्न ' पर की गयी वेद ,उपनिषद की मान्यता से आप इनकार भले ही करें लेकिन खाने के लिए अन्न ही खोजेंगे हथौड़ा और रिंच नहीं हजम कर पायंगे . दक्षिण पंथी इनसे भी दो कदम आगे है . वह इस ज्ञान को 'तुन' के लाल कपड़े में लपेट कर फूल चढ़ा देगा और झुक कर आगे बढ़ जायगा . संस्कृत ज्ञान का भण्डार है पर ये पोंगापंथी अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेंगे . 
   एक दिन भाई धर्मेन्द्र राय ने किसी की युक्ति को फेस बुक पर जस का तस दर्ज किया - आप अपनी जिंदगी में कभी किसी पुलिस अधिकारी से मिल लिए या किसी डाक्टर से मिल लिए तो उसे आजीवन याद करते रहते हैं लेकिन जिससे हर दिन तीनबार मिलते हैं उसे कत्तई नहीं याद करते .वह है अन्न और अन्नदाता . ' 
    इस अन्न के साथ आदमी के बच्चे ने बड़ा मजाक किया है . उसका रूप बिगाड़ कर . उसे सुधारने की जरूरत है जिससे आदमी का बच्चा तो सुधरा रहे . 
        अन्न ग्रहण पर फिर संस्कृत पर आ रहा हूँ . संस्कृत ज्ञान कहता है - भोजन को पहले देखो . एक सौंदर्यबोध पैदा होगा थाली में सजे अन्न से . उसकी महक लो , दूसरी इंद्री जागृत होगी . उसे छुओ . स्पर्श करो . फिर उसका स्वाद लो आहिस्ता आहिस्ता इस अन्न का मूल तत्व आपकी जननेंद्रिय को विकसित करेगी . यह है अन्न महिमा . 
   आखीर में किसका अन्न खाते हो . यह बहुत जरूरी है . इसका सबसे खूब सूरत उदाहरण महा भारत में मिलता है . भीष्म पितामह घायल होकर गिर गए हैं . सूर्य के उत्तरायण होने पर ही प्रंका त्याग करेंगे . सो सांझ को जब कौरव पांडव युद्ध विराम करते हैं तो अपने मुखिया से नीति सीखने भीष्म के पास इकट्ठा होते हैं और भीष्म नीति की शिक्षा देते हैं . एक दिन जब भीष्म बोल रहे थे तो द्रौपदी ने ठहाका लगाया . अर्जुन को गुस्सा आगया , वे द्रौपदी की तरफ दौड़े . कृष्ण बीच में आ गए और बोले कि पहले उससे पूछो तो सही कि वह हंसी क्यों . द्रौपदी ने भीष्म से कहा -आज आप नीति की शिक्षा दे रहे हैं उस समय आपकी नीति कहाँ थी जब चीर हरण हो रहा था ? छल से युधिष्ठिर को ठगा जा रहा था ,,,,, भीष्म ने बहुत खूबसूरत जवाब दिया था - बेटी ! मै अन्न दोष से पीड़ित था . यह अन्न दोष आज के समाज की सबसे बड़ी बीमारी है . भ्रष्टाचार , राजनीति , मीडिया सब के सब अन्न दोष से पीड़ित हैं .
सिंहावलोकन

हम और मै .
.... उन दिनों ....
काशी विश्वविद्यालय बनारस के दाहिने सिस्से को काट-छांट कर बसाया गया है . यह एक बेहतर शिक्षण संस्थान भर नहीं है ,अपने आपमें एक मुकम्मिल 'एल्बम है .इसे पलटते जाइए और डूबते उतराते रहिये . अनोखी जगह  है . इस संस्थान में दाखिला लेना , अपने आपमें एक 'घटना ' होती है . और घटना बनने की ललक हर नौजवान में होती है . हम भी नौजवान रहे ( आज भी हूँ ) सो हमने भी यहा दाखिले का सपना देखा और चल पड़े सपना को पूरा करने .
गाँव के एक कालेज से इंटर की मार्कशीट , मोमजामे में दो पराठे , एक ढेला गुड़ . चालीस रूपये नकदी . पैंट और कमीज . बस इतना ही सब था . पर दाखिला नहीं मिला . दोस्तों ने खूब चिढाया ' बाप मरे अंधियारे बेटा पावर हाउस ' बहर लौट आया . यह कहते हुए कि चलो जब यहाँ महादेवी वर्मा जी दाखिला नहीं ले पायी तो मेरी क्या औकात . दिल मजबूत किया और काशी का मध्य क्षेत्र पकड़ा . काशी विद्यापीठ . 'शास्त्रियों ' का धर्मस्थल . बापू की डाली हुई नीव पर अपने तमाम अभावों के बीच टन कर खड़ा यह विश्वविद्यालय आजादी की लड़ाई का केन्द्र रहा है . दाखिला ले लिया . यहाँ लगे हाथ जिक्र कर दूं कि हम भाग्यशाली रहे ,हमारे कुलपति थे - राजाराम शास्त्री . दाखिले के तुरत बाद जेल जाना पड़ गया . हुआ यूँ कि उन दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे चौधरी चरण सिंह . उन्हें समाजवादियों से चिढ़ थी . और प्रदेश के तमाम विश्वविद्यालयों , विद्यालयों के छात्र संघों पर समाजवादी युवजन सभा का कब्जा रहा . यह मुख्यमंत्री को रास नहीं आता था . सो उन्होंने छात्र संघों को बंद करने का फरमान निकाल दिया . 'आ बैल मुझे मार ' आंदोलन शुरू हो गया . उसी झटके में हम भी नेता हो गए . चौधरी चरण के मंच पर चढ़ कर उनसे माइक छीन लिया . बस इतना ही अपराध था . और जेल चला गया . इसकी चर्चा रही . डेढ़ महीने बाद जब लौटा तब तक अखबारों ने हमें उड़ने की जगह दे दी थी .उस समय काशी विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे भाई मार्कंडे सिंह . उन्होंने हमें विश्वविद्यालय में दाखिला दिलवा दिया . और मै फाइन आर्ट्स का छात्र बन गया .
         फाइन आर्ट्स उन दिनों विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए 'दर्शनीय स्थल ' था . क्यों कि यह अकेला विभाग था जहां लड़के लडकियां उन्मुक्त भाव से रहते थे . साथ साथ . यहीं पर हमने पहली बार 'लड़की ' से बात करना सीखा . उनके साथ चाय पीना सीखा . यह हमारे  तमीज का पहला कायदा था .
                                                                                                              जारी -

Thursday, March 21, 2013

आओ लौट कर संजू ....
...... प्रिय संजू .
प्यार . 
हम मिले नहीं . क्यों कि इस बीच तुम सियासत के एक दलाल अमर सिंह के चक्कर में फंस चुके थे . लेकिन हमारी सोच , हमारी नियति और हमारा जुडाव   तुम्हारे साथ वैसा ही है जैसा पहले था यानी सुनील साहेब के रहते हुए . आज यह खत तुम्हे इस लिए लिख रहा हूँ कि तुम्हे अपने किये का प्रायश्चित तो करना ही है . लेकिन बच्चे ! याद रखना जेल बहुत अच्छी बशर्ते उसे सही ढंग से जियो . इसके लिए तुम्हे यह करना होगा कि सबसे पहले यह मान कर चलना कि तुम जेल में नहीं हो . तुमने अपनी मर्जी से एक जगह का चुनाव किया है कि हमें कुछ दिन यहां गुजारना है . बस . और  समझा दूँ ? मेरे बच्चे ( यह संबोधन इस लिए है कि सुनील दत्त साहेब हमारे अच्छे दोस्तों में रहे हैं , कभी राज (बब्बर ) से पूछ लेना . ) थोरो को जब जेल में डाला गया तो उसने माना ही नहीं कि वह जेल में है . जेल एक मनोविज्ञान है उसे नकार दो बस . हस्ते खेलते वक्त गुजर जायगा . मनो विज्ञान समझा कि नहीं ? हम बताते हैं - एक दिन तुमने फैसला किया कि हम अपने कमरे में ही बन्द रहेंगे लेकिन उसकी चाभी हमारे पास ही होगी . तुम्हे यह एहसास रहेगा कि जब मर्जी होगी हम बाहर निकल लेंगे . तुम्हे कोइ दिक्कत नहीं होगी . लेकिन अगर कोइ तुम्हे एक कमरे में बन्द करके उसकी चाभी अपने पास रख ले तो तुम दो घंटे में ही घुटन महसूस करोगे . संजू यह ,मान कर  चलना कि चाभी तुम्हारे पास है और तुम तीन साल बाद यहाँ से निकलो गे . बस . 
      अब यह तीन साल गुजारोगे कैसे ? उसे सुन लो . अपने माहौल से दोस्ती रखना . जेल का हर अधिकारी तुम्हारे परिवार का सदस्य है . उससे सलीके से पेश आना . वहाँ जितने छोटे बनोगे उतना ही बड़ा बनाता है जेल माहौल . सब को मोहब्बत करना . खूब पढाई करना . हम तुम्हे गांधी , लोहिया , नेहरू , आचार्य नरेंद्र देव की किताबे भेजेंगे . उन्हें गंभीरता से पढ़ना . खूब खेलना . थक जाना . रात बहुत अच्छी गुजरेगी . सुबह हस्ते हुए उठना . ' आपको क्या चाहिए ' पूछना . बहुत कुछ सीख कर मेरा बच्चा वापस आएगा . तप  कर . संजू ! जब तक तुम लौटोगे तुम एक बहुत बड़े कलाकार हो कर लौटोगे . तुइ दूसरा नहीं होगा बच्चे म्हारे लिए एक स्क्रिप्ट तैयार रहेगी . मै लिख रहा हूँ . 
           जेल जाते समय कलम , लिखने का कागद जर्रोर्र रखना मेरे बच्चे . आखीर में बोल दूँ - आज तुमने इतिहास रच दिया है मेरे बच्चे एक ऐक्टर ऐसा है जिसके पास जिंदगी के सारे अनुभव हैं यहा तक कि जेल के भी और वह है संजू . संजू तुम्हे जो कुछ भी चाहिए हम मुहैया कराएगे . 
      सन्जो०ओ लौट कर आओ . तुम अकेले होगे . कोइ दूसरा नहीं होगा बच्चे .
चंचल