Monday, October 21, 2013

चिखुरी चिचियाने /चंचल

ये गधे सब कहाँ गए भाई .......
   
           सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था . रोज की तरह आसरे की चाय की दूकान गुलजार थी .गाँव के जाने-माने लोग अलसुबह घर-बार रामभरोसे छोड़ कर चौराहे पर आ जमे थे . भट्ठी सुलग रही थी . लोग अपने अपने यथोचित जगह पर काबिज थे . अचानक पूरब की तरफ से एक मिमियाती आवाज आयी -
'शंकर का लिंग ले लो ... साछात हनुमान ले लो ००००००० ' चौराहे के लिए यह नया ऐलान था ,चुनांचे लोगों का चौकना लाजमी था . चिखुरी ने चश्मे के नीचे से झांका , कयूम ने गर्दन उठाकर देखा , लखन कहार को पीछे मुडना पड़ा , उमर दरजी को चौकना अच्छा लगा .आसरे जो उस वक्त चाय को केतली में छान रहा था वह भट्ठी में जा गिरी .गरज यह कि सब कि निगाह उस तरफ मुड गयी जिधर से यह आवाज आयी थी . जिधर से यह आवाज आयी थी वह एक साइकिल पर था लेकिन चढ़ कर नहीं ,पैदल दोनों थे साइकिल भी और चलानेवाला भी . अधेड़ उम्र का आदमी जिसके रहन-सहन ने उसे वक्त के पहले ही बूढ़ा बना दिया था , खसखसी दाढ़ी ,उखड़े हुए बाल , नीची तहमत ऊपर जालीदार बनियान कंधे पर लाल गमछा . उमर दरजी ने पहचान लिया - अरे ये तो असर्फी है .असरफी पथरकटा...
असराफी पथारकटा?  कीन उपाधिया ने ऐसे आँखें गोल की जैसे वो नहीं जानते . लखन कहार ने परिचय दिया .असर्फी ... झिंगुरी क लडिका . अरे वही जो गाँव गाँव घूम के सील लोढ़ा  कूटता था . बड़ा मजाकिया था . गाँव की औरते उसे देखते ही घूघट काढ के भितरा  जाती थी . ऐसा ऐसा मजाक करता था कि पूछो मत . चिखुरी ने असरफी को गौर से देखा -' तो यह झिंगुरी का लड़का है ? एक बात तुम लोगों को नहीं मालुम होगा ,इसका बाप झिंगुरी अपनी जवानी में पहलवान रहा लेकिन खुराक ने उसे तोड़ दिया . बुलाओ देखो क्या बेच रहा है '? नवल ने आवाज दिया आइये असरफी भाई चिखुरी काका बुला रहे हैं ... सायकिल वहीं लगा दीजिए उसी बांस से टिका दीजिए आइये .
     यहाँ एक गडबड हो गयी . साइकिल में चूंकी 'स्टैंड ' ना रहा  चुनांचे साकिल को कल्लू पंचर वाले के मडहे की उस बांस की थून से टिकाना पड़ा जिस पर छप्पर का पूर्वी पाख टिका पड़ा था . उधर साइकिल टिका कर असरफी दो कदम इधर बढे कि उधर बांस बीच से टूट गया और साइकिल नीचे गिर गयी और मडहा  झूल गया
कोइ बड़ी दुर्घटना हो इसके पहले ही कल्लू निकल कर बाहर भागा . साइकिल के कैरियर पर  लदा सामान पानी भरे तसले में जा गिरा ,पानी  उछाल मारा और आराम से सो रहे करियवा कुकुर पर जा गिरा . वह ऐसे किसी हादसे का आदी नहीं था चुनांचे कों करके भागा और वहाँ जाकर रुका जहां कीन उपाधिया जनेऊ चढाये बैठे लघु शंका कर रहे थे . कमबख्त वहाँ जाकर कुनमुनाया और अपने शरीर को ऐसा झटका कि तसले का जो पानी उसके कान में रुका पड़ा था कीन की पीठ पर जा गिरा . कीन को यह बात नागवार लगी ,जिस काम में लगे थे उसे वहीं जस का तस छोड़ कर एक अद्धा उठाया और बहादुर पे दे मारा (  चौराहे पर इस करियवा कुकुर को बहादुर कह कर बुलाया जाता है और वह सुनता भी है ) बहादुर समझ गया था कि उसके साथ क्या हो सकता है .लिहाजा वह तो कूद कर बच निकला लेकिन ईंट का वह अद्धा खेलावन की दकान पर अस्सी के स्पीड से जा पहुंचा और सामने पड़े कुम्हड़े में जा घुसा . खेलावन चौंक कर कूदे इस कूदने में उनकी धोती फट गयी .दोहरी मार से बौखलाए खेलावन ने कीन  को छोड़ कर उनकी माँ से किसी अचूक और अति गोपनीय क्रिया की घोषणा कर दी, जिसे किसी भी सभ्य समाज में गाली कहा और माना जाता है .बाज दफे तो इस एक जुमले पर कई लोग शहीद होते देखे गए हैं लेकिन यह शहर तो है नहीं  . शहर होता तो यह एक घटना दंगा के लिए काफी रहता लेकिन मामला ठहरा गाँव का और गाँव में हर कोइ हर किसी का कुछ न कुछ लगता ही है .कीन को उनकी माँ के साथ खेलावन ने जो लपेटा मारा था .उसका उन्होंने बुरा नहीं माना क्यों कि गाँव के रिश्ते में खेलावन उनका बाप लगता है. खटीक है तो क्या हुआ. यह सब पलक झपकते हुआ
जिसकी वजह से यह सब हुआ वह असरफी अभी बीच डगर में ही खड़े हैं . अचानक उनको याद आया कि साइकिल तो उसी तरह उल्टी पडी है.  असरफी लपक कर साइकिल की तरफ बढे और लगे उसे उठाने .लेकिंन सैकिल के नखडे कि उठने का नाम न ले .जब भी उठे उलार हो जाय .अगला पहिया कंधे के ऊपर और पिछला टस से मस्स न हो . . उमर दरजी और लखन कहार दौड़े मदद के लए, तब जाकर साइकिल सीधी  हुयी .
इसबार गलती न दुहराते हुए साइकिल को दीवार से टिका कर तीनो चिखुरी के दरबार में पहुचे .
     का लदा है भाई कैरियर पर ?
      एक ठो हनुमान जी औ दू ठो शंकर जी का लिंग .
     एयं ! इ कौन बात भई ?
     का करें सरकार ! बाप दादा पथर कटाई करते रहे . गाँव गाँव घूमि के घर घर सील लोढ़ा कूटते  रहे इज्जत से जिंदगी कटती रही ससुरी 'बखत 'क खेल देखिये घर से सील लोढ़ा  गायब . अब करें का ? जर जमीन तो है ना फिर सोचा शहर चाला जाय .गए भी, रिक्सा भी खींचे पर जब आदत रहे तब ना . एक दिन एक साधू  मिला .जमुना के किनारे . बोला बेटा तुम  गाँव जावो . हनुमान की मूरत बनाओ उर शंकर का लिंग गढो  मालामाल हो जावोगे . ये ज़माना है है धरम का . हम लौट लिए .ये तब कि बात हैजब अजोधा में बवाल मचा रहा .. सो तब से इसी काम में लगा हूँ . अब झूठ का बोले कमाए भी .पर अब मंदा हो गया है .
         मंदा काहे ?लखन कहार का सवाल बीच में ही लटक गया . चिखुरी ने डपट दिया बुड़बक हो का . हनुमान और शंकर सील हैं कि लोढा ? हर महीने कुटाई होए . ? एक बार जम गाये तो जम गए .
      लेकिन इ सील लोढ़ा गायब कैसे हुए ? नवल उपधिया का बुनियादी सवाल कयूम ने लपक लिया -
- नवल बेटा  एकर जवाब त तुम्हार माई देये वोसे पूछ लिह्यो . नवल लजा गए . जवाब दिया चिहुरी ने -सुन जब से इ विकास आया है सब बिगाड़ के रख दिया . अब हर चीज पिसा पिसाया मार्केट  में है .पुडिया खरीदो कड़ाही मे डालो और ऐश करो .राम लाल क दूकान देखो सब समान भरा पड़ा है .
      पर एक बात है काका ऊ स्वाद अब ना रहा जो हम बचपन में खाते रहे .खेलावन खातिक को कुम्हड़े का फूटना भूल गया और लगे स्वाद पर सवाल उठाने . चिखुरी चीखे -स्वाद खोज रहे हो . नकली समान खरीदोगे और स्वाद खोजोगे ?
       एक बात हमारी भी सुनी जाय , समान नकली नहीं है .मद्दू पत्रकार ने पत्रकारिता दिखाई -सामान सब असली है बस नाम बदला है ,घोड़े की लीद चाहिए तो पीसी धनिया खरीद लो , चिलबिल की पत्ती चाहिए तो पिसा मिर्च ले लो ललके रंग में रंगा  , कहाँ तक बताएं . प्लास्टिक खाने का मन करे तो नूडल खरीद लो  हाँ भाई ..मैदे की सेवई पर पतला प्लास्टिक चढ़ा रहता है जिससे उबालने पर अलग अलग छतकता रहता है .तो मतलब हम चू........
    चिखुरी हत्थे से उखड गए - सवाल यह नहीं कि हम असल खा रहे हैं के नक़ल . खा तो रहे हैं . यही होगा जल्दी मरेंगे .लेकिन अगली पीढ़ी तो ज़िंदा रहेगी जल्दी मरने के लिए . ईनके बारे में सोचो आख़िरी पीढ़ी जी  रहे हैं . कितने दिन बिकेंगे हनुमान ,शंकर का लिंग . पेशा खत्म तो जाति  खत्म .धुनिया दिखाई पड़ता है कहीं ?? दोना पत्तल बनानेवाले मुसहर मारे गए प्लास्टिक से . कुम्हार मारा जा रहा है .दरबारी मास्टर ने पते की बात कही - आदमी की जाति ही नहीं गायब हो रही साथ ही साथ जानवर भी गायब हो रहे हैं . अब गधा कहीं दिखाई पड़ता है ? बोलो पंचो . आखन देखी बता रहा हूँ .असरफी के बाप रहे झिंगुरी , गदहे पर जांत , चकरी सील बट्टा लिए घूमते थे .अब गदहा इलाके से गायब है प्राइमरी की किताब में भले ही दिख पडे . मंगरू धोबी गाँव भर क कपड़ा उसी गदहे पे लादते थे और खुदौ ऊपर चढ़ी के सवारी करते थे . कोइ बता सकता है कि कहाँ गए सब गदहे ?
  सुल्ताना नाई से नहीं रहा गया -हम बताएं कहाँ गए ?? हम्मे मालुम है ...
कीन उपाधिया समझ गए कि इ का बोलेगा , -अबे निकाली पनही ?
उमर दरजी ने टांका मारा -कीन पहिले पनही खरीदै के पडी  .. 'ठहाका उठा और दाना च्गती गौरैया फुर्र से उड़ गयी .
        नवल उपधिया जो अब तक चुप चाप सुनते रहे संजीदा हो गए और चिखुरी से बोले -एक बात बतावा काका ! अगर इस सब सही है त अब का कीन जाय ? कयूम्कुछ बोलने के लिए मुह खोले की थे कि चिखुरी ने आँख के इशारे से घुडूक दिया , कयूम  मुस्कुरा के रह गए . चिखुरी ने संजीदगी से कहा एक बात मानोगे ? सब चुप रहे . चिखुरी बोले आज से पिसा मसाला बंद ,खड़ा मसाला चालू .सस्ता क सस्ता ,स्वाद क स्वाद . मसाला पैदा हम करें मुनाफ़ा खायं वो . ?
      नवल ने तुरत आडर दिया - असरफी  भाय एक सील लोढ़ा बनाय दो.
    उमर दरजी ने हांक लगाया -सील ... लोढ़ा ..... कुट्वाय .....लो........
देखिये कल क्या होता है . बहादुर कुनमुना कर देखा और फिर जमीन से कान सटा कर सो गया . 

Saturday, October 12, 2013

कांग्रेस का परिमार्जन जरूरी है , खात्मा नहीं ......
चंचल 
    आजादी के बाद     कांग्रेस को ज़िंदा रखना ,कांग्रेस कीसबसे बड़ी दिक्कत थी . विशेष कर तब जब वह स्थापित संस्थान की तरह स्थापित होने जा रही हो और उसमे अधिनायकवादी डगर की तरफ बढ़ने की संभावना हो..ऐसे समय गांधी की यह चिंता एक नए अध्याय की शुरुआत करती है ,जब वह कहते हैं कि कांग्रेस का काम समाप्त हो गया है ,अब उसे 'समाप्त ' कर दिया जाना चाहिए .
        चूंकी देश नया नया आजाद हुआ था ,एक उमंग , जोश और उल्लास पूरे वातावरण में में था चुनांचे गांधी की बात नतो देश ने सुना न ही कांग्रेस ने .और इसके लिए कोइ तैयार भी नहीं था . जब कि गांधी कांग्रेस को नया जीवन देने जा रहे थे .कांग्रेस को उस तरह ले जाना चाहते थे जो सारी दुनिया के सामने एक मिसाल बने .गांधी ने बड़े सहज ढंग से कहा 'कांग्रेस का काम समाप्त हो गया है ' उनका इशारा इतिहास की एक गाँठ खोलता है -कल तक कांग्रेस एक सत्ता से लड़ रही थी ,उसकी वरीयता दूसरी थी .आज कांग्रेस स्वयं 'सत्ता है ' इसकी वरीयता अब दूसरी है .कांग्रेस अपने को शासक न समझे 'सेवक ' समझे ' और उस लिहाज से अपनी वरीयता तय करे . गांधी कांग्रेस के 'नए अवतार 'की बात करते हैं .वे कांग्रेस की काया और आत्मा के पुनर्जन्म की वकालत करते हैं .यह पहला परिमार्जन था .लेकिन नए जोश में सब काफूर हो गया और एन वक्त पर  गांधी की ह्त्या कर दी गयी . तुर्रा यह कि जिस दक्षिणपंथी ,कट्टर और कायर सोच ने गांधी की ह्त्या की ,वही ताकते बार बार  गांधी को याद करती हैं और कहते नहीं अघाती कि गांधी जी ने तो कांग्रेस को समाप्त करने की बात कही थी .
     प्रसिद्ध समाजवादी चिन्तक मधुलिमये ने अपनी पुस्तक 'राजनीति के अंतर्विरोध ' में एक पूरा अद्ध्याय ही कांग्रेस को दिया है .कांग्रेस काया और उसकी आत्मा पर मधु जी बड़ी बेबाकी से कते हैं कि कांग्रेस देश की ही नहीं दुनिया की सबसे बड़े जनाधार की पार्टी है .सुदूर गाँव गाँव इसकी पैठ है .मधु जी इस पार्टी की तुलना बोल्शेविक पार्टी से करते हुए कहते हैं कि सोवियत संघ ने इसी आधार पर एक पार्टी के तंत्र को स्वीकारा जब कि कांग्रेस ने बहुदलीय व्यवस्था को जन्म दिया . यहाँ फिर गांधी का हवाला देना चाहूँगा जब वे पहली अंतरिम सरकार में तीन ऐसे लोगों को कबिनेट में जगह दिया जो निजी रूप से गांधी और कांग्रेस के विरोधी थे . और ये तीनो तीन अलग अलग दिशाओं से रहे . मद्रास , महाराष्ट्र और बंगाल से . इनमे से दो तो आज तक चर्चा में हैं -बी आर  अम्बेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी . मधु लिमये यहाँ पंडित नेहरू की प्रशंसा करते हैं और उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा 'डेमोक्रेट ' बताते हैं और कई उहारण भी देते हैं .पंडत नेहरू के कार्यकाल तक कांग्रेस के अधिनायक वाद की तरफ बढ़ने का खतरा नहीं है इससे सब आस्वस्थ हैं . लेकिन नेहरू के बाद ?
         यहाँ थोड़ा विषयान्तर चाहूँगा और उस कालखंड का जिक्र करने की इजाजत लेता हूँ जब कांग्रेस सत्ता में है और देश ने संवैधानिक रूप से जनतंत्र और बहुदलीय व्यवस्था को धर्म की तरह स्वीकार कर लिया है .कांग्रेस अगर अधिनायकवाद की तरह बढ़ती है तो उसे रोकेगा कौन ? और रोकने का 'साधन ' क्या होगा ?ये दो बड़े सवाल थे . .. और तब जब की गांधी नहीं हैं . ? कांग्रेस स्थापित संस्था बन कर जड़ न हो जाय ,अधिनायकवाद के जरिये तानाशाही न ठोंक दे ,इससे 'लड़ने ' के लिए गांधी के ही एक उत्तराधिकारी ने यह जिम्मेवारी ली वह हैं डॉ राममनोहर लोहिया . और उनका गढा हुआ समाजवादी आंदोलन . ( एक गैर जरूरी सच यह है कि समाजवादी  कभी भी 'पार्टी' नहीं रही ,यह आंदोलन रहा .और जब यह पार्टी बनने की कोशिश की तो बिखर गयी .इस विषय पर फिर कभी .) यहाँ एक बात का जिक्र कर देना जरूरी है कि कांग्रेस स लड़नेवाली दो ताकते और भी रही .वामपंथी साम्य्वादी और दक्षिण पंथी संघी . इन दोनों एक साम्य रहा जो सिद्धांतः आज भी है वह है - दोनों  का जनतंत्र में यकीन नहीं है और न ही बहुदलीय व्यवस्था में . एक मजदूर और सर्वहारा की तानाशाही चाहता है दूसरा 'एक नेता ,एक झंडा . एक पार्टी फिर एक राष्ट्र " चाहता है . गो कि उसी जनतंत्र और बहुदलीय व्यवस्था के तहत दोनों 'सत्ता सुख ' भी लेते रहते हैं . चुनांचे यह तय हो गया कि अगर कांग्रेस अधिनायकवादी हो जाती है तो उसका विरोध या प्रतिकार करने की कोइ ताकत मुल्क में नहीं है . समाजवादी आंदोलन कांग्रेस को चुनौती देता है . संसद में और सड़क पर . कांग्रेस पर दबाव बढ़ता है और यह  नेहरू के ही कार्यकाल से शुरू हो गया था . ६३ में पहली बार संसद में सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव आया . संसद में पहली बार हिन्दी बोली गयी . तीन आने बनाम तेरह आने की बहस चली . देश के आम आदमी ने पहली बार जाना कि संसद उसकी अपनी है . और चार साल पहुचते -पहुचते गैरकांग्रेसवाद का नतीजा सामने आगया , सात सात सूबों से कांग्रेस का सफाया हो गया .जनतंत्र के लिए और सबसे ज्यादा कांग्रेस के लिए यह शुभ था .
     यहाँ गैर कांग्रेसवाद का 'प्रयोग 'समझ लेना जरूरी है . डॉ लोहिया आम आदमी की भाषा में गैरकांग्रेसवाद की व्याख्या करते हैं , 'रोटी को सेंकते समय उल्तोगे ,पलटोगे नहीं तो जल जायगी 'सत्ता को उलटो पलटोगे नहीं तो तानाशाह बन जायगी . डॉ लोहिया का गैरकांग्रेसवाद कांग्रेस को समाप्त नहीं करता परिमार्जित करता है .परिमार्जन का पहला नतीजा ६७ में आया . कांग्रेस पर दबाव बढ़ गया .६९ में कांग्रेस नए रूप में आयी .
      ६९ नेकीराम नगर कांग्रेस में श्रीमती गांधी ने समाजवादी प्रस्ताव (१९५४ में जे पी ने पंडित नेहरू को एक प्रस्ताव भेजा था ,१४ सूत्रीय कार्यक्रम का , जिससे नेहरू सहमत थे लेकिन उस समय संगठन पर य्थास्थित्वादियों का इतना दबाव था कि नेहरू उस मुद्दे पर जोखिम नहीं लेना चाहते थे .लिहाजा वह पत्र जस का तस पड़ा रह गया था उसे इंदिरा गांधी ने ६९ कांग्रेस में पेश कर दिया और उस पर अड् गयी .)पेश कर समूचे राजनीति को ही झकझोर दिया . नतीजा हुआ इंदिरागांधी को कांग्रेस ने बाहर निकाल दिया . यह कांग्रस का परिमार्जित रूप था जिसने ७१ के चुनाव में इंदिरा कांग्रस को देश की सबसे बड़ी ताकत के रूप में स्थापित कर दिया .
           अब एक बार फिर कांग्रेस के सामने वही ख़तरा 'अधिनायकवाद ' की तरफ झुकने का आ गया . और वही  हुआ भी चार साल बीते बीतते इंदिरागांधी एक अधिनायक की तरह उभरी . और उनके विरोध में फिर एक समाजवादी आया जे पी . आपातकाल लगना . अगले चुनाव में कांग्रेस का सफाया . यह इतिहास सब को मालुम है . जो दबा और अन कहा है उसे देखिये .
       जनता पार्टी की सरकार बन रही है . जे पी अपने पसंद के किसी भी पुराने समाजवादी को सरकार में नहीं भेजते . चंद्रशेखर , मधु लिमये , यस यम जोशी . सब संगठन में जाते हैं सत्ता उनके हाथ जाती है जिसके खिलाफ समाजवादी आंदोलन मुखर रहा है -मोरार जे भाई , नीलम संजीव रेड्डी , संघ का उच्च नेतृत्व . उधर सरकार बन रही है दूसरी तरफ जे पी इंदिरा गांधी के घर पर हैं .दोनों एक दूसरे को पकड़ कर रो रहे हैं . इन्दिरा गांधी का जे पी के सामने रोना कांग्रेस का प्रायश्चित है . जे पी कहते हैं धैर्य रखो ' यह धैर्य कांग्रेस का परिमार्जन है .आगे की कहानी पूरी कथा बता देती है .
      मोरार जी सरकार के एक मंत्री राज नारायण जो लगातार इंदिरागांधी से टक्कर लेते रहे हैं ,समाजवादी हैं और मोरार जी सरकार से टक्कर ले लेते हैं और सरकार से बाहर हो जाते हैं . दोसाल जाते जाते समाजवादियों मोरार जी की सरकार को गिरा दिया . अगल चुनाव आया . कांग्रेस ने अपने किये के लिए जनता से माफी माँगी .कांग्रेस एक बार फिर परिमार्जित होकर चुनाव मैदान में आयी और  बहुमत उसके हाथ रहा .
लेकिन आज कांग्रेस से ऐसी ताकत टकरा रही है जो देश में सदैव के लिए तानाशाही लाना चाहती है .फैसला जनता के हाथ में है .


 

Friday, October 11, 2013

१२ अक्टूबर डॉ लोहिया का निर्वाण दिवस
ज़िंदा कौमें पांच साल इन्तजार नहीं करती .....
चंचल 
      ५९ साल की उम्र में १२ अक्टूबर १९६९ को डॉ लोहिया का निधन हुआ . पूरा देश स्तब्द्ध रह गया . वह न किसी ओहदे  पर रहा , न ही उसकी चाह थी .आजादी की लड़ाई से निकला एक तपा तपाया सेनानी था और सारे बड़े ओहदेदारों से उसके रसूख रहे . वह गांधी का चहेता था ,नेहरू से दोस्ताना रिश्ते थे लेकिन उसकी सबसे बड़ी पूंजी उसकी अपनी शख्सियत थी जिसके सामने किसी की टिकने की हिम्मत नहीं थी . यह उसे गांघी से मिली थी . पूरे देश का जो दबा कुचला , मजबूर मजलूम था वह उसे अपना मानता था . शायद यही वजह थी कि जब डॉ लोहिया के मरने की खबर फ़ैली तो पूरा देश रो पड़ा . देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री  मती इंदिरागांधी डॉ लोहिया को कंधा देने के लिए खड़ी थी . उनके मंत्रिमंडल के कई  सदस्य डॉ लोहिया की अंतिम यात्रा में पैदल चल रहे थे . जे पी रो रहे थे और कवक एक वाक्य बोल पाए थे -राम मनोहर मुझसे दो साल छोटा था ' . शेख अब्दुल्ला को उनके अनुरोध पर जेल से लाया गया था .जिस समय वे शोक सन्देश लिख रहे थे रो रहे थे -कश्मीर तुम्हे सलाम करता है .' .गांधी के बाद शायद यह पहली मौत थी जिसे देश ने सिद्दत के साथ महसूस किया . केवल सियास्दान ही नहीं -साहित्य ,कला .संस्कृत सबको डॉ लोहिया ने एक साथ प्रभावित किया था . सबसे ज्यादा पत्रकारिता से जुड़े लोगों को .एक तरह से कहा जाय तो डॉ लोहिया ने पत्रकारिता को विषय ही नहीं दिया ,भाषा भी दी . नया मुहावरा दिया . आज सब इस यात्रा में शामिल हैं .
    डॉ लोहिया ६३ में पहली बार फरुक्खावाद से उप चुनाव जीत कर आये .और आते ही अपने पुराने दोस्त से टकरा गए . नेहरू को पहलीबार संसद में चुनौती मिली . ६३ में पहलीबार लोक सभा में नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव आया . यह परम्परा आज तक चल रही है . सबसे बड़ी जो बात हुई कि संसद की शक्ल बदल गयी .६३ के पहले संसद की कार्यवाही में हिन्दी न के बराबर है . यहाँ एक रोचक घटना का जिक्र करना चाहूँगा .जिस दिन पहलीबार डॉ लोहिया खड़े हुए बोलने के लिए उन्होंने हिन्दी में बोलना शुरू किया . पत्रकार दीर्घा में बैठे तमाम पत्रकार उठकर चले गए .केवल एक पत्रकार वहाँ मौजूद रहे ,वे थे रघुवीर सहाय .दूसरे दिन जब सहाय जी की रपट उनके पत्र में प्रकाशित हुई तो मजबूरन अंगरेजी अखबारों को उसका तर्जुमा लेना पड़ा . संसद का वह स्वर्णिम युग है . समाजवादी पार्टी के सासद में नेता है किशन पटनायक . उस समय चली हर एक बहस संसद की धरोहर है . विशेष कर तीन आने बनाम तेरह आने . जिस पर नेहरू को अपने वित्त मंत्री मोरारजी भाई की तरफ से माफी तक मागनी पडी है . इसी समय किशन पटनायक और पंडित नेहरू के बीच जो पत्र व्यवहार हुआ वह आज एक दस्तावेज है " ट्वंटी फाइव थाउजैंड ये डे'
          डॉ लोहिया संसद ही नहीं सड़क को भी गरम करने में यकीन रखते थे . भाषा आंदोलन आजादी के बाद उठा नौजवानों का पहला कदम था जिसने पूरे देश को झकझोर दिया . आज तक जो पीढ़ी सियासत में मायने रख रही है वो उसी काल खांड की उपज हैं दल कोइ भी रहा हो उसे अपनी कार्य शैली बदलनी पडी थी और नौजवानों को ऊपर उठाना पड़ा था . आज वह सब समाप्त है और सियासत संदूक और बन्दूक के हवाले है .
    केवल एक सवाल है क्या हम कोइ नयी और सार्थक शुरुआत कर सकते हैं ?
  डॉ लोहिया को नमन .
     
   

Monday, October 7, 2013

सबुज रंग छीट मगाय द सजना ....
            आज भावना मिलने आयी थी . हम लोग जब भी मिलते हैं खाने बनाने पर उलझे रहते हैं . आज विषय बदल गया . छीट पर चला गया . भावना को नहीं मालुम की छीट क्या है . सहज और सरल तरीके से हमने बताया कि यह अक्टूबर महीना है बापू का जन्मदिन चल रहा है .खादी पर छूट होगी . वहाँ खादी की छीट खरीदो और खुद सिलो . 'मै सिलूं ? पूरी जोकर लगूंगी ' तो क्या हुआ कुछ तो लगोगी . देखिये क्या होता है . 
        बहुत सारी महिलायें हमारी दोस्त हैं .वो किसी भी उम्र की हों इससे कोइ मतलब नहीं . इनमे से कईयों के पास कमाल का जज्बा है . उनसे कहता हूँ चलिए इस महीने खादी की छीट पर आइये . साड़ी ,कुर्ती .ब्लाउज .दुपट्टा आदि आदि . खरीदिए और पहन कर ब कायदे सड़क पर उतारिये . बिंदास . दीजिए चुनौती उन घरानों को जो देश को लूट रहे हैं . अखबार के पन्नों और डब्बे के लिपेपुते चेहरों को जो झूठ बोल कर 'सिंथेटिक कपड़ों' का विज्ञापन करते हैं . अपनी जेब भरते हैं और सौकीन मिजाज लोगों के 'स्किन ' को बर्बाद करते हैं . खादी में स्वाभिमान है उस स्वाभिमान को राष्ट्रीय चरित्र बनाने हमें गर्व होगा . खादी से जुड़े चौवालीस लाख परिवार के हाथ मजबूत होंगे . यह एक घराने की बपौती नहीं है . इस तरह हम छोटी -छोटी चीजों को उठा कर खुद में स्वाभिमान और राष्ट्र को समर्थवान बना सकते हैं . 
        एक दिन किसी अति 'बड़ी पार्टी ' में जहां एक से बढ़ कर एक प्रदर्शन होते हैं वहाँ खादी के 'रफ त्रेक्चार 'के साथ अपने खादी लिबास में  पहुंचिए . .... यह पार्टी के 'एथिक 'में ' इरर ' होगा . यहीं न ? खादी कहता है -'इरर इज आवर ब्यूटी ' 
     भावना ने पूछा -ते छीट होता क्या है ? हमने कहा रुको ,और हमने 'कादम्बनी ' का वह नया अंक उसे सौंप दिया जिसे हमारे मित्र राजीव कटारा ने हमें दिया था . उसके आख़िरी पन्ने पर हमारे 'पुराने ' मित्र इब्बार रब्बी ने छीट पर लिखा है . और जो उन्होंने नहीं लिखा उसे हम बता रहे हैं . छीट हमारा इतिहास है . सौंदर्यबोध का अदभुत उदाहरण . भारत कापसे बुनता था , उस पर छपाई करता था . उस छपाई को छीट कहते थे वह छीट सारी दुनिया में व्यापार देती रही . हम खुशहाल रहे . इसे अंग्रेजों ने तबाह किया . हमें सेंथेटिक की तरफ ले गए .गांधी जी ने उसका जवाब दिया . आज वो हथियार आपके हाथ में है .उसे उठा कर चलिए न दो कदम. 

Wednesday, October 2, 2013

बापू ता उम्र लोगों को जोड़ते रहे .....
               कल आटोवाले ने पते की बात की . उसने कहा -साहब जल्दी चलिए .हमने जल्दी कर दी और ऑटो में बैठ गया . दिल्ली में कोइ भी चीज अकेले नहीं चलती अगल बगल को चलाते हुए चलती है . उधर ऑटो चला उसी के साथ उसकी जुबान भी चली . है क्या कि ये जो दिल्ली है न क़ानून से चलती है . इधर से उधर हुए हुए नहीं कि गए काम से . हमने पूछा तो तुम्हे चलने की क्या जल्दी थी ? उसने कहा -कल गांधी का जन्मदिन है न ,तो ड्राई डे होगा . इस लिए जल्दी कर रहा था कि एक बार दूकान बंद हो जायगी तो मिलेगा नहीं . गांधी का जन्मदिन इस भी तरह से याद किया जाता है यह पहला अनुभव था . काफी देर तक सोचता रहा गांधी जो ताउम्र एक एक पल रचना और उत्पादन में लगाते रहे उनका जन्मदिन सरकारी छुट्टी से मनाया जाता है . बाद बाकी पूरा मुल्क अपने काम में लगा रहता है . किसान ,मजदूर . कुम्हार . लोहार ,मुसहर सब काम में लगे रहेंगे क्यों कि ये उत्पादक जाति है . दूसरी तरफ कलम घिस्सू अनुत्पादक जाति है जिसे सरकारी कर्मचारी कहते है वह छुट्टी पर रहेगा .होना तो यह चाहिए कि आज तमाम सरकारी लोग उस तरफ रुख करें जो दबे कुचले हैं . मजबूर हैं ,मजलूम है .जलालत और जिल्लत की जिंदगी जीने पर मजबूर हैं ,उनके साथ ,उनके बीच पूरा दिन गुजारें .इसका असर यह होगा कि कल कोइ भी फ़ाइल 'पेंडिंग' में नहीं जायगी तुरत कार्यवाही होगी क्यों कि हर फ़ाइल पर किसी न किसी मजलूम का चेहरा दिखाई पड़ेगा जिनके साथ दो अक्टूबर गुजरा है . ... यही मजबूर ,मजलूम गांधी का ईश्वर था .
         एक दिन काका (राजेश खन्ना ) ने ऐलान कर दिया कि 'आज मै नहीं पिऊँगा ' .८१ लोधी  रोड में यह खबर खबर बन रही थी कि आज काका नहीं पियेंगे .  सांझ सात बजे के करीब ज्यो ही मै गेट से अंदर घुसा अशोक रंधावा काका का सबसे खास उसने हमें रोक कर बता या -साहेब ! आज की खबर सुनते जाइए , काका आज नहीं पियेंगे ,जो भी आ रहा है सब को यही बोल रहे हैं . हमने पूछा क्या बात हो गयी ? उसने कहा उन्ही से पूछिए ज्यादा अच्छा रहेगा . मै अंदर गया .पहुचते ही शुरू हो गए .-साहिब ! आज हम नहीं पियेंगे . हमने कहा -यह तो बहुत अच्छी बात है . चुप रहे . नहीं रहा गया तो बिलकुल बच्चों के अंदाज में बोले तो आप यह नहीं पूछेंगे कि क्यों ? हमने कहा बिलकुल नहीं पूछूंगा क्यों .फिर चुप रहे . फिर बोले साहिब आप बहुत खतरनाक हैं . हमने कहा कि आपसे भी पहले किसी ने मेरे बारे में यह कह रखा है . वह आपकी प्रेमिका होगी ? हमने कहा आपने कैसे जाना ? बहुत संजीदगी से बोले - मै भी तो आपको प्यार करता हूँ ... सन्नाटा . अचानक फ़िल्मी सेट पर चले गए .ओके . लाईट आफ . पैक अप ... और जोरदार ठहाका . देखिये साहिब आज दो अक्टूबर है गांधी जी का जन्म दिन . इस लिए आज मै नहीं पियूँगा . अब तो आप मान गए न कि मै गांधी का भक्त हो गया हूँ ? हमने कहा कि यह तो हम उसी दिन समझ गए थे जिस दिन आप आगे बढ़ कर हमारे पास आये थे और दूसरे दिन दोपहर खाने का न्योता दिए थे . 
    अब वह भी किस्सा सुन लीजिए हमारी काका से मुलाक़ात का किस्सा . दिल्ली में हमारे एक दोस्त हैं नरेश जुनेजा . उनके कई शौक हैं उसमे से एक है पार्टी देना . एक दिन उनका फोन आया . भाई साहब कल घर पर एक पार्टी है आ जाइयेगा . और हम पहुचे . उनका ड्राइंग रूम विदेशी लोगों से भरा  पड़ा था .अंदर पहुचते ही हमें कहा गया कि आप बेड रूम में चले जाइए .मै वहाँ गया ,वहाँ फिल्म बितरक् . फिल्म वाले . कई डाक्टर पहले से ही मौजूद रहे . उनमे एक सोफे पर गीतकार संतोषानन्द धसे पड़े मिले . हमें देखते ही संतोषानंद ने आवाज दिया देखो भाई अकेले फसा पड़ा हूँ .संघियों घेर रखा है . ( संतोषानंद मनोज कुमार की फिल्मो के लिए गाने लिखते रहे और फ़िल्मी दुनिया में कांग्रेसी मान लिए गए थे ) हमने पूछा कितनी देर से चल रहा है . डॉ कसाना ने कहा अभी दूसरा ही है . हमने हँसते हुए कहा रुकिए हमें भी लेबिल पर आने दीजिए . इतने में हमारे दोस्त गिप्पी (सिद्धार्थ द्विवेदी सुपुत्र पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ) जो पहले से वहाँ मौजूद थे हमारे हाथ में ग्लास दे दिए . एक फ़िल्मी ने संतोषानंद से पूछा - गांधी की एक खूबी बता दो तो जाने . हमने मजाक के लहजे में कहा दोस्त पाहे लड़के से बतिया लो फिर बाप से पूछना . ...गांधी दुनिया का सबसे बड़ा पोस्टर डिजाइनर है . 'उससे बड़ा कोइ दूसरा आर्टिस्ट पैदा ही नहीं हुआ '. यह चौकानेवाला बयान था . एक चुप्पी तैर गयी . किसी ने कहा हम समझे नहीं . हमने चिढाया बहुत हैं जो अब तक गांधी को नहीं समझ पाए हैं . तो सुनिए - गांधी ने आजादी की लड़ाई में चरखा खोज निकाला . उस जमाने में जो चरखा चलाता मिल जाता था मान लिया जाता था कि यह कांग्रेसी है .और मजे की बात यह कि इस पर कोइ प्रतिबन्ध भी नहीं लग सकता था क्यों कि यह उत्पादन का जरिया भी था . इतने में पीछे से आवाज आयी ..साहिब ! मेरा नाम राजेश खन्ना है क्या मै आपसे मिल सकता हूँ ? कह कर वे आगे बढे तब तक मै खुद उनकी तरफ बढ़ गया .काका के साथ राजीव शुक्ला थे जो हमसे पहले से ही परचित थे उन्होंने हमारा परिचय दिया .यह थी काका से पहली मुलाक़ात जो बापू के बहाने से शुरू हुई आर आखीर तक बनी रही . 
         उस दो अक्टूबर को काका ने नहीं पिया .
   यह सुलेख पूरे अक्टूबर के लिए है . अक्टूबर को ही समर्पित है .






Tuesday, October 1, 2013

धन्यवाद कांग्रेस .....
 ...देश में  भ्रष्टाचार को लेकर हाहाकार मचा हुआ था . निकलने का रास्ता क्या है ? यह मूल सवाल कटी पतंग की तरह इधर से उधर घूम रहा था . संसद किम् कर्तव्यविमूढ बनी बैठी थी . क्यों कि हर दल उस कुवें का पानी पी चुका था जिसमे भांग पडी थी . अन्तः उसने सुप्रीम कोर्ट को चुनुती देते हुए एक अध्यादेश पारित करवाना चाहा जिससे सुप्रीम कोर्ट का फैसला तत्काल प्रभाव से खारिज हो जाता ,लेकिन ऐसा नहीं हो पाया . क्यों ?
    इस क्यों का जवाब भारत के जम्हूरी निजाम के पास है . उसे देखिये . यहाँ हर संस्थान 'बड़ा'  है लेकिन स्वच्छंद नहीं . विधायिका , कार्यपालिका और न्याय पालिका . तीनो स्वतंत्र हैं पर स्वच्छंद नहीं . तीनो एक दूसरे की नक्लेल पकडे बैठे हैं . क्यों कि इन सब के उपर एक संविधान है . अब संविधान का किस्सा सुनिए (उन्हें सुना रहा हूँ जो अम्बेडकर को तो पूजते हैं पर गांधी को गरिआते हैं ) देश आजादी के मुहाने पर खड़ा है .देश आजाद होगा तो उसका स्वरुप कैसा होगा यह कांग्रेस की चिंता थी . क्यों कि बाकी दल कांग्रेस के विरोध में थे और अंग्रेजों के साथ थे .  प्रसिद्ध समाजवादी नरता और कांग्रेस के मुखर आलोचक मधु लिमये लिखते हैं कि कांग्रेस देश की नहीं दुनिया की सबसे बड़े जनाधार की पार्टी थी वह चाहती तो सोवियत यूनियन की तर्ज पर एक पार्टी तंत्र की स्थापना करती लेकिन उसने ऐसा नहीं किया . उसने जनतंत्र और बहुदलीय व्यवस्था की नीव डाली . पहली अंतरिम सरकार में गांधी ने तीन ऐसे लोगों को सरकार में शामिल कराया जो कांग्रेस और गांधी के कटु आलोचक थे . इनमे से दो मंत्री बनाए गए . एक श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दूसरे भीमराव अम्बेडकर . मजे की बात संविधान बनाने की बात चली तो गांधी ने संविधान के प्रारूप समिति के लिए अम्बेडकर का नाम सुझाया . नेहरू ने आश्चय्र से पूछा . तो गांधी का छोटा सा जवाब था -यह कांग्रेस का संविधान नहीं है देश का संविधान है .' जब्य्ह पत्र अम्बेडकर के पास पहुचा तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ था . खुशी भी . 
आज इस संविधान ने देश की जनता को राहत दिया है जो भ्रष्टाचार का हल खोज रही थी और हर बार छली जा रही थी . देश की न्यायपालिका संविधान के तहत काम करती है . इस्लियेहमने कहा - धन्यवाद कांग्रेस .
    देश में अस्थिरता फैलाने में माहिर संघी गिरोह इन हालात के चलते खुल कर सामने आया और संविधान को चुनौती दीऔर संसद को कटघरे में खड़ा कर दिया .यहाँ यह रखा जाना चाहिए कि इस देश में कांग्रेस के अलावा कोइ भी विचार ऐसा नहीं है जो जनतंत्र, समाजवाद और सर्वधर्मसमभाव में यकीन रखता हो . यहाँ साम्यवादी और संघी 'जनतंत्र ' की सुविधा तो ले लेंगे ,उसका सुख भी भोग लेंगे लेकिन उनका यकीन न तो संसदीय व्यवस्था में है न ही संविधान में . 
     बाज दफे जनता घपला खा जाती है कि जनतंत्रीय व्यवस्था है क्या ? संसद पक्ष और प्रतिपक्ष की धार पर चलती है . दोनों के बीच जितना ज्यादा तनाव रहेगा संसद उतनी ही कारगर ढंग से जनमन को अपनाती रहेगी . अगर पक्ष मजबूत हुआ तो सत्ता की तानाशाही का ख़तरा रहता है (जैसा कि ७५ में इंदिरा जी के कार्यकाल में हुआ ) और प्रतिपक्ष अराजक होकर किसी संवाद से दूर भागेगा और संसद को जाम करेगा तो अराजकता की स्थिति बनेगी . जैसा कि मनमोहन जी के दूसरे कार्यकालमे भाजपा कर रही है . ये दो नो ही स्थितियां जनतंत्र के लिए खरनाक होती हैं . आजादी के तुरत बाद पंडित नेहरू का कार्यकाल कांग्रेस के लिए स्वर्णिम युग है . लेकिन चुकी नेहरू स्वयं में इतने बड़े जनतंत्र के वाहक रहे कि जम्हूरी निजाम को कोइ ख़तरा नहीं था . संसद आराम से चल रही थी . दस सालबाद १९६३ में पहली बार देश ने महसूस किया कि प्रतिपक्ष भी होता है जब  तीन उप चुनाव के नतीजों के साथ दो दिग्गज -डॉ राम मनोहर लोहिया और कृपलानी संसद में पहुचे ( तीसरे नेता दीं दयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव हार गए थे ) ६३ में पहली बार नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव जेरे बहस हुआ .कहना यह है कि संसदीय व्यवस्था में सत्ता पक्ष की जिम्मेवारी से ज्यादा जिम्मेवारी प्रतिपक्ष की होती है और इन दिनों हमारा प्रतिपक्ष अपनी भूमिका में नालायक रहा है .
    तीसरा रास्ता है 'सड़क ' का .सड़क की गर्माहट संसद को गरम करती है . इसका सबसे बड़ा उदाहरण है अन्ना का आंदोलन . अगर आपको याद हो तो अन्ना ने संसद को बौना बना दिया था . उस दिन मै एक अखबार के संपादक के कमरे बैठा था और बात अन्ना आंदोलन पर चल रही थी . हमने कहा कि भाई इस आंदोलन ने सड़क की आग को खत्म कर दिया . यह नपुंशक सोच सड़क की गर्मी खींच लेगी और अदले सालोसाल तक जनता किसी पर यकीन नहीं करेगी . और हुआ वही . वरना जो काम आज न्यायपालिका कररही है उसे संसद को करना चाहिए था . अगर संसद खामोश थी तो यह सड़क की जिम्मेवारी बनती थी .लेकिन जब सब नाकारा हुए तो न्यायपालिका आ खड़ी हुयी . क्यों कि हम उस देश में हैं जहां एक संविधान है और वह संविधान आजादी की लड़ाई का निचोड़ है जिसे कांग्रेस ने सींचा है .इसलिए हम कांग्रेस को धनुवाद दे रहे हैं .