Thursday, January 26, 2017

विवेकी राय / श्रद्धांजलि 
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मास्साब की चिट्ठी 
 ० चंचल 
उन्नीस बीस की लोकोक्ति भोजपुरी पट्टी में दौड़ने वाली कहावत है , विवेकी राय ने अपने लेखन में इस लोकोक्ति का जम कर प्रयोग किया है , उन्हें  का
 मालुम रहा की अपने अंतिम दिन वे खुद इस लोकोक्ति को वोढ लेंगे .१९ नवंबर १९२४ को पैदा हुए विवेकी राय २१ नवंबर २०१६ को विदा हो गये . ' एकाध 
दिन ' का हेर फेर कोइ मतलब होता है का ? पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक ' महकौवा ' जिला गाजीपुर (अरसे तक गाजी पुर गुलाबजल
  और केवडा जल का उत्पादन केन्द्र  रहा है , ) के एक ठेठ गाँव में पैदा हुए विवेकी राय की जिन्दगी 
बहत खुरदुरी रही . विवेकी राय के पैदा होने के डेढ़ महीना पहले इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी . माँ ने अपने मायके में इन्हें पाला , बड़ा किया और समाज की 
बोलियों ने विवेकी राय को बचपन से ही जिम्मेदार बना दिया . मिडिल तक की पढाई करके विवेकी राय प्राइमरी के अध्यापक बन गये . यहाँ से विवेकी 
राय के पीठ चिपका ' बेचारा ' खुद को गड़ने लगा . इस एक फांस ने हौसला दिया . प्राइवेट परीक्षा देकर आगे बढ़ते गये . सामने माटी का दिया था , बगल में माँ 
का दुलार विवेकी पढ़ा रहे हैं विवेकी पढ़ रहे हैं ,और एक विवेकी राय उठ रहा है .  खुदमुख्तारी का यह जज्बा रंग लाया और विवेकी राय अपनी मोदार्रिसी भी बढाते गये .
 प्राइमरी से मिडिल , फिर इंटर कालेज , डिग्री कालेज और फिर स्नातकोत्तर महा विद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक . लेकिन यह सब बड़ी आसानी नही हुआ 
बहुत जद्दोजेहद से चलती है जिन्दगी .प्राइमरी पास करते करते एक तूफ़ान  से उलझ गयी .तूफ़ान था गांधी का , सुराज का जलसा और जुलुस का 
 गाजीपुर अलग ऐसे रहता . गान्ही बाबा घर घर में कहानी 
की तरह कहे जा रहे थे . विवेकी का बाल मन कुतूहल के साथ गांधी जी के साथ हो गया . ज्यों ज्यों विवेकी राय बड़े होते गये , गांधी का विस्तार भी
 बढ़ता गया .विवेकी राय गांधी में डूबते  गये . खादी का पहनावा , सादगी से भरा जीवन , गाँव से लगाव सब गांधी से मिला , विवेकी तो बस वाहक रहे ,
 विनम्र , सचेत और संकोची भी . भाषा की कोइ कशमकश उनके पास नही है , पैदा ही दो भाषा में हुए हैं , एक माँ से दुसरी माटी से . हिंदी और भोजपुरी 
दोनों भाषाओं को कांख में दबाये विवेकी राय बगैर किसी आडम्बर और अहंकार के संवाद करते रहे . एक दिन अचानक विवेकी राय 'इज्जतदार ' हो गये 
यह उस जमाने की बात है जब इज्जतदार की ओअरिभाषा कत्तई दूसरी थी . किसी भी तरह के छल प्रपंच से दूर , पर हित की भावना , सादगी का जीवन 
खादी का लिबास , आँख पर मोटा चश्मा , साइकिल भी तो थी ,विवेकी भाई इलाके में इज्जतदार हो गये . भोजपुरी भाषा में बहुतकम शब्द होंगे जिनकी 
कोइ सीमा तय हो . इसके  शब्द आजाद परिंदों की तरह उड़ान भरते हैं , इलाका उसमे से एक है . यह भूगोल नही है .यश और भाव की धारा है .
 कल तक गाँव बहुत सोच समझ कर इज्जतदार की पदवी देता था. यह पदवी पहला काम करती है उसके असल नाम को इज्जत में लपेट देती है और 
एक उपनाम दे देती है . अब विवेकी राय मास्टर साहब हो गये . पर गाँव , वो भी भोजपुरी ? बगैर लय ताल और संगीत के ? चुनांचे अब मास्साब चल पड़े 
मास्साब की तीन लत थी . खैनी , बीडी और तम्बाकू . चाहते तो महगा शौक पाल सकते थे ,लेकिन तब गाँव से टाट बाहर हो जाते . लेकिन इतना सब क्यों 
बता रहा हूँ ? हम उनके लिखे पर बहस चला सकते थे , उन्ही के बहाने हम खुद गंभीर बन सकते थे लेकिन फिर हमारे पाठक को विवेकी राय के लेखन 
का मर्म न मिल पाता . एक उदाहरण देखिये . मनबोध की डायरी , . उन दिनों देश आजाद हुआ था समस्याए सामने थी . गाँव भिउस्से अछूता नही था .
पूर्वी उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा अखबार रहा ' आज ' . मनबोध की डायरी नियमित पढ़ी जाती थी . सच कहा जाय तो गाँव मनबोध के साथ ताल दे रहा था 
गाजीपुर में भी मनबोध सिद्दत के साथ खोज खोज के पढ़े जा रहे थे लेकिन खुद गाजीपुर को नही मालुम रहा की ये मनबोध मास्टर है कौन  ? एक वाकया 
जिसे खुद विवेकी राय बताते थे , गाजीपुर की एक सडक जिससे होकर विवेकी राय कालेज जाते थे , टूट चुकी थी बीच बीच में इतने बड़े गड्ढे हो चुके थे 
की उसमे भैंसे भी नहा लें . मनबोध मास्टर की डायरी के हिस्से में उस सडक का जिक्र करते हुए , विवेकी राय ने सडक को नया नाम दिया '  भैंसा लोटन '
सडक . जिस दिन आज अखबार में यह चिट्ठी छपी उसके दुसरे दिन से ही उसपर काम शुरू हो गया . विवेकी राय रुके और बोले इतनी जल्दी काम शुरू 
हो गया ? ठेकेदार ने बताया की साहेब ! कोइ मन बोध मास्टर हैं जिन्होंने मंत्री जी को चिट्ठी लिख दिया था , विवेकी राय कुछ बोले नही चुपचाप
 आगे निकल गये .
विवेकी राय ने भोजपुरी के अलावा हिंदी में भी बहुत कुछ लिखा है , उपन्यास ,कहानियां , कविता और निबन्ध . और आहूत ही अच्छा लिखा है ,लेकिन 
भोजपुरी ने जिस तरह विवेकी राय ऊपर उछाला वह तामुम्र उसका एहसान मानते रहे . ललित निबंध की चर्चा चलती है तो हिंदी जो दमदार नाम सामने आते हैं 
वे सब इसी माटी की उपज हैं , आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , पंडित विद्यानिवास मिश्र ,डॉ शिव प्रसाद सिंह कुबेरनाथ राय , निश्चित रूप से इ बड़े नाम हैं 
विवेकी राय थोड़ा अलग दीखते हैं , इनमे माटी की खुशबु है , भाषा इ सरल रवानी है ,सीधे सपाट ढंग से कथ्य को कह जाते हैं , बगैर कोइ पांडित्य बघारे 
विवेकीराय की सबसे बड़ी ताकत वह पाठक है जो भूखा भी है और सुस्वादु भी . लेकिन यह पाठक गंवई और नगरी दोनों सभ्यताओं में विभक्त होने
के बावजूद विवेकी राय की और लपकता जरूर है . 
   विवेकी राय याद किये जांयगे जब साहित्य अपने आपको समेट कर , सिमट कर केन्द्रीयकरण के खूंटे  में बाँध लेगा तो कहा जायगा एक छुट्टा फ़कीर 
गाँव में खडा गान की भाषा में सबसे बोल बतिआय रहा है और पुनह विकेंद्री करण की लहर चलेगी . अभी कल की बात है साहित्य के मुहाने विकेन्द्रित 
थे , काशी , प्रयाग , लखनऊ  में ऐसे फलते फूलते दरख्तों से ताजा हवा निकलती थी और लोग सीखने को आतुर रहते थे . तरह तरह के साहित्य , 
उनकी अलग अलग तासीर , महक , लिए समाज की नब्ज पर उंगली रख देते थे , केन्द्रीयकरण ने सब बराबाद किया है . लेकिन यह दीप जलता मिलेगा . 
अलविदा मास्स्साह्ब !
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भाउकता मन को कितना संचालित करती है एक छोटा सा उदाहरण 
विवेकी राय को तीन लत थी . बीडी , खैनी और तम्बाकू . ३० जनवरी ४८ को महात्मा गांधी की ह्त्या हुयी . खबर गाजीपुर पहुंची . लोग बताते हैं 
वह दिन उनकी जिन्दगी का सबसे उदास दिन रहा . दिन भर कमरे में बैठे रोते रहे , अचानक अपनी तीनो लतों को खिड़की से बाहर फेंक दिए 
और फिर कभी पलट कर उधर नहीं देखे . 



Monday, January 16, 2017

अलविदा ओम
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चंचल
प्रसिद्द फिल्म निर्माता , रंगमंच निदेशक और ओम पूरी के साले भाई रंजित कपूर का एक छोटा सा सन्देश मिला कि ओम पूरी  नही रहे . पल भर के लिए एक शून्य पसर गया. अभी कुछ दिन पहले हम लोंगों ने फोन पर बात की थी .और टी हुआ था एक गंभीर फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार की जाय जो खांटी राजनीति से जुडी हो और उसके अंदरुनी खांचे को उजागर करती हो .अभी हाल में भाई रंजीत कपूर की एक फिल्म ' जय हो डेमोक्रेसी ' आई है . ग्रुशा कपूर निहायत जहीन कलाकार है और उतनी ही बेहतर खुशमिजाज इंसान .ग्रुशा से हमने उत्तर प्रदेश में टैक्स माफी के लिए जिक्र किया की मुख्यमंत्री के सलाहकार हैं मधुकर जेटली उनसे मिलो . बात हो गयी है . इसका जिक्र इसलिए  लिए जरूरी है  लोग यह जान लें की फ़िल्मी दुनिया का यह दूसरा कपूर परिवार  है जहां सब के सब एक से बढ़ कर एक कलाकार हैं . ओम पुरी इसीपरिवार से जुड़े रहे हैं . सीमा कपूर रणजीत भाई की बहन है . रणजीत कपूर , अनिल कपूर जो अब फिल्मो में अन्नू कपूर के नाम से जाने जाते हैं सगे भाई हैं . बहरहाल आइये देखते हैं एक कलाकार की निजी जिन्दगी जो उसके फ़िल्मी चरित्र को भरपूर मदद करते हैं .
     दुनिया का सबसे बड़ा प्रयोग हो रहा है , गो की इस तरह की संगीन और संजीदा रचनाओं पर इसके पहले भी फिल्म बन चुकी है लेकिन यह अद्भुत प्रयोग था . कहानी - मुंशी प्रेमचंद / निदेशक - सत्यजित राय / कथा - सद्गति /कलाकार - सब एक दुसरे पर भारी . मोहन अगासे , ओम पुरी. स्मिता पाटिल . अछूत ओम पूरी अछूत है , यह बताने केलिए  किसी वाह्य आडम्बर की जरूरत नही पडी , उसके बैठने का अंदाज , चेहरे का भाव सब उसके अपने अन्दर से आ रहा था . ओमपूरी की निजी जिन्दगी अभाव , और तिरश्कार से गुजरी है . कोयला बेचा है , मामा के घर से बाहर निकाला गया चोरी और चम्चोरी का आरोप लगा कर .निजी अनुभवों के जखीरे पर खडा ओम फिल्मों में बेहतरीन मोड़ देता है . ७० के रंगीन ,सजे संवेरे चेहरे जहा राजेश खन्ना , अमिताभ बच्चन , जितेन्द्र का बोलबाला हो , उसके समानांतर रंगमंच से आये 'लौंडों ' ने नई लकीर खींच दी . नशीर , कुल भूषण खरबंदा , पंकज कपूर , राजेश विवेक , अन्नू कपूर , ओम पुरी . बहुत से नाम हैं . लेकिन जो गहराई ओम में रही वह शायद ही किसी में , एक साथ और एक मुश्त हो .हास्य की एक नई परिभाषा दी है ॐ ने . एक वास्तविक घटना का जिक्र करना चाहूँगा जहां रंगमंच और जिन्दगी सिम्त कर एक हो गयी है . करुणा है , अभाव है , राजशाही है . ठहाका है . दिल्ली के पूसा रोड पर दुसरे तल पर एक कमरा किराए पर लेकर बज्जू भाई (कलाकार , निदेशक  राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक रहे , आज कल बंबई में हैं और फिल्मों से जुड़े हैं हमारे निहायत हिआत्मीय ) और ओमपुरी साथ साथ रहते थे . फाकामस्ती के दिन थे . एक दिन अल सुबह पता चला की दोनों में  किसी के भी पास  इतने पैसे नही हैं की वे मंडी हाउस ( बंगाली मार्केट )  तक पहुँच जायं और दोस्तों से उधार लेकर जिन्दगी को आगे बढायें . इतने में नीचे से कबाड़ी की आवाज आयी . ओम ने बालकनी से कबाड़ी वाले को आवाज दिया और वह ऊपर आ गया . खाली बोतलें . अखबार वगैरह मिला कर कुल बहत्तर रूपये हुए /कबाड़ी ने सौ रूपये निकाला और बोला छुट्टा तो नही है , आपके पास हो तो दे दीजिये . ॐ  ने जोर का ठहाका लगाया और बोले - उस्ताद ! वही तो दिक्कत इधर भी है . सौ सौ के ही नोट हैं . तुम ऐसा करो नेचे चले जाओ . चार अंडा , एक मक्खन , एक ब्रेड और एक पाकिट दूध लेलो , छुट्टा हो जायगा .कह कर ॐ बैठ गये दाढी बनाने .कबाड़ी वाले ने जाते जाते पूछ लिया -साब ! ये बोरा नीचे लेता जाऊं ? बज्जू भाई ने फराकदिली से कहा - बिलकुल ले जाओ भाई , और ज़रा जल्दी लौटना . आगे का किस्सा मत पूछिए . याद आता है तो अब भी हंसी आती है /
      ओम से हमारे रिश्ते उतने बेबाकी से नही रहे जैसा की और लोंगों के साथ . उसकी एक वजह थे जब हम दिल्ली के हुए तो ओम पुरी और राज बब्बर ने अपना कार्यक्षेत्र पंजाब बदल लिया था . लेकिन गाहे ब गाहे मुलाक़ात होती रहती थी . ओम का इस तरह अचानक जाना अखर गया .
सादर नमन दोस्त .
राहुल गांधी और अखिलेश ; सियासत की बिसात पर .
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चंचल 
  शतरंज से वाकिफ नही हैं , तो मियाँ ! सियासत में दखलंदाजी मत करिए . और अगर आप कत्तई सियासतदां नही हैं और शतरंज के खिलाड़ी हैं तो अपने झरोखे से बैठ कर  जंगलात में खेले जा रहे सियासी चाल पर यह तो बोल ही सकते हैं की कौन पैदल सही चला है , कौन पैदल  रानी के लिए अर्दभ में खडा होरहा है. अब जरा उत्तर प्रदेश का मौक़ा मुआइना करिए . पिछले दो दशक से भी ज्यादा हुआ यह प्रदेश दो अतिवादियों के बीच लत्ते की गेंद बना कभी इस पाले में ,कभी उस पाल्हे में लुढ़क रहा है . इनकी खामियों को अभी देखने का वक्त नही है , अभी तो महज यह भर जान लेना जरुरी है की इन दो सरकारों का चरित्र क्या रहा है ? राजनीति और विशेषकर जनतंत्र में दो ऐसे कारक तत्व होते हैं जो सबसे पहले तंत्र को ही समाप्त करते हैं . एक है बाहुबल और दुसरा धन बल . विडंबना यह की जो अपने आपको , वंचितों , दलितों , मजबूरों और मजलूमों के नेतृत्व का  दम भरते रहे और उनके कंधे पर बैठ कर धन उगाही करते रहे , उनके लिए समाज का यह वंचित हिस्सा महज वोट बन कर रह गया है . दुसरी तरफ बाहुबल सियासत में स्थापित होकर समाज को खोखला बनाता रहा . इनके यहाँ स्थापित सत्ता का केवल एक मतलब रहा लूट और तिजारत .उत्तर प्रदेश इन्ही डोके बीच पिस रहा था , ऐसे दो राष्ट्रीय पार्टियों ने उत्तर प्रदेश की तरफ मुह घुमाया . १४ के संसदीय चुनाव में भाजपा कोमिली जीत ने उसके सपने को फैलाने के लिए अच्छी खासी जमीन दी लेकिन मुद्दे कहाँ से लाये जाँय ? जनता के बीच जाने के लिए भाजपा के पास कोइ ठोस नारा तक नही है . सिवाय इसके की वह समाजवादी सरकार के खिलाफ 'गुंडा राज ' ख़त्म करने का वायदा करे . ( समाजवादी सरकार पर गुंडई का मुलम्मा चढ़ाना , सामान्य बात रही  है )  लेकिन इस बार भाजपा वह भी नही बोल पा रही हा क्यों की जातीय वोट के चक्कर में उसने अन्य पिछड़ों में से जिसे प्रदेश का अध्यक्ष बनाया है उस पर दर्जनों अपराधिक मामले दर्ज हैं . ऐसे में भाजपा केवल कहीं क ईंट कहीं क रोड़ा  जोड़ घटा कर कुनबा तैयार करने में लगी है . 
अब आती है कांग्रेस .मुख्यधारा की एक मात्र पार्टी . तकरीबन साथ साल तक हुकुमत करने के बाद कांग्रेस आहिस्ता आहिस्ता यथास्थितवाद की ओर झुक गयी है . अजगरी परम्परा में बैठी कांग्रेस खुद नही हिलती , जब उसका इंजन हिलता है तो यह वहीं से बैठे बैठे हुंकार मारती है . उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जायका लें तो पच्चीस साल में कांग्रेस ने सदन में या सडक पर ऐसा कुछ किया हो जो जनता से जुड़ कर देखा गया हो .इसके दो अध्यक्ष , एक सलमान खुर्शीद और दुसरे निर्मल खत्री ऐसे रहे जिनसे कुछ उम्मीद बनाती थी लेकिन  इनकी मजबूरियां भी कमाल की रही . केंद्र एक अध्यक्ष ही नही देता रहा , साथ में भांति भांति के तत्व भी लटका देता था , (अभी भी यह  जारी है ) अब अध्यक्ष सूबे के कांग्रेसी कोदेखे या जो गौने में पालकी के साथ आये हैं ? नतीजा यह हुआ की नये चेहरों की भारती ही नही हुयी और जो पुराने थे वे ठस , जस के तस  कभी इस कमिटी में कभी उस कमेटी में घूमते रहे . आज राज बब्बर जब कांग्रेस अह्यक्ष बन कर लखनऊ आये तो नौजवानों में एक नई उर्ज्वा का संचार हुआ क्यों की राज बब्बर के काम का तरीका परम्परागत कांग्रेसी तरीके से अलग रहा है . संघर्ष और मुद्दों पर टकरा कर नये नये चेहरों की खोज और उसकी शिक्षा जिससे राज आये हैं यहाँ भी धीरे धीरे भोथरी हो रही है . ऐसे में अगर राज बब्बर जोखिम लेकर अपने निर्णय पर अड़े तो निश्चित रूप से कांग्रेस फायदे में रहेगी .जहां तक राहुल गांधी या सोनिया गांधी के हस्तक्षेप की बात है ये दोनों ही किसी के काम में हस्तक्षेप नही करते , जब तक की कोइ बड़ा हादसा न हो जाय . अगर राज इस डगर पर चले तो संभव है आगामी दो साल में कांग्रेस ५२ की स्थिति में पहुँच जायगी . 
उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में अखिलेश और राहुल गांधी के गठबंधन की जाजा हवा के झोंके की जनता कोइंत्जार है . अरसे बाद यह चुनाव होने जा रहा है जो धनात्मक होगा ,  ऋणात्मक नही . बहुत दिनों बाद जनता जाति , धर्म , लिंग  अर्थ , बाहुबल , धन बल  आदि  सारी दीवारों को भसका कर , अपने उम्मीद को वोट करने का मन बना लिया है . यह चुनाव एक तरफ़ा भी जा सकता है . 


Friday, January 6, 2017

अनुपम अब नही लौटेंगे

अनुपम अब नही लौटेंगे
चंचल
     हममे रत्ती भर वो कुछ होता , जो मिल मिला कर अनुपम को गढ़ता है तो निश्चित  रूप से हम ऐलानिया कहते कि हम अनुपम के दोस्त रहे हैं . लेकिन अनुपम भाई की एक और बड़ी खूबी रही है उन्होंने ने अपने सामने वाले को कभीभी अपने पैमाने से कभी किसी को  नहीं मापा , बल्कि  उसे राग के अनुपात से अपने पास आने को सम्मोहित किया .गाँधी का यह सलीका बहुत सारे गांधीवादी भी नही समझ सके ,लेकिन अनुपम भाई इस सलीकोको इस  तरह अपना रखा था जैसे खादी को अपनाया था . चुनांचे उनके दोस्तों , प्रशंसकों , उनके  कार्य कलाप में रूचि रखने वालों यहाँ तक कि उनके पाठकों को एक सहज और सरल दोस्त मिलता रहा . अनगिनत तादात है .और सबसे बड़ी बात की वे जिस काल खंड पर खड़े थे उसके बर अक्स पुरानी , तार्किक और स्थायी समाधान देने के लिए , न कभी उत्तेजना व्यक्त किये न ही उत्तेजक भाषा या आचरण को स्वीकारा . खामोश ,सटीक और सार्थक विचार और कर्म देते रहे . आजीवन . गांधीवादी परिवार की परवरिश  का नतीजा रहा की जब देश का युवा वर्ग बदलाव की भूख लिए सडक पर लड़ रहा था , वर्धा में पैदा हुआ एक नौजवान पहाड़ पर चंडी प्रसाद भट्ट के साथ पेड़ से चिपक कर खडा हो गया . यह समय की बात है जब देश पर्यावरण के टूटते और भासकते बवंडर से वाकिफ ही नही रहा . यह ७० का कालखंड है . चिपको आन्दोलन की शुरुआत में जो गिने चुने नाम आते हैं उसमे सबसे कम उम्र के जिस नौजवान कोलोग आदर से गोहराते हैं , वह है अनुपम मिश्र .
 अनुपम मिश्र में कौन अनुपम बड़ा है , खोजना दिक्कत देता रहेगा . पत्रकार ,लेखक , सम्पादक , जल और जंगल का सजग पहरुआ , यहाँ तक की एक इंसान ? गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के ठीक पीछे महावत खान रोड पर हम रहते थे , घर से निकल कर दरियागंज जाने के लिए हमे गांधी शान्ति प्रतिष्ठान की दीवार से होकर जाना पड़ता था . अनुपम भाई से अक्सर वहीं मुलाक़ात होती रहती थी . एक दिन बातचीत के दौरान अचानक अनुपम भाई ने कहा -  हम हरित क्रान्ति के नाम पर फिसल गये हैं . इसकी भरपाई होने में बहुत मेहनत और उससे ज्यादा वक्त लगेगा . वक्त के पहले कहा गया उनका आकलन अब तो सामान्य बात हो गयी है ,लेकिन उस समय हम समझने  से चूक गये . अनुपम भाई का पत्रकार और अध्यापकी मुद्रा बगैर लाग लपेट के सीधे सपाट भाषा में मिली . आज तक गाँठ बाँध कर रखा हूँ . पहली बार किसान की सहज और सटीक  परिभाषा सुन रहा था . किसान सीधा होता है , सहनशक्ति अपार है , भविष्य के बारे में धनात्मक सोच रखता है , निराश नही होता . जमीन और जल उसकी पूंजी है , हरित क्रान्ति ने अधिक अन्न उपजाओ के नारे और कृतिम उपायों से किसान को बर्बाद कर दिया . हुकुमत किसी की रही हो लेकिन वह गुलाम नही था . उसके पास जमीन थी , अपनी खाद थी , जो जानवरों से मिलती थी , उसके पास अपने संसाधन थे . खेत की सिंचाई के अपने संसाधन थे , आपस में सामूहिकता का जीवन दर्शन था सब बिखर गया . किसान को कर्जदार बनाया गया , खेती के उपकरण खरीदने के लिए , सिंचाई के लिए . हवा रोशनी और पानी पर सब का बराबर अधिकार था , आज सब बिक रहा है , किसान कर्जदार हो गया . बात समझ में आनेवाली थी . आ गयी . वक्त के पहले जमीन जंगल और जल की कीमत और कूबत आंकने वाले भाई अनुपम  एक आन्दोलन छोड़ कर गये हैं , आ अब लौट चलें . शुरुआत आज नही तो कल करनी ही होगी और उस दस्तावेज पर पहली दस्खत दिखेगी - अनुपम मिश्र की .
जल श्रोत के हमारे जितने भी पारंपरिक संसाधन थे , एक एक के विलुप्त हो रहे हैं इसका असर क्या हो रहा है सर्व विदित है . हम कब तक दैविक आपदा बोल कर मुह छुपाते रहेंगे . कभी तो सचेत होकर सगुण डगर पर चलना पडेगा . पोखरा , कुंवा , नदी नाला , हल बैल की जोताई , बगैर अंग्रेजी खाद का अन्न आज का बड़ा सवाल है . अनुपम भाई उन सवालों का हल दे चुके हैं , बस  उसे स्वीकारने की जरूरत है . अभी इसी संस्थान से एक अद्भुत किताब छपी है ,- जल थल मल . अद्भुत पुस्तक .
वक्त जितना खराब होगा , अनुपम भाई आपकी उतनी ही जरूरत बढ़ेगी .
सादर नमन , अनुपम भाई . 

अलविदा ओम

अलविदा ओम
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चंचल
प्रसिद्द फिल्म निर्माता , रंगमंच निदेशक और ओम पूरी के साले भाई रंजित कपूर का एक छोटा सा सन्देश मिला कि ओम पूरी  नही रहे . पल भर के लिए एक शून्य पसर गया. अभी कुछ दिन पहले हम लोंगों ने फोन पर बात की थी .और टी हुआ था एक गंभीर फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार की जाय जो खांटी राजनीति से जुडी हो और उसके अंदरुनी खांचे को उजागर करती हो .अभी हाल में भाई रंजीत कपूर की एक फिल्म ' जय हो डेमोक्रेसी ' आई है . ग्रुशा कपूर निहायत जहीन कलाकार है और उतनी ही बेहतर खुशमिजाज इंसान .ग्रुशा से हमने उत्तर प्रदेश में टैक्स माफी के लिए जिक्र किया की मुख्यमंत्री के सलाहकार हैं मधुकर जेटली उनसे मिलो . बात हो गयी है . इसका जिक्र इसलिए  लिए जरूरी है  लोग यह जान लें की फ़िल्मी दुनिया का यह दूसरा कपूर परिवार  है जहां सब के सब एक से बढ़ कर एक कलाकार हैं . ओम पुरी इसीपरिवार से जुड़े रहे हैं . सीमा कपूर रणजीत भाई की बहन है . रणजीत कपूर , अनिल कपूर जो अब फिल्मो में अन्नू कपूर के नाम से जाने जाते हैं सगे भाई हैं . बहरहाल आइये देखते हैं एक कलाकार की निजी जिन्दगी जो उसके फ़िल्मी चरित्र को भरपूर मदद करते हैं .
     दुनिया का सबसे बड़ा प्रयोग हो रहा है , गो की इस तरह की संगीन और संजीदा रचनाओं पर इसके पहले भी फिल्म बन चुकी है लेकिन यह अद्भुत प्रयोग था . कहानी - मुंशी प्रेमचंद / निदेशक - सत्यजित राय / कथा - सद्गति /कलाकार - सब एक दुसरे पर भारी . मोहन अगासे , ओम पुरी. स्मिता पाटिल . अछूत ओम पूरी अछूत है , यह बताने केलिए  किसी वाह्य आडम्बर की जरूरत नही पडी , उसके बैठने का अंदाज , चेहरे का भाव सब उसके अपने अन्दर से आ रहा था . ओमपूरी की निजी जिन्दगी अभाव , और तिरश्कार से गुजरी है . कोयला बेचा है , मामा के घर से बाहर निकाला गया चोरी और चम्चोरी का आरोप लगा कर .निजी अनुभवों के जखीरे पर खडा ओम फिल्मों में बेहतरीन मोड़ देता है . ७० के रंगीन ,सजे संवेरे चेहरे जहा राजेश खन्ना , अमिताभ बच्चन , जितेन्द्र का बोलबाला हो , उसके समानांतर रंगमंच से आये 'लौंडों ' ने नई लकीर खींच दी . नशीर , कुल भूषण खरबंदा , पंकज कपूर , राजेश विवेक , अन्नू कपूर , ओम पुरी . बहुत से नाम हैं . लेकिन जो गहराई ओम में रही वह शायद ही किसी में , एक साथ और एक मुश्त हो .हास्य की एक नई परिभाषा दी है ॐ ने . एक वास्तविक घटना का जिक्र करना चाहूँगा जहां रंगमंच और जिन्दगी सिम्त कर एक हो गयी है . करुणा है , अभाव है , राजशाही है . ठहाका है . दिल्ली के पूसा रोड पर दुसरे तल पर एक कमरा किराए पर लेकर बज्जू भाई (कलाकार , निदेशक  राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक रहे , आज कल बंबई में हैं और फिल्मों से जुड़े हैं हमारे निहायत हिआत्मीय ) और ओमपुरी साथ साथ रहते थे . फाकामस्ती के दिन थे . एक दिन अल सुबह पता चला की दोनों में  किसी के भी पास  इतने पैसे नही हैं की वे मंडी हाउस ( बंगाली मार्केट )  तक पहुँच जायं और दोस्तों से उधार लेकर जिन्दगी को आगे बढायें . इतने में नीचे से कबाड़ी की आवाज आयी . ओम ने बालकनी से कबाड़ी वाले को आवाज दिया और वह ऊपर आ गया . खाली बोतलें . अखबार वगैरह मिला कर कुल बहत्तर रूपये हुए /कबाड़ी ने सौ रूपये निकाला और बोला छुट्टा तो नही है , आपके पास हो तो दे दीजिये . ॐ  ने जोर का ठहाका लगाया और बोले - उस्ताद ! वही तो दिक्कत इधर भी है . सौ सौ के ही नोट हैं . तुम ऐसा करो नेचे चले जाओ . चार अंडा , एक मक्खन , एक ब्रेड और एक पाकिट दूध लेलो , छुट्टा हो जायगा .कह कर ॐ बैठ गये दाढी बनाने .कबाड़ी वाले ने जाते जाते पूछ लिया -साब ! ये बोरा नीचे लेता जाऊं ? बज्जू भाई ने फराकदिली से कहा - बिलकुल ले जाओ भाई , और ज़रा जल्दी लौटना . आगे का किस्सा मत पूछिए . याद आता है तो अब भी हंसी आती है /
      ओम से हमारे रिश्ते उतने बेबाकी से नही रहे जैसा की और लोंगों के साथ . उसकी एक वजह थे जब हम दिल्ली के हुए तो ओम पुरी और राज बब्बर ने अपना कार्यक्षेत्र पंजाब बदल लिया था . लेकिन गाहे ब गाहे मुलाक़ात होती रहती थी . ओम का इस तरह अचानक जाना अखर गया .
सादर नमन दोस्त .