Friday, January 6, 2017

अलविदा ओम

अलविदा ओम
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चंचल
प्रसिद्द फिल्म निर्माता , रंगमंच निदेशक और ओम पूरी के साले भाई रंजित कपूर का एक छोटा सा सन्देश मिला कि ओम पूरी  नही रहे . पल भर के लिए एक शून्य पसर गया. अभी कुछ दिन पहले हम लोंगों ने फोन पर बात की थी .और टी हुआ था एक गंभीर फिल्म की स्क्रिप्ट तैयार की जाय जो खांटी राजनीति से जुडी हो और उसके अंदरुनी खांचे को उजागर करती हो .अभी हाल में भाई रंजीत कपूर की एक फिल्म ' जय हो डेमोक्रेसी ' आई है . ग्रुशा कपूर निहायत जहीन कलाकार है और उतनी ही बेहतर खुशमिजाज इंसान .ग्रुशा से हमने उत्तर प्रदेश में टैक्स माफी के लिए जिक्र किया की मुख्यमंत्री के सलाहकार हैं मधुकर जेटली उनसे मिलो . बात हो गयी है . इसका जिक्र इसलिए  लिए जरूरी है  लोग यह जान लें की फ़िल्मी दुनिया का यह दूसरा कपूर परिवार  है जहां सब के सब एक से बढ़ कर एक कलाकार हैं . ओम पुरी इसीपरिवार से जुड़े रहे हैं . सीमा कपूर रणजीत भाई की बहन है . रणजीत कपूर , अनिल कपूर जो अब फिल्मो में अन्नू कपूर के नाम से जाने जाते हैं सगे भाई हैं . बहरहाल आइये देखते हैं एक कलाकार की निजी जिन्दगी जो उसके फ़िल्मी चरित्र को भरपूर मदद करते हैं .
     दुनिया का सबसे बड़ा प्रयोग हो रहा है , गो की इस तरह की संगीन और संजीदा रचनाओं पर इसके पहले भी फिल्म बन चुकी है लेकिन यह अद्भुत प्रयोग था . कहानी - मुंशी प्रेमचंद / निदेशक - सत्यजित राय / कथा - सद्गति /कलाकार - सब एक दुसरे पर भारी . मोहन अगासे , ओम पुरी. स्मिता पाटिल . अछूत ओम पूरी अछूत है , यह बताने केलिए  किसी वाह्य आडम्बर की जरूरत नही पडी , उसके बैठने का अंदाज , चेहरे का भाव सब उसके अपने अन्दर से आ रहा था . ओमपूरी की निजी जिन्दगी अभाव , और तिरश्कार से गुजरी है . कोयला बेचा है , मामा के घर से बाहर निकाला गया चोरी और चम्चोरी का आरोप लगा कर .निजी अनुभवों के जखीरे पर खडा ओम फिल्मों में बेहतरीन मोड़ देता है . ७० के रंगीन ,सजे संवेरे चेहरे जहा राजेश खन्ना , अमिताभ बच्चन , जितेन्द्र का बोलबाला हो , उसके समानांतर रंगमंच से आये 'लौंडों ' ने नई लकीर खींच दी . नशीर , कुल भूषण खरबंदा , पंकज कपूर , राजेश विवेक , अन्नू कपूर , ओम पुरी . बहुत से नाम हैं . लेकिन जो गहराई ओम में रही वह शायद ही किसी में , एक साथ और एक मुश्त हो .हास्य की एक नई परिभाषा दी है ॐ ने . एक वास्तविक घटना का जिक्र करना चाहूँगा जहां रंगमंच और जिन्दगी सिम्त कर एक हो गयी है . करुणा है , अभाव है , राजशाही है . ठहाका है . दिल्ली के पूसा रोड पर दुसरे तल पर एक कमरा किराए पर लेकर बज्जू भाई (कलाकार , निदेशक  राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक रहे , आज कल बंबई में हैं और फिल्मों से जुड़े हैं हमारे निहायत हिआत्मीय ) और ओमपुरी साथ साथ रहते थे . फाकामस्ती के दिन थे . एक दिन अल सुबह पता चला की दोनों में  किसी के भी पास  इतने पैसे नही हैं की वे मंडी हाउस ( बंगाली मार्केट )  तक पहुँच जायं और दोस्तों से उधार लेकर जिन्दगी को आगे बढायें . इतने में नीचे से कबाड़ी की आवाज आयी . ओम ने बालकनी से कबाड़ी वाले को आवाज दिया और वह ऊपर आ गया . खाली बोतलें . अखबार वगैरह मिला कर कुल बहत्तर रूपये हुए /कबाड़ी ने सौ रूपये निकाला और बोला छुट्टा तो नही है , आपके पास हो तो दे दीजिये . ॐ  ने जोर का ठहाका लगाया और बोले - उस्ताद ! वही तो दिक्कत इधर भी है . सौ सौ के ही नोट हैं . तुम ऐसा करो नेचे चले जाओ . चार अंडा , एक मक्खन , एक ब्रेड और एक पाकिट दूध लेलो , छुट्टा हो जायगा .कह कर ॐ बैठ गये दाढी बनाने .कबाड़ी वाले ने जाते जाते पूछ लिया -साब ! ये बोरा नीचे लेता जाऊं ? बज्जू भाई ने फराकदिली से कहा - बिलकुल ले जाओ भाई , और ज़रा जल्दी लौटना . आगे का किस्सा मत पूछिए . याद आता है तो अब भी हंसी आती है /
      ओम से हमारे रिश्ते उतने बेबाकी से नही रहे जैसा की और लोंगों के साथ . उसकी एक वजह थे जब हम दिल्ली के हुए तो ओम पुरी और राज बब्बर ने अपना कार्यक्षेत्र पंजाब बदल लिया था . लेकिन गाहे ब गाहे मुलाक़ात होती रहती थी . ओम का इस तरह अचानक जाना अखर गया .
सादर नमन दोस्त .

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