Tuesday, June 5, 2012

राजनीति में 'इच्छाशक्ति' और ' जोखिम '....मर चुकी है .
बिहार की ताजा घटना क्रम में एक बहस जारी है -बिहार की बीमारी और उसका इलाज .'काफी हाउस ' में पंकज श्रीवास्तव और संदीप् वर्मा ने जो सवाल उठाये हैं उसी पर विस्तार चाहता हूँ .
      बिहार को 'जातीय' कटघरे में खड़ा किया जा रहा है ,हमने असहमति जताई .......भट्टाचार्या ने इसका जिक्र किया है , सतही तौर पर देखा जाय तो सच भी लगता है लेकिन यह सच नहीं है .यह उसी तरह की बात हुई जैसे किसी के पैर में काँटा चुभा हो और उसे लंगड़ा मान लिया जाय .बिहार की 'तबियत' उसकी तमीज ,तहजीब बड़े 'दिल' की रही है .देश का कोइ भी भाग उसके मुकाबले में नहीं खड़ा हो सकता .अगर बिहार जाति  के कटघरे में कैद रहता तो एक मंग्लोरियन क्रिश्चियन जार्ज फर्नांडिस लगातार बिहार से न जीतते .एक महाराष्ट्रियन ब्राह्मण मधु लिमये बार बार बांका से न चुने जाते ,एक सिंधी जे. बी. कृपलानी .को बिहार संसद तक नहीं पहुचाता .( ख़याल रखियेगा हमने जिनका और जिन क्षेत्रों का जिक्र किया है यह कास्मोपालिटन शहरी इलाका नहीं है धुर गंवई इलाका हैं ) जबलपुर के हमारे दोस्त शरद यादअव आज तक उसी बिहार से जीत रहें हैं .बिहार पुरुषार्थ को अपनाने वाला सघन प्रदेश है .उसने जाति तोड़नेवाले दो बेहतरीन मुख्यमंत्री दिए हैं -कर्पूरी ठाकुर और चचा अब्दुल गफूर .लेकिन आज सियासत ही ऐसे बौने और नपुंशक नेतृत्व (?) की रखैल हो गयी है की उसमे किसी नयी पौध की सोच ही बेमानी लगती है .
   पंकज जी और संदीप भाई ने नेतृत्व में 'इच्छा' शक्ति और जोखिम का जिक्र किया है .यहाँ इंदिरा गांधी का जिक्र हुआ .की किस तरह इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीय करण किया प्रिविपर्ष को समाप्त किया ....हमें लगा की यह सही वक्त है और सही समय भी की हम इस 'जोखिम 'के इतिहास को भी खंगाल लें .आजादी के बाद कांगेस के अंदर जमे बैठे समाजवादी कांग्रेसी खेमा इन्ही मुद्दों को लेकर मुखर था ,नेहरु इस खेमे के साथ थे लेकिन पटेल  जिनका संगठन पर सबसे ज्यदा पकड़ थी ,के सामने नेहरु मुखर नहीं होते थे .बापू समाजवादियों के पक्षधर हो चुके थे .( गांधी के ही सुझाव 'कांग्रेस का अध्यक्ष किसी समाजवादी को बनाओ ' पर आचार्य कृपलानी अध्यक्ष बने थे ,गो की बापू का कहना था आचार्य नरेंद्र देव को बनाया जाय ) अचानक गांधी की ह्त्या हो गयी .और समाज्वादीबे बाप के हो गए . नेहरु की कोशिश रही की समाजवादी वापस आजाय .१९५२ के चुनाव ने समाजवादियो को और भी निराश किया .१९५४ में जे .पी.ने नेहरु को एक चौदह सूत्रीय प्रोग्राम भेजा .. जिसमे जमीन का बटवारा ,बैंकों का राष्ट्रीयकरण ,प्र्विपर्स की समाप्ति आदि आदि शामिल रहा .इन कार्य क्रमों से सहमत होने के बावजूद नेहरु उसे कार्य समिति यक नहीं ले जा सके ,जिसे १९६९ नेकीराम कांग्रेस में इंदिरा गांधी ने उठाया और पार्टी टूट गयी .( सच यह है की इंदिरा गांघी को पार्टी से बाहर कर दिया गया एक तरफ कामराज ,निजलिंगप्पा .नीलम संजीव रेड्डी .चंद्रभानु गुप्त .यस के पाटिल मोरार जी भाई एक तरफ और पान्म्च समाजवादियों-चंद्रशेखर,मोहन धरिया ,कृष्णकांत ,अर्जुन अरोड़ा ,और रामधन के साथ इंदिरा गांधी .लेकिन अपने प्रस्ताव पर इंदिरा गांघी डटी रही और महज चुनाव ही नहीं जीती राजनीति का बिसात ही पलट गया ..आज बिहार को एक दमदार नेतृत्व की जरूरत है लेकिन आज बिहार क्या समूचा देश ही 'दुम दारों 'की जेब में है .. फिर भी हम निराश नहीं हैं ..

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