Wednesday, August 29, 2012

तोरी बोलिया  सुने कोतवाल .... 
......फेस बुक मकड जाल में उलझ गया है .'दलित ' अम्बेडकर ,तरह तरह के देवी देवता , अनाप सनाप गरियाना , .... ( हम इसके विरोध में नहीं हैं दोस्त .. जिंदगी कातने में यह मकड जाल बेहतरीन तरी का है ) मै निकल आया गाँव ..... पूर्वी उत्तर प्रदेश चेरा पूंजी हो गया है .दो पहर तक गर्मी , दोपहर बाद उमस के बीच पुरवाई और फिर बारिश का झोंका..  रात में गुलाबी ठंढ .चारों तरफ हरियाली .मोर की पिहक .मेढक की बदमासी .रात भर टर्र टर्र उसके झींगुर की सारंगी ... कोइराने में झूला पड़ा है .धुप्प अन्धेरा है .कजरी झूले के साथ आरोह और अवरोह पर झूल रही है .मोटू उकसाता है .कजरी देखने चलोगे ? देखने कि सुनने ? .... बदतमीज ...लोकगीत केवल 'कर्ण ग्राही ' ही नहीं होता इसमें  ' चाछासु सुख ' की महक भी होती है ... गंदे ! तुम शहर में रहते रहते नर्कभोगी हो चुके हो .संगीत सुख से वंचित हो .यह जो लोक कला है संगीत है यह 'क्लासिकल मुजिक ' की मा है . डूब चुके शब्दों का जखीरा पड़ा है ... ' नह्कै' लाये गवनवा ... सुने हो ? निदिया ' बैरन ' भई ... तुम नकली परिमार्जित भाषा में कूदते रहो प्यारे लेकिन रस तो लोक में ही है .आज कविता में बुद्धि नाथ मिश्र जी हैं जो चुन चुन कर इन शब्दों को कविता में टाँक रहें हैं .... चलो माटी की महक में चलो .. लेकिन अंधेरी रात ... ? क्यों डरता है . आदमी से ज्यादा खतनाक कोइ जानवर नहीं होता .. इसके पदचाप से ही सब बगल हो जाते हैं ... हम चल पड़े मोटू ने मेरा हाथ पकड़ा हुआ है .मुलायम घास की झुरमुट ,गीली जमीन की फिसलन ,गंधराज की महक , मकई के खेत से गुजरते हुए दो जोड़ी इन पैरों ने महसूस किया कोइ दो  आवाजें सावधानी से खिल खिला रही हैं .मोटू ने मेरे मुह पर हाथ रख दिया .खींच कर आगे ले चला ....व्यतिक्रम मत पैदा करो .. ये दो दिल हैं ..
        काले  दैत्याकार नीम के पेड पर झूला ऊपर आसमान तक जा रहा है ..वापसी में नव यौवना मुग्धाओं की चीत्कार से भर जाता है . नीचे सेआवाज आती है  और .. और .. हमें खुसरो की  फुसफुसाहट सुनाई पड़ती है .. ' झूला किन्ने डाला रे .. अमरइयां .. झूले मोरा सैयां लू मै बलईयाँ.... ' मोस्ट इराटिक सांग '.. मोटू चिकोटी काटता है .. चुपचाप सुनो ... ज्ञान मत बघारो .. ' रिम झिम बरसे कारी बदरिया .. पीया घर नाही ... प्रकृति के लास्य को कालिदास ने जिया था ? या किसी दूसरे के अनुभव को बांटा था ? अबूझ पहेली है . लेकिन ऋतु संहार अमर कृति है .... 'दामिनी चमके '.. जियरा हुलसे ..../ हम लौट आये हैं .लेकिन कजरी अभी भी बदन को भिगो रही है .अमराई के झूले की तरफ बढ़ता हूँ .. बिस्तर से गिरते गिरते बचा , नीद खुल गयी .. मोटू के हाथ में काली काफी का प्याला है - बदतमीज ... बहुत बिगड गए हो .. चलो उठो .. पेंटिंग बनानी है .. 

1 comment:

  1. sunder , baramda aur usme is andaz mein khade rehana... wah `mar hee dalo ge `
    Chanchal ji bahut achcha laga.

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