Monday, August 20, 2012

साहेब बंदगी .......
कल त्रिलोचन जी का जन्मदिन था .
सब कुछ मिला त्रिलोचन जी को लेकिन बहुत देर से .मै बनारस छोड़ कर दिल्ली आचुका था ,' दिनमान में ट्रेनी था .एक दिन प्रयाग शुक्ल जी ने बताया कि कल त्रिलोचन जी से मिलने जाना है .हमने पूछा -बनारसवाले त्रिलोचन जी ? बोले हाँ वही .और बात खत्म हो गयी .इतने में सर्वेश्वर जी  ने हमें बताया कि तुम दफ्तर से घर जाते समय शीला जी से मिलते जाना  उनका फोन आया था .( उन दिनों शीला संधू राजकमल प्रकाशन की मालकिन थी  और मोहन गुप्त करता धरता ..) राज कमल पहुचा तो मोहन जी ने रोक लिया ,आओ चाय पीया जाय अभी शीला जी त्रिलोचन जी से बात कर रही हैं .... अचानक शीला जी ने मोहन जी को बुलवाया , मै बगैर कुछ बोले सीधे शीला जी के  कमरे में नमूदार हो गया .वहाँ एक साथ तीन 'घटना ' घटी .शीलाजी ने का यह कहना कि त्रिलोचन जी ये चंचल जी हैं बहुत बड़े....... और त्रिलोचन का उत्तर देना  ' को नहीं जानत है ...' और बदले में हमने कहा साहेब बंदगी ....पूरा कमरा सहज हो गया .दरिया गंज से मंडी हाउस तक का सफर पैदल ही कटा .रास्ते में कई तरह की चर्चा चली .उस दिन मंडी हाउस के श्री राम सेंटर में त्रिलोचन जी की कथा उन्मुक्त भाव से चली .अब मै बनारस चलता हूँ ....
     बनारस में  गो दुलिया चौराहा पर एक तांगा स्टैंड हुआ करता था .अभी भी है शायद .वहाँ बुधिराम की किताब की दूकान हुआ करती थी ,त्रिलोचन जी का अड्डा था यह तांगा स्टैंड .कहनेवाले तो यहाँ तक कहते थे कि अगर त्रिलोचन जी का पता खोजना हो तो तांगा स्टैंड चले जाओ .एक दिन एक बंगाली ' भ्रमरी ' ( बंगाल से जो यात्री काशी लाभ लेने आते थे उन्हें कुछ मनचले भ्रमरी ही कहते थे और यह नाम भी त्रिलोचन जी का दिया हुआ था ) एक दिन हम गोपाली के पान की दूकान पर खड़े थी कि एक भ्रामरी जत्था तांगे की तलाश में भौचकियाया इधर उधर आँखे दौड़ा रहा था कि अचानक  चकाचक बनारसी मुह में पान घुलाये उनके मदद में उतर गए ...' का तलाश रहें आप जन .....तांगा  ?... उधर खम्भे के पास चले जाइए पूरब की तरफ .. वहीं एक तांगा होगा .. हटा कट्टा भ्रमरी उधर बढे  तब तक चकाचक अपनी बात पर जारी रहें ,....खसखसी दाढ़ी ,खादी का फटा हुआ मोटा कुर्ता ,चौड़ा  माथा ,, लंबी बाहें  सरपट चाल ....किसी ने टोका आजकल गांधी पर बतियाते हैं त्रिलोचन जी ...
      त्रिलोचन जी की सांझ तांगा स्टैंड से अस्सी और अस्सी से गोदौलिया ,गोदौलिया से अस्सी तक  बीतती थी . लोगो की जिज्ञासा ,प्रश्न ,कुतूहल ,शंका सब का समाधान चलते फिरते होता था .श्रोता बदलते रहते थे और त्रिलोचन जी चलते रहते थे ....हमने त्रिलोचन जी के बहुत सारे स्केच बनाए है .आज त्रिलोचन जी नहीं हैं लेकिन हिन्दी का अरस्तू जिन्द्दा रहेगा ..

1 comment:

  1. त्रिलोचनजी के आपके आंके इन अमूल्य स्केचों को ब्लॉग पर छापिए - जनता की मांग है ।

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