Saturday, August 11, 2012

सवनवा में ना जईबे ननदी 
 बादल...मेघ ..
भारतीय साहित्य का ओढ़ना -बिछौना है .नाम नहीं गिनाउंगा .लोक साहित्य .लोकगीत ,लोक कथा बादल और बदरी के बीच खींची पतली लकीर के मर्म को उजागर कर देती है .बादर 'घिरते ही ' पृथ्वी व्याकुल  हो जाती है .और पहली फुहार ? प्रफुल्लित धरती की सुगंध  जिसे नहीं सुहाया उसकी जिंदगी  अकारथ .सस्य श्यामला पृथ्वी धानी चूनर ओढ़ लेती है .ऋतु संहार में काली दास ने मुग्धाओं के ग्व्याकुल मन का जिक्र किया है .दामिनी की तड़क  प्रेमी युग्म को चिपटा देता है .नई नवेली दुल्हन आयी है .मायके में झूला पड़ा है ,भाई बुलाने आया है .वह अपने प्रेमी के साथ रहना चाहती है .अपनी ननद से कहती है -चाहे रिसिआयं चाहे कोहाय ,सवनवा में ना जईबे ननदी . गिरिजा देवी कजरी गा रही हैं ..मै अपने बरामदे में बैठा हूँ . पुराने घर के खपरैले मुडेर पर काली कजरारी बदरी चढी बैठी है ... गाँव की खुशबू से सराबोर ...मोटू अनार के दाने निकाल कर ,आँखों में बदरी फैलाए है .....

5 comments:

  1. साधुवाद आपको सर..
    लफ़्ज़ों से बनी मधुर भावनाओं की आपकी ये सावन की दुनिया निश्चित तौर पर बहुत ही मीठी सी अनुभूति जगाती है,
    सर हम रसिकों के लिए इसका थोडा सा और विस्तार करें.....
    एक बोल याद आ गए अचानक आपका लेख पढने के उपरान्त........'' कईसे खेलय जैइबू सावन मे कजारिया, बदरिया घिर आयी ननदी ''
    जय हिंद

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  3. सावन/ चौमासा सुकारथ हुआ,
    ऊसर को भी हरिया देता है,
    और फिर कजरी का आनंद -
    'घरवा में से निकरीं ननद भउजइया, जुलुम जोरी दूनो -----

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  4. सर, गिरजा देवी के गाये इस कजली का लिंक भी लगा देते तो हम भी सुन पाते.. मधुर गीत और भादों में सावन की फुहारें....

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  5. जी आप आज की आधुनिक तकनीकियों के माध्यम से लोक को मुख्य धारा में रखे हैं इसलिए लोक आपका ऋणी रहेगा !

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