Monday, September 9, 2013

गेस्टहाउस कांड का जवाब .............
            ... यह एक अधेड़ का हलफनामा है जिसे वह अपने होश व हवास के साथ दाखिल कर रहा है . उनवान है उसकी जवानी के किस्सों का जिसके चलते वह परेशान रहा और खुश भी . बात है ७७ की . वह दो साल की जेल यात्रा से लौट कर घर को आया था . उन दिनों उसका घर काशी विश्वविद्यालय था . डालमिया कमरा  ४०५ . तब तक विश्वविद्यालय में नए लोग आ चुके थे और जो पुराने थे वो जा चुके थे . एक दिन हमारे मित्र भाई राम कृपाल ( आजकल नवभारत टाइम्स के संपादक हैं ) आये और बोले कि आपको शुक्ला जी ( स्वर्गीय विनोद शुक्ला ) ने बुलाया है . उनदिनो शुक्ला जी कानपुर से 'आज ' दैनिक निकाल रहे थे . मै बगैर किसी को बताए कानपुर निकल गया . और छ महीने रहा . वहाँ की कथा बहुत बड़ी है उसे फिर कभी . यहाँ विश्वविद्यालय में छात्रसंघ का चुनाव घोषित हो गया . और देश में आम चुनाव . मै दिल्ली में मधुजी और जार्ज से मिला कि हमें भी टिकट मिलना चाहिए . शायद मिल भी जाता लेकिन इस बीच देबू दा ( स्वर्गीय देव ब्रत मजुमदार ,देश के सबसे चमकदार और संघर्षशील युवा नेता ) जार्ज और मधु जी से मिल कर उन्हें समझा चुके थे कि चंचल को विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव लड़ना है . मै जब जार्ज से मिला तो उन्होंने कुछ बोला नहीं , बस मुस्कुराकर बोले -तुम मधु जी बात कर लो . मधु जी से मिला तो उन्होंने दोटूक जवाब दिया . जाओ पहले छात्र संघ का चुनाव लड़ो . और मै चुप चाप कानपुर लौट आया . देबू दा ने विनोद जी से बात की कि उसे बनारस भेज दीजिए . विनोद जी तैयार नहीं थे . देबूदा ने राम कृपाल को पटा लिया . एक सांझ राम कृपाल ने हमें समझा बुझा कर बनारस लौटने को राजी कर लिया कि चुपचाप निकल जाइए मै विनोद जी को समझा दूंगा . और मै बनारस आ गया . 
      संघी घराने ने अपने सबसे मजबूत उम्मीदवार महेंद्र सिंह को मैदान में उतार दिया था . उन दिनों तक छात्र राजनीति में भी मतभेद तो रहते थे लेकिन मनभेद नहीं था . मै महेंद्र सिंह साथ साथ जेल भी काटे थे . आपातकाल में . हम दोनों अच्छे और बेबाक दोस्त भी रहे . चुनाव शुरू हो गया . विश्वविद्यालय का चुनाव आदर्श चुनाव होता है . आप अपनी बात कहिये पर न माइक लगेगा और न ही बाह्य आडम्बर का सहारा लिया जायगा . दो बार केवल आप माइक से प्रचार करेंगे .एक विश्वविद्याल प्रशासन अपने खर्चे पर एक मंच से सब उम्मीदवार को बोलने का मौक़ा देगी जहां लॉस स्पीकर लगता है . दूसरा विश्वविद्यालय के गेट पर . इस बीचैक आफत आ गयी . यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में ,एक कमरे में मै एक महिला मित्र के साथ बैठा काफी पी रहा था इसे संघियों ने देख लिया . यह एक मुद्दा बन गया . संघी चरित्र हनन की सारी भाषा जानते हैं . जो कुछ नहीं भी हुआ था सब का बखान ऐसे करते थे जैसे वे वहाँ कुर्सी लगा कर बैठे थे . देबू दा ने हमें बुलाया . वहाँ समाजवादी युवजन सभा के सारे कारीगर मौजू थे . मोहन प्रकाश , दींन  दयाल . राम बचन पांडे . देबू दा हत्थे से उखड गए - स्साले तुमने सब सत्यानाश कर दिया क्या जरूरत थी मोहब्बत करने की . और इस समय ? मै चुप रहा  हमने कहा कि मै जवाब दे लूंगा . रामबचन पांडे हमारे समर्थन में उतरे . मोहन जी चुप रहे . बहर हाल मामला तो बढ़ ही चुका था . जहां मै वोट मागने जाऊं 'गेस्ट हाउस ' पहले से मौजूद मिले . और मै एक ही बात बोलता था -'आखिरी मीटिंग जो लंका गेट पर होगी उसमे इसका जवाब दूंगा . नतीजा यह हुआ कि लंका की आख़िरी मीटिंग बहुत जबरदस्त हुई . उसके पहले यह रिवाज था कि उस आख़िरी दिन हर उम्मीदवार एक निश्चित दूरी पर माइक लगा कर प्रचार किया करते थे और वह मीटिंग ही तय कर देती थी कि कल के चुनाव में किसका पलडा भारी है ,लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ . विद्यार्थी परिषद ने एक दिन पहले ही अपनी सभा कर ली . सारे विश्वविद्यालय की निगाह हमारी सभा पर लगी हुयी थी . समूचा लंका खचा खच भरा हुआ था . लडकियां महिला विद्यालय की छत पर भरी पडी थी . हमारे मंच पर देबू दा के अलावा मोहन प्रकाश , राम बचन पांडे , नितीश कुमार वगैरह वगैरह सब रहे . 
        जब मेरा नाम बुलाया गया तो एक दम सन्नाटा . लंका के दुकानदार तक बाहर आ गए . वह हमारी जिंदगी का सबसे छोटा भाषण था . ..... 'आप सुनना चाहते हैं गेस्ट हाउस कांड .. आप सब नौजवान है .. कोइ एक नौजवान है जो किसी लड़की से दोस्ती करना नहीं चाहेगा ? कोइ हो हाथ उठा दे .. ' एक सन्नाटा पसर गया , अचानक तालियों की गडगडाहट से पूरा लंका भर गया . यह ताली सामने तो चुप हो गयी लेकिन महिला विद्यालय की छत से उठी तालियाँ बजती ही रही . मैंने आगे बोला -' लेकिन तीन हैं जिन्हें लड़किओं से दोस्ती नहीं पसंद है .. एक 'डेड बाड़ी ' दूसरे नपुंशक और तीसरे संघी .. आप हमें वोट दो या न दो लेकिन हम जमीज के हामी कभी नहीं हो सकते जहां पुरुषों का पुरुषों से सम्बन्ध जायज माना जा है .. ' चौतरफा तालिया बज रही थी , मै चुपचाप मंच पर खड़ा था एक शख्स रो रहा था वह थे देबू दा .. जब मै नीचे उतरा और देबू दा की तरफ बढ़ा तो तो वो गमछे से आँख पोंछ रहे थे और इतना ही बोले - स्साला फ्राड ...
         मोहन जी ने कहा पैदल चलो , लड़किया पुपर ताली बजा रही है उन्हें विष कर दो ...
( इस कथा को साहित्य में पढ़ना हो भाई काशी नाथ को पढ़ लीजिए जो उन्होंने विस्तार से 'हँस ' में लिखा है .
                                                                           जारी 

2 comments:

  1. दादा आपके लेक्चर को सुनने के लिए बी.एच.यू. प्रशासन के आला अधिकारी भी आये थे ..और सबने छुप के आपके भाषण को सुना था.....और आपकी इमानदारी पर आश्चर्यचकित हुए थे ......ये सारा किस्सा थोड़े बहुत फेर बदल के साथ हम सब ने सुना है .....सभी आपके भाषणों से सभी सम्मोहित थे.......

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  2. I regard ur genius mind chanchal uncle ji....koi political diplomacy aapse sikhe to achha rahega.......

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