Tuesday, September 10, 2013

मै कांग्रेस के साथ हूँ .........
....बार -बार हमसे यह जायज सवाल पूछा जाता है कि मै कांग्रस में क्यों हूँ , जब छात्र राजनीति के समय से ही मै समाजवादी 'आंदोलन ' से जुड़ा रहा और अपनी पहचान बनाई ? विस्तार में जाने से बचने के लिए हमने एक अंग्रेज विचारक जो आजीवन गांधी का समर्थक रहा उनके हवाले से एक जुमला सुना देता हूँ . -'अगर कोइ २५ साल की उम्र तक क्रान्ति की बात नहीं करता तो साझ लेना चाहिए कि उसमे कुछ दिमागी खराबी है , और ४० साल की उम्र के बाद भी वह क्रान्ति की बात करता है तो समझ लेना चाहिए कि ,निश्चित रूप से उसका दिमाग खराब है . '.आज थोड़ा विस्तार चाहूँगा . कांग्रेस और समाजवादी आंदोलन के रिश्ते वाकई दबे रह गए हैं . इसके पीछे हमारे तथाकथित 'इतिहासकारों ' का हाथ है . आप भारत की आजादी का इतिहास और आजादी के बाद का भारत देखें तो इतिहास कारों की कलई  खुलती है . दरअसल ये अनुवादक है . पश्चिमी लेखकों की सामग्री को अपनी भाषा देकर ये इतिहास की सपाट बयानी करते हैं . इधर जब से रामचंद्र गुहा ने इतिहास को कुरेदना शुरू किया है तब से नौजवानों में भी एक बेचैनी बढ़ी है . बहर हाल  मुल्क के बटवारे का ही इतिहास देखिये . बड़ी तकलीफ होती है जब यह एहसास होता है कि हम उस मुल्क के संभ्रांत शहरी है जिस मुल्क में आज तक 'बटवारे ' जैसे बड़े सवाल को लेकर दुविधा बनी हुई है कि बटवारे का जिम्मेवार कौन है ? इस विषय पर सबसे बड़ी खुराफात संघियों ने की है . गाँव- गाँव, घर- घर, जन जन तक इन्होने ' कनफुसिया प्रचार किया कि बटवारे का मूल 'अपराधी ' गांधी है . इससे उन्हें दो फायदा मिलता दिखाई दे रहा था . एक बटवारे के समय दिया हुआ उनका नारा "मुसलमानों भारत छोड़ो ' को भुला दिया जाय और बापू की ह्त्या की एक बड़ी वजह बापू के मत्थे मध् कर गोडसे को महिमा मंडित किया जाय . शुक्र है जाज के सूचना क्रान्ति का जिसने आज की पीढ़ी को असलियत बता रहा है . पर पूछता कौन है . भारत के अनुवादी इतिहासकारों ने दबी जुबान से बटवारे को गोलमटोल व्याख्या में लपेट दिया क्यों कि इनमे से तकरीबन सारे इतिहासकार 'प्रगतिशील 'यानी साम्यवादी रहे हैं . और भारत -पाक बटवारे को साम्यवादियों ने बकायदे प्रस्ताव पास करके बटवारे का समर्थन किया है .  इतना ही नहीं मुस्लिम लीग ने जब 'सीधी कार्यवाही ' का ऐलान किया और पूरे देश में क़त्ल ये आम शुरू हुआ तो कांग्रेस  गृह युद्ध के खौफ से दर गयी . इतना ही नहीं कांग्रेस का एक बड़ा बर्ग यह महसूस करने लगा कि यह अंग्रेजों के भारत से न निकलने की चाल है . इन दो तर्कों ने कांग्रेस को मजबूर किया कि वह लीग की माग को मान ले और बटवारे के फैसले को सहमति दे दे . और यही हुआ . मजे की बात यह कि गांधी जी इन सब से दूर रखा गया .
  सबसे गूढ़ रहस्य उस समय खुलता है जब कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक होती है . जिसमे बटवारे का फैसला होना है . उस समय बापू नोआखाली में थे . उन्हें बुलाया गया 'विशेष आमंत्रित ' की तरह . ( गांधी कांग्रेस के साथ आधिकारिक रूप से कुल सत्रह साल ही रहे . १९१७ में कांग्रेस के सदस्य बने और १९३४ में यह कह कर कांग्रेस से अलग हो गए कि जब भी कांग्रेस को मेरी जरूरत पड़े वह हमारी राय ले सकती है . यह बात दीगर है कि कांग्रेस को बापू के आख़िरी दिन तक राय की जरूरत पडी और वे देते रहे . ) बैठक में गांधी जी जब आये तो उनके बैठने का कोइ इंतजाम नहीं था . ( यह पहली और शायद आख़िरी बैठक थी जो कुर्सियों पर बैठ कर पूरी की गयी . वरना कांग्रेस की बैठक नीचे जमीन पर होती है और अद्ध्यक्ष के सामने एक मुनीम वाली डेस्क रख दी जाती है . ) आचार्य कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं . चादर ओढ़ कर सिर झुका कर बैठे हैं उनकी 'तबियत ' ठीक नहीं थी . गांधी ने आते ही सबसे पहले यही सवाल पूछा - इतना बड़ा फैसला ( बटवारे का ) आप लोगो ने ले लिया हमें बताया तक नहीं ? कोइ कुछ नहीं बोला . थोड़ी देर में पटेल ने कहा हम कहाँ से आपको बताते आप थे भी तो इतनी दूर . गांधी ने पलट कर पटेल को देखा . पटेल ने सिर झुका लिया . फिर नेहरू ने कहा - बापू हमने तो आपको 'इशारतन' बता दिया था . बापू झुंझला गए हमें कुछ भी नहीं बताया गया . बीच में जे.पी ने नेहरू को टोका -बापू गलत नहीं बोल रहे हैं . नेहरू ने जे पी को घुडक दिया .जे पी चुप हो गए . लेकिन लोहिया ने बड़ी बेबाकी से कहा - दोनों में कौन झूठ बोल रहा है यह सब को मालुम है . यहाँ लोहिया और नेहरू में पहली तकरार हुयी . बीच बचाव गांधी ने किया . और गांधी ने एक प्रस्ताव रखा - पहले अंग्रेज यहाँ से चले जाय हम बटवारे का फैसला कर लेंगे . कांग्रेस को यह फैसला और भी खून्खाराबेवाला लगा . 'गृहयुद्ध ' की आशंका ने कांग्रेस को मजबूर कर दिया कि गांधी का यह भी प्रस्ताव ना मंजूर हो गया . बहुमत पटेल के साथ रहा . (वे ही सबसे ज्यादा मुखर थे ) गांधी ने आखिरी प्रस्ताव रखा कि चलो बटवारे को मान लिया जाय लेकिन यह स्पष्ट कर दिया जाय कि कांग्रेस दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं मानती . आज भी कांग्रस अकेली पार्टी है जो दोराश्त्र के सिद्धांत के खिलाफ है .
     यहाँ यह जिक्र करदेना जरूरी है कि गांधी यहाँ आते आते अकेले हो गए है उनके साथ मुट्ठी भर समाजवादी है .डॉ लोहिया ,जय प्रकाश नारायण , आचार्य नरेंद्र देव , कृपलानी खान अब्दुल गफ्फार खान . इन तमाम असहमतियों के बावजूद गांधी उस कांग्रेस को नहीं तोड़ना चाहते थे जिसे उन्होंने सींच कर बड़ा किया था .
     इतिहास का यह हिस्सा हमने इस लिए उठाया कि आपको यह जानने में सुविधा हो जाय कि समाजवादी कांग्रस का एक हिस्सा रहा . नेहरू इसके नेता थे . पटेल और समाजवादियों के बीच यहाँ से तनाव बढ़ता है . नेहरू की दिक्कत थी कि वे संगठन में मजबूत नहीं थे ,संगठन पर पटेल का कब्जा था . लेकिन नेतृव के सवाल पर नेहरू से बड़ा कोइ दूसरा नहीं था , अ कद में ,न सोच में . यही वजह थी कि गांघी ने प्रधान मंत्री के लिए नेहरू का न केवल समर्थन किया अपितु जब उन्हें मालुम हुआ कि नेहरू और पटेल के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है तो बापू ने पटेल से इस्तीफा तक मांग लिया . अभी कम ही लोग जानते हैं कि ३० जनवरी को जिस दिन बापू की ह्त्या हुई पटेल अपना इस्तीफा बापू को देकर गुजरात के लिए रवाना हो गए थे . गांधी की ह्त्या की खबर उन्हें नडियाद में मिली और दिल्ली लत आये . उस इस्तीफे को नेहरू और पटेल के सामने वायसराय लार्ड माउंट बेटन ने फाड़ कर फेका और कहा अब आप दोनों मिल कर देश को देखिये अब तो बापू भी नहीं हैं .
      पतेल्वादियो और समाजवादियो के बीच बढ़ती दूरी ने पटेल को उकसाया कि यह सटीक समय है समाजवादियों को बाहर करने का . समाजवादी चाहते तो नहीं निकलते . लेकिन पटेल से जे पी आहत हो गए और उन्होंने निकले का फैसला ले लिया . जंतर मंतर (कांग्रेस कार्यालय ) की सीढ़ियों से उतारते समय डॉ लोहिया ने जे पी को रोका - नेहरू को देखा कितने उदास और अकेला महसूस कर रहे हैं चलो लौट चले . जेपी नहीं माने . तब लोहिया ने कहा -जेपी एक बात याद रखना आज अगर बाहर निकल ही रहे है तो फिर वापस आने का मन न बनाना . और समाजवादी बाहर निकल आये . यहाँ बहुत संक्षेप में उन मुद्दों का जिक्र कर दूं जिस पर पटेल और समाजवादियों के बीच असहमति थी . वह था -प्रिवीपर्स की समाप्ति , बैको का राष्ट्रीय करण , जमीन का बटवारा वगैरह जिसे इतिहास में 'चौदह सूत्रीय कार्यक्रम ' कहते हैं . मजे की बात यह कि १९६९ नेकीराम नगर कांग्रेस जिसमे इंदिरागांधी को कांग्रेस से बाहर निकाल दिया गया और कांग्रेस टूट गयी उसका कारण भी वही चौदह सूत्रीय कार्यक्रम था जिसे समाजवादियो ने बनाया था . इंदिरा गांधी इसके समर्थन में थी और तमाम यथास्थितवादी इसके विरोध में थे . इंदिरा गांधी के साथ जो अन्य पांच चंद्रशेखर, कृष्णकांत , मोहन धारिया ,रामधन और अर्जुन अरोड़ा निकाले गए सब के सब समाजवादी थे . कांग्रस इंडीकेट बनी और उसने सबसे पहले अपने 'चवन्निया रसीद ' (सदस्यता फ़ार्म ) पर अपने को समाजवादी घोषित करते हुए 'समाजवादी समाज बनाने के के लिए ' संकल्प लिया . वह आज भी उनके फ़ार्म पर दर्ज है .
       अंत में आज जब समाजवादी आंदोलन बिखर गया है , समाजवादी आंदोलन की जो मूल अवधारणा थी आज वह कांग्रेस की पूंजी है तो हमारे जैसे लोग कांग्रेस से परहेज क्यों करेंगे . 

1 comment: