Friday, October 11, 2013

१२ अक्टूबर डॉ लोहिया का निर्वाण दिवस
ज़िंदा कौमें पांच साल इन्तजार नहीं करती .....
चंचल 
      ५९ साल की उम्र में १२ अक्टूबर १९६९ को डॉ लोहिया का निधन हुआ . पूरा देश स्तब्द्ध रह गया . वह न किसी ओहदे  पर रहा , न ही उसकी चाह थी .आजादी की लड़ाई से निकला एक तपा तपाया सेनानी था और सारे बड़े ओहदेदारों से उसके रसूख रहे . वह गांधी का चहेता था ,नेहरू से दोस्ताना रिश्ते थे लेकिन उसकी सबसे बड़ी पूंजी उसकी अपनी शख्सियत थी जिसके सामने किसी की टिकने की हिम्मत नहीं थी . यह उसे गांघी से मिली थी . पूरे देश का जो दबा कुचला , मजबूर मजलूम था वह उसे अपना मानता था . शायद यही वजह थी कि जब डॉ लोहिया के मरने की खबर फ़ैली तो पूरा देश रो पड़ा . देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री  मती इंदिरागांधी डॉ लोहिया को कंधा देने के लिए खड़ी थी . उनके मंत्रिमंडल के कई  सदस्य डॉ लोहिया की अंतिम यात्रा में पैदल चल रहे थे . जे पी रो रहे थे और कवक एक वाक्य बोल पाए थे -राम मनोहर मुझसे दो साल छोटा था ' . शेख अब्दुल्ला को उनके अनुरोध पर जेल से लाया गया था .जिस समय वे शोक सन्देश लिख रहे थे रो रहे थे -कश्मीर तुम्हे सलाम करता है .' .गांधी के बाद शायद यह पहली मौत थी जिसे देश ने सिद्दत के साथ महसूस किया . केवल सियास्दान ही नहीं -साहित्य ,कला .संस्कृत सबको डॉ लोहिया ने एक साथ प्रभावित किया था . सबसे ज्यादा पत्रकारिता से जुड़े लोगों को .एक तरह से कहा जाय तो डॉ लोहिया ने पत्रकारिता को विषय ही नहीं दिया ,भाषा भी दी . नया मुहावरा दिया . आज सब इस यात्रा में शामिल हैं .
    डॉ लोहिया ६३ में पहली बार फरुक्खावाद से उप चुनाव जीत कर आये .और आते ही अपने पुराने दोस्त से टकरा गए . नेहरू को पहलीबार संसद में चुनौती मिली . ६३ में पहलीबार लोक सभा में नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव आया . यह परम्परा आज तक चल रही है . सबसे बड़ी जो बात हुई कि संसद की शक्ल बदल गयी .६३ के पहले संसद की कार्यवाही में हिन्दी न के बराबर है . यहाँ एक रोचक घटना का जिक्र करना चाहूँगा .जिस दिन पहलीबार डॉ लोहिया खड़े हुए बोलने के लिए उन्होंने हिन्दी में बोलना शुरू किया . पत्रकार दीर्घा में बैठे तमाम पत्रकार उठकर चले गए .केवल एक पत्रकार वहाँ मौजूद रहे ,वे थे रघुवीर सहाय .दूसरे दिन जब सहाय जी की रपट उनके पत्र में प्रकाशित हुई तो मजबूरन अंगरेजी अखबारों को उसका तर्जुमा लेना पड़ा . संसद का वह स्वर्णिम युग है . समाजवादी पार्टी के सासद में नेता है किशन पटनायक . उस समय चली हर एक बहस संसद की धरोहर है . विशेष कर तीन आने बनाम तेरह आने . जिस पर नेहरू को अपने वित्त मंत्री मोरारजी भाई की तरफ से माफी तक मागनी पडी है . इसी समय किशन पटनायक और पंडित नेहरू के बीच जो पत्र व्यवहार हुआ वह आज एक दस्तावेज है " ट्वंटी फाइव थाउजैंड ये डे'
          डॉ लोहिया संसद ही नहीं सड़क को भी गरम करने में यकीन रखते थे . भाषा आंदोलन आजादी के बाद उठा नौजवानों का पहला कदम था जिसने पूरे देश को झकझोर दिया . आज तक जो पीढ़ी सियासत में मायने रख रही है वो उसी काल खांड की उपज हैं दल कोइ भी रहा हो उसे अपनी कार्य शैली बदलनी पडी थी और नौजवानों को ऊपर उठाना पड़ा था . आज वह सब समाप्त है और सियासत संदूक और बन्दूक के हवाले है .
    केवल एक सवाल है क्या हम कोइ नयी और सार्थक शुरुआत कर सकते हैं ?
  डॉ लोहिया को नमन .
     
   

1 comment:

  1. "अंग्रेजी हिंदुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए पहुंचा रही है कि वह विदेशी है, बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामन्ती है "......लोहिया जी से बेहतर शायद ही इस बात को कोई कह सका और समझ सका . उनका यह कहना भी कि इस देश में लगभग सारे कार्य जैसे विधायिकाएं ,अदालतें ,प्रयोगशालाएं कारखाने तार रेलवे तथा लगभग सभी सरकारी संस्थाएं एक ऐसी भाषा में कार्य कर रहें हैं जिसे 99% जनता समझती ही नहीं है .........बात में दम था ...आज देश इसी का खामियाजा भुगत रहा है . अंग्रेजी भाषा न होकर सामाजिक प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गयी है ......

    ब्लॉग लिखने पर बधाई .........

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