Friday, January 16, 2015

हम कहाँ जा रहे हैं 
चंचल 
                 हिंदी पट्टी का एक शब्द और क्रिया रही है हांका .यह जंगल ,जीवन और जानवर से जुड़ा एक सामूहिक उपक्रम रहा है . जंगली जानवर का शिकार , उससे बचाव और उसे पाने के लिए लोंगों का एक दल जोर जोर से चीखते हुए ,हाथ में जो भी रहे उसे पीटते हुए एक साथ दौड़ते थे ,जिससे सारे जानवर डर कर भागते थे . और शिकारी उसका शिकार करता था . वन संपदा और जानवर सुरक्षा के नाम पर इस क्रिया को रोक दिया गया . सरकार ने इसे प्रतिवंधित कर दिया है . नयी सरकार ने इस हांका को अब सियासत में उतार कर समाज पर प्रयोग कर रही है . इसका रूप , आकार , भाषा और करतब को नए ढंग से प्रयोग कर रही है और सफल भी हो रही है . इसे सटीक भाषा दी जाय तो यह कहने में ज्यादा सुविधा होगी कि हम हांका के दौर से गुजर रहे हैं . इसका पहला और सफल प्रयोग संसद के चुनाव में देखा गया . एक हांका उठा . ठीक हाँका की तरह . क्या , क्यों , कौन , किधर जैसे तमाम वाजिब सवाल दर किनार हो गए और लोग दौड़ पड़े . जनतंत्र के मूल ढाँचे पर यह पहला और कारगर हमला था , जहा तर्क और सवाल बेमानी हो गए . और एक सरकार बन गयी. जब सब थिर हुआ और लोग पूछने लगे कि हम जिस हांका में शामिल थे वो तो दिखाओ . काला धन की वापसी , महगाई , बेरोजगारी ,भ्रष्टाचार वगैरह वगैरह  . ये सवाल अभी उठ ही रहे थे कि एक नया हांका आया . प्रधानमंत्री धन जमा योजना . सरकार ने कहा कि भागो बैक की  तरफ . हांका उठा कि - सरकार प्रत्येक खाते में लाखों रूपया डाल देगी और लोग रातों रात लखपति बन जायंगे . गो कि यह इस सरकार की मूल सोच का हिस्सा नहीं है . यह योजना मनमोहन जी के जमाने में ही लागू की जा चुकी थी लेकिन उसका नाम और सुविधा अलग थी . कि कोइ भी खाता धारक किसी भी राष्ट्रीय कृत बैंक से पांच हजार रूपये तक 'उधार ' ले सकता है . इस सरकार ने उसे हांका में डाल दिया .भीड़ भागी  बैंक की तरफ .खाते खुलवाने की होड़ में सारे करतब दिखाई पड़े . कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक इस हांके से तर हो गए . लछ्मीना कहारिन , बिरजू पंडित , लम्मरदार सिंह वगैरह जो इस हांके के जोरदार धावक रहे ,मुह बाए खड़े रह गए जब उनके सवाल - कि कितना पैसा आया खाते में ? का उत्तर यह मिला कि - कैसा पैसा ? इस में पैसा डालोगे नहीं तो आएगा कहाँ से ? दूसरा सवाल हांका में ठेले गए मजलूमों ने उठाया - सरकार ने हमारे खाते में कुछो नहीं डाला ? बैक ने घुडकी दी . यह सवाल सरकार से पूछो . सरकार का जवाब वही होगा जो काले धन की वापसी पर था -वजीरे तिजारत जनाब अरुण जेटली ने जो संसद में दिया था - सरकार ने कब कहा था कि वह कालाधन वापस लायेगी ? संसद खामोश हो गयी . यह सच है कि सरकार ने कभी नहीं कहा कि वह कालाधन वापस लायेगी . वो तो चुनाव का हांका था . चुनाव से पूछो . सरकार उसका क्या जवाब दे ?   
     अब इस सरकार ने समझ लिया है कि देश को जंगली करतब से कैसे चलाया जाय . इसके लिए उसके पास तरह तरह के कारकून हैं . कोऊ मुखहीन ,विपुल मुख काहू . आपने चुनाव के समय जो वायदे किये थे उसे टालने और उस अघोषित कार्यक्रम को लागू करने के लिए एक हांका लगा दीजिए बस . सवाल तो सवाल दबेगा अपने गुप्त कार्यक्रम लागू करने की पृष्टि भूमि बनेगी . उदाहरण देखिये - ' घर वापसी ' / ये हांका वो लगा रहे हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई के समय -मुसलमानों भारत छोड़ो ' का हांका लगाया था . उन्हें बेघर किया था . घर के नाम पर मुल्क तोड़ने में लीग की मदद की थी . मुल्क टूट कर आजाद हुआ . तोड़ने का अपराध इन पर न लगे ,इसके लिए सबसे पहले ' अखंड भारत ' की रामनामी ओढ़ कर सामने खड़े हो गए . आज भी उनकी कांख में विशुद्ध हिन्दू गोत्रवाद की कटार लटकी हुयी है . एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना है जिसमे मात्र हिंदू हों दूसरे नहीं . इन्हें अब मुसलमानों से कम ईसाईयों से ज्यादा खौफ है ,धर्म परिवर्तन के मसले पर . इस लिए ए एक बिल् लाना  चाहते हैं ,  कि धर्म परिवर्तन को पहले  रोका जाय . सरकार की यह पहली प्राथमिकता है कि वह एक क़ानून बनाने जिससे  आप अपनी चाहत का धर्म न चुन सकें . नागरिक अधिकार में कटौती .
   मुसलमानों के प्रति इनकी नाराजगी जग जाहिर है . उनकी बढ़ती आबादी से इन्हें चिंता होती है . उसे रोकने के लिए इनके हान्का बाजों ने पहले दस फिर पांच अब चार का नारा दिया है .आप इस हांके के साथ हैं या फिर विरोध में और जम कर अपने गुस्से का इजहार कर लीजिए फिर सरकार बीच में आयेगी और संतति क़ानून बना कर बता देगी कि आपको कितने बच्चेपैदा करना है . इस तरह के हांका बाजी से उनको दो फायदे मिल रहे हैं ,एक - जिन मुद्दों पर ये चुन कर आये हैं वो दरकिनार हो जायंगे और दूसरा ये अपनी गुप्त नियति को नीति की शक्ल देकर अगले हांके की तैयारी में व्यस्त हो जांयगे . क्यों कि इस सरकार के पास न तो कोइ दिशा है  जो आगे की तरफ ले जाय ,न ही कोइ व्यापक दृष्टि है जो देश को विकास की डगर पकड़ा सके . ' एक  नेता , एक झंडा , एक राष्ट्र ' इनका नारा ही नहीं सोच का मजबूत हिस्सा रहा है . ये उसी डगर पर हैं लेकिन एक बात भूल जाते हैं कि इस मुल्क में जनतंत्र और संवाद की निरंतरता जन जन तक पहुँच चुकी है. और वह इसे  धर्म के रूप में अख्तियार कर चुकी है . जो भी इसके विपरीत जा कर किसी और तंत्र की बात करेगा या उधर बढ़ेगा वह गर्त में जायगा . 
       इस देश का शासन तंत्र बहुदलीय है . और जनतंत्र के खांचे में है . बहु दलीय व्यवस्था में केवल सत्ता पक्ष ही ही तक सत्ता महदूद नहीं रहती . प्रतिपक्ष की भी भूमिका होती है . सदन एक मंच है जिस पर सवाल उठते हैं और उसका जवाब सरकार को देना पड़ता है . सदन में प्रधान मंत्री की ना मौजदगी इस बात की गवाह है कि सरकार मुद्दों पर बात करने से घबडा रही है . या उसके पास वाजिब जवाब ही नहीं है . इतना ही नहीं जितनी बार प्रधानमंत्री सदन में आये हैं उन्हें बार बार माफी ही मागनी पडी है . चाहे वह 'हरामजादा ' का सवाल हो या साक्षी महराज की बात . गो कि ये सब उल जलूल बातों के बीच से अपने को छिपा ले जाने का करतब प्रधानमंत्री भले ही खेल जायं लेकिन कब तक और कितनी बार ? .... और यह भी सच है कि प्रतिपक्ष अपनी भूमिका का निर्वहन भी उस तरह से नहीं कर पा रहा जिस तरह से होना चाहिए . जब देश का प्रधान मंत्री अपने मंत्री के बेहूदे वक्तव्य ( हरामजादे ) पर सफाई दे रहे थे तो उन्होंने दो बाते कहीं - एक कि कम पढ़ी लिखी हैं . चलिए यह पाच्य है क्यों कि हम जिस तरह की पढाई में उलझे पड़े हैं उससे कोइ गुणात्मक सोच विकसित नहीं हो  सकती . दूसरा तर्क निहायत ही भद्दा था जब नेता सदन यह कहे कि वे 'गाँव ' से आती हैं . मतलब साफ़ था कि गाँव के लोगों के पास एक असभ्य भाषा है . उनके पास बोलने की तमीज नहीं है . जब सदन की सच्चाई कत्तई अलहदा है . भारतीय समाज की सामाजिक बुनावट ही गांवन से शुरू होती है और गांवों पर जा कर टिक जातीहै . इतना ही नहीं संसद के जितने भी मुखर वक्ता हैं सब के सब गांवों के ही रास्ते से इस हवेली तक पहुंचे हैं . लेकिन एक भी कुर्सी से प्रतिवाद की आवाज नहीं उठी .
      प्रतिपक्ष ने निराश किया है . सबसे ज्यादा साम्यवादियों ने . मजदूर , किसान , मजलूम की बात करनेवाले साम्यवादियों की चुप्पी उनके किम्कर्ताव्य विमूढ़ की स्थिति बता रहा  है याफिर उनकी चालाकी . क्यों कि उन्हें भी जनतंत्र से , बहुदलीय व्यवस्था से , और विकेंद्रित सत्ता से परहेज रहा है ,यह बात दीगर है कि कुछ सूबों में उन्हें भी जनतंत्रीय व्यवस्था से गद्दी तक पहुचने की सुविधा मिल चुकी है . वे इस वक्त किसी ऐसे अवसर की तलास में हैं जो देश के जनतंत्र को कमजोर कर दे और इन्हें आगे बढ़ने में सहूलियत हासिल हो जाय . साम्यवादियों का यह चतुराई इन्हें बार बार मारता रहा है लेकिन ये अपनी आदत से बाज नहीं आते .४७ में अंग्रेजो की  तानाशाही का समर्थन इन दोनों ताकतों ने किया हुआ है . ७५ में आपातकाल का का भी समर्थन दोनों ने सार्वजनिक रूप से किया हुआ है . एक ने माफीनामालिख कर दूसरे ने खुला समर्थन देकर . मजे की बात यह कि जिस इंदिरागांधी ने तानाशाही क प्रयोग किया था उन्हों ने सार्वजनिक रूप से जनता सेमाफी माँगा लेकिन ये दोनों उसपर आज तक चुप्पी साधे  पड़े हैं . 
   अब प्रतिपक्ष की नहीं बल्कि जनतंत्र की हिफाजत की जिम्मेवारी कांग्रेस की बनती है . उसकी चुप्पी अखरती है .लेकिन अभी वक्त है कि वह संसद और सड़क को गरम करे और उन सवालों को उठाये जो देश की समस्या है . बेरोजगारी , महगाई , भ्रष्टाचार आदि . लेकिन यह ख़याल रहे कि सवाल भर उठा देना किसी सियासी  पार्टी का कर्तव्य भर नहीं है ,उसका निदान भी जनता के सामने रखती चले और उस पर जनमत को देखे . और यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इन सब स्मस्याओं का निदान केवल और केवल कांग्रेस के पास है बशर्ते वह अपनी दृढ इच्छा शक्ति से उसपर उतरे . उदाहरण के लिए ' दाम बाँधो ' ' फिजूल खर्ची पर रोक ' विकेंद्रित और कुटीर उद्योग ' 
२६ जनवरी कांग्रेस की बहुत पुरानी तारीख है . उसे नयी और परिमार्जित की जा सकती है क्या ? 

1 comment:

  1. bahut sundar vyakhya ki hai aapne --khair pakad to siyasat ki nabz ki aapko hai hi aap ko
    main to vaise hi prabhavit huun

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