Sunday, June 29, 2014

कालखंड पर लिखी इबारत .....
चंचल 
सत्तर और अस्सी दशक के बीच का काल खंड ,आजादी के बाद का स्वर्णिम काल है . सियासत , साहित्य . कला के उन्मुक्त निखार का उदय है . सामाजिक सरोकार से जुड़े जितने मुद्दे इस काल खंड पर उठते हैं वे ही आजतल किसी न किसी बहाने छाये हुए हैं . इसी काल खंड पर संसद और सड़क की आंच, गाँव गाँव,  घर घर ,और जन जन तक पहुचती है . देश, संसद को अपना आइना मान कर अपनी शक्ल देखता है .जब गरीबी और गैर बराबरी समाज से उठ कर संसद में जगह ही नहीं बनाती बल्कि संसद की अंग्रेजियत खीच कर सड़क का देसज सच अपने जद में ले लेता है . और इसकी शुरुआत होती है ६३ के तीन उप चुनाव के नतीजे के बाद . तीन उप चुनाव है , मुजफ्फरपुर , फरुक्खाबाद और जौनपुर . तीन दिग्गज चुनाव मैदान में हैं . मुजफ्फरपुर से जे बी कृपलानी , फरुक्खाबाद से डॉ लोहिया और जौनपुर से पंडित दींन  दयाल उपाध्याय . दो सीट प्रतिपक्ष के हाथ लगती है एक पर कांग्रेस जीतती है . मुजफ्फर पुर से कृपलानी , फरुक्खाबाद से डॉ लोहिया और जौनपुर से कांग्रेस के राजदेव सिंह जीत कर संसद में आते हैं . आजादी के बाद पहली दफा पंडित नेहरू सरकार के खिलाफ  अविश्वास का प्रस्ताव आता है . संसद में पहली बार हिन्दी गूंजती है . संसद में पहली  बार देश का मजबूर  , मजलूम , दबा कुचला किसान मेहनतकश मजूर अपने किस्से को सुनता है .वहाँ उसपर चर्चा होती है . डॉ लोहिया सरकार को अर्दभ में लेते हैं .  प्रति व्यक्ति औसत आमदनी के सवाल पर . तत्कालीन वित्तमंत्री मोरार जी रणछोड़जी देसाई कटघरे में खड़े होते हैं . पंडित नेहरू के प्रिय राम मनोहर (लोहिया ) नेहरू को चुनौती देते हैं - हिन्दुस्तान में प्रतिव्यक्ति आमदनी तीन आने है . बिट मंत्री झूठ बोल रहा है . वित्तमंत्री सत्रह आने से नीचे आते है तेरह आने पर अड् जाते हैं . डॉ लोहिया कहते हैं - अगर सरकार अपनी बात को सच साबित कर दे तो हम राजनीति से हट जायंगे और सरकार गलत हुयी तो अपने प्रधान मंत्री से कहो वो अपने पद से इस्तीफा दे दें . संसद सन्नाटे में है . यह पहली बार ऐसा हुआ है की पंडित नेहरू को खुली चुनौती मिल रही है . ' तीन आने बनाम तेरह आने ' नाम से बहुचर्चित यह बहस आज भी ज़िंदा है . ( राजनीति में दखल रखनेवाले हर शख्स को यह किताब -' लोक सभा में लोहिया ' पढनी चाहिए ) लोकसभा में चली यह बहस पुस्तक के रूप में छाप कर गाँव गाँव तक पहुचाई गयी . एक नई परम्परा की शुरुआत हुयी की उसका चुना हुआ प्रतिनीधि सासद में क्या बोलता है / जनता को यह जानकारी होनी चाहिए . ७७ के पहले और उसके बाद भी समाजवादियों ने इस परम्परा को चालू रखा . जनता और उसके चुने हुए प्रतिनिधि के बीच संवाद शुरू हुआ लेकिन अब लुप्त है . क्यों ? यह अलग का लेकिन महत्वपूर्ण सवाल  है जो सांसदों को उघार करेगा .आज देश को जरूरत है की वह अपने चुने हुए प्रतिनिधि से जवाब मागे .अगर यह नहीं हुआ तो संसदीय व्यवस्था चरमरा जायगी . 

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