Monday, January 16, 2017

राहुल गांधी और अखिलेश ; सियासत की बिसात पर .
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चंचल 
  शतरंज से वाकिफ नही हैं , तो मियाँ ! सियासत में दखलंदाजी मत करिए . और अगर आप कत्तई सियासतदां नही हैं और शतरंज के खिलाड़ी हैं तो अपने झरोखे से बैठ कर  जंगलात में खेले जा रहे सियासी चाल पर यह तो बोल ही सकते हैं की कौन पैदल सही चला है , कौन पैदल  रानी के लिए अर्दभ में खडा होरहा है. अब जरा उत्तर प्रदेश का मौक़ा मुआइना करिए . पिछले दो दशक से भी ज्यादा हुआ यह प्रदेश दो अतिवादियों के बीच लत्ते की गेंद बना कभी इस पाले में ,कभी उस पाल्हे में लुढ़क रहा है . इनकी खामियों को अभी देखने का वक्त नही है , अभी तो महज यह भर जान लेना जरुरी है की इन दो सरकारों का चरित्र क्या रहा है ? राजनीति और विशेषकर जनतंत्र में दो ऐसे कारक तत्व होते हैं जो सबसे पहले तंत्र को ही समाप्त करते हैं . एक है बाहुबल और दुसरा धन बल . विडंबना यह की जो अपने आपको , वंचितों , दलितों , मजबूरों और मजलूमों के नेतृत्व का  दम भरते रहे और उनके कंधे पर बैठ कर धन उगाही करते रहे , उनके लिए समाज का यह वंचित हिस्सा महज वोट बन कर रह गया है . दुसरी तरफ बाहुबल सियासत में स्थापित होकर समाज को खोखला बनाता रहा . इनके यहाँ स्थापित सत्ता का केवल एक मतलब रहा लूट और तिजारत .उत्तर प्रदेश इन्ही डोके बीच पिस रहा था , ऐसे दो राष्ट्रीय पार्टियों ने उत्तर प्रदेश की तरफ मुह घुमाया . १४ के संसदीय चुनाव में भाजपा कोमिली जीत ने उसके सपने को फैलाने के लिए अच्छी खासी जमीन दी लेकिन मुद्दे कहाँ से लाये जाँय ? जनता के बीच जाने के लिए भाजपा के पास कोइ ठोस नारा तक नही है . सिवाय इसके की वह समाजवादी सरकार के खिलाफ 'गुंडा राज ' ख़त्म करने का वायदा करे . ( समाजवादी सरकार पर गुंडई का मुलम्मा चढ़ाना , सामान्य बात रही  है )  लेकिन इस बार भाजपा वह भी नही बोल पा रही हा क्यों की जातीय वोट के चक्कर में उसने अन्य पिछड़ों में से जिसे प्रदेश का अध्यक्ष बनाया है उस पर दर्जनों अपराधिक मामले दर्ज हैं . ऐसे में भाजपा केवल कहीं क ईंट कहीं क रोड़ा  जोड़ घटा कर कुनबा तैयार करने में लगी है . 
अब आती है कांग्रेस .मुख्यधारा की एक मात्र पार्टी . तकरीबन साथ साल तक हुकुमत करने के बाद कांग्रेस आहिस्ता आहिस्ता यथास्थितवाद की ओर झुक गयी है . अजगरी परम्परा में बैठी कांग्रेस खुद नही हिलती , जब उसका इंजन हिलता है तो यह वहीं से बैठे बैठे हुंकार मारती है . उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जायका लें तो पच्चीस साल में कांग्रेस ने सदन में या सडक पर ऐसा कुछ किया हो जो जनता से जुड़ कर देखा गया हो .इसके दो अध्यक्ष , एक सलमान खुर्शीद और दुसरे निर्मल खत्री ऐसे रहे जिनसे कुछ उम्मीद बनाती थी लेकिन  इनकी मजबूरियां भी कमाल की रही . केंद्र एक अध्यक्ष ही नही देता रहा , साथ में भांति भांति के तत्व भी लटका देता था , (अभी भी यह  जारी है ) अब अध्यक्ष सूबे के कांग्रेसी कोदेखे या जो गौने में पालकी के साथ आये हैं ? नतीजा यह हुआ की नये चेहरों की भारती ही नही हुयी और जो पुराने थे वे ठस , जस के तस  कभी इस कमिटी में कभी उस कमेटी में घूमते रहे . आज राज बब्बर जब कांग्रेस अह्यक्ष बन कर लखनऊ आये तो नौजवानों में एक नई उर्ज्वा का संचार हुआ क्यों की राज बब्बर के काम का तरीका परम्परागत कांग्रेसी तरीके से अलग रहा है . संघर्ष और मुद्दों पर टकरा कर नये नये चेहरों की खोज और उसकी शिक्षा जिससे राज आये हैं यहाँ भी धीरे धीरे भोथरी हो रही है . ऐसे में अगर राज बब्बर जोखिम लेकर अपने निर्णय पर अड़े तो निश्चित रूप से कांग्रेस फायदे में रहेगी .जहां तक राहुल गांधी या सोनिया गांधी के हस्तक्षेप की बात है ये दोनों ही किसी के काम में हस्तक्षेप नही करते , जब तक की कोइ बड़ा हादसा न हो जाय . अगर राज इस डगर पर चले तो संभव है आगामी दो साल में कांग्रेस ५२ की स्थिति में पहुँच जायगी . 
उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में अखिलेश और राहुल गांधी के गठबंधन की जाजा हवा के झोंके की जनता कोइंत्जार है . अरसे बाद यह चुनाव होने जा रहा है जो धनात्मक होगा ,  ऋणात्मक नही . बहुत दिनों बाद जनता जाति , धर्म , लिंग  अर्थ , बाहुबल , धन बल  आदि  सारी दीवारों को भसका कर , अपने उम्मीद को वोट करने का मन बना लिया है . यह चुनाव एक तरफ़ा भी जा सकता है . 


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