Saturday, May 26, 2012

बाबर की औलादें -------
संघी घराने का कोइ लिखित दस्तावेज नहीहै ...लेकिन दर साल इनके कुछ उत्तेजक नारे निकल आते हैं और कुछदेर बाद खुद ब खुद मिट जाते हैं ,लेकिन इनके कमजर्फ रंगरूट उसे चलाते रहते हैं .इसी में से एक नारा निकला था 'बाबर की औलादें '.बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद यह नारा जूनून के साथ आया और चल पड़ा .बाबर इतिहास् से निकल कर खलनायक बन गया .और मुसलमान बाबर की औलाद .मै उस विषय में फिलहाल नहीं उलझना चाहता की भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास 'इतिहास बोध ' के साथ कब लिखा जायगा ? या अंग्रेजों के लिखे इतिहास का अनुवाद हमारे इतिहासकार करते चले जायंगे ? बाबर ने अपने बेटे हिमायुं को जो वसीयत दी है उसमे हिमायुं के लिए नसीहत भी है .'अगर भारत में हुकूमत करनी है तो यहाँ के सभी धर्मो का आदर करना होगा ' ( बाबर के इस वसीयतनामे का सबसे खूबसूरत तर्जुमा जयपुर से प्रकाशित पत्रिका 'अनौपचारिका' में  संपादक भाई रमेश थानवी प्रकाशित किया है उसे आप देख सकते हैं ) समूची मुग़ल सल्तनत बाबर के इस फरमान के साथ ही चली है .और उस सल्तनत ने अपने को कभी भी विदेशी नहीं माना .
     अभी एक खबर छपी है की भारत के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह मुग़ल सल्तनत के आख़िरी बादशाह और स्वतंत्रता सेनानी बहादुर शाह जफ़र के मजार पर चादर चढाने  रंगून जायंगे .कुल एक सौ पच्चास साल हुए बहादुर शाह जफ़र को मरे हुए .१८५७ के ग़दर के बाद बहादुर शाह जफ़र को गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया गया था और उनकी मौत भी वहीं हुई और वहीं दफना भी दिए गए ,
      इस बाबर की औलाद ने अपनी औलादों के कटे सिर अपनी आँखों से देखा था. जिसे अंग्रेजों ने कलम कर थाल में सजा कर बहादुर शाह जफ़र के पास भेजा था ...  तमाम तकलीफों के बावजूद वह अपने मुल्क से मोहब्बत करता रहा .नजरबंदी के दौरान बहादुर शाह जफ़र को लिखने के लिए कागद कलम तक नहीं दिया गया .कैदखाने की दीवार पर कोय्लेकी मदद से  जफ़र दर्ज होता रहा ...जफ़र साहब लिखते है ---पढ़ने फातिहा कोइ आये क्यों .कोइ चार फूल चढाने आये क्यों .कोइ एक शमा जलाए क्यों .मै वो बेकसी का मजार हूँ .अपनी बेबसी और अपने वतन से मोहब्बत जफ़र की रूह थीजो कहती है 'लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में  दो गज जमी भी न मिली कूए यार में .. उसकी आख़िरी तमन्ना है अपने वतन पर जीने के लिए नहीं ,न हुकूमत करने के लिए वह दफन होने के लिए अपने मुल्क में दो गज जमीन मांग रहा है ...'
     छ साल पहले उसी मजार के सामने फूल और मोमबती लिए लिए खड़ा एक शख्स बहादुर शाह जफ़र के सामने हाथ फैला कर कहता है .. जफ़र साहब यह बेकसी का मजार नहीं है अपने वतन की आजादी के लिए शहीद हुए एक सेनानी की मजार है .. इस पर फूल चढाने आया हूँ शमा जलाने आया हूँ ..भारत के करोड़ो लोंगो कीतरफ से आया हूँ .. यह थे भारत के पहले नागरिक डॉ कलाम .. राष्ट्रपति ... कल वही प्रधान मंत्री जा रहें है चादर चढाने ...
        बाबर की औलाद रंगून में सो रहा है .जश्न यहाँ मन रहा है इमारत ढहा कर 

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