एक पाव धूप ......
......उन दिनों काशी विश्वविद्यालय का दिल बड़ा हुआ करता था . गधे को गढ़ कर घोड़ा बनाना और उसे दौड़ में उतार देने का चलन था . आज उसके बरक्स है . अब तो उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो पीठ पर जींस और आँखों पर ठप्पा बंधे आते है और जो कुछ भी रहता है बेचारे उसे भी उतार कर बाहर चले जाते हैं . इन्तेरेंस ? प्रवेश हुआ नहीं कि परीक्षा पहले दे दो . यह कौन सा चलन है ? जब लड़का पहले से ही तैयार है तो मोटी रकम पर ऐश करनेवाले प्राध्यापक किस लिए हैं ? लेकिन तब ऐसा कुछ नहीं था . और उसी दौर में मै भी पहुचा था . उन दिनों प्रवेश के लिए दो रूपये का एक फ़ार्म मिलता था . पीआरओ आफिस से . और यह आफिस कुलपति निवास और रुइया छात्रावास के सामने हुआ करता था . हमने फ़ार्म तो ले लिया . मुतमईन होने की खुशी में वापसी का डगर भूल गया . आना चाहिए था 'सिंह द्वार ' की तरफ मै मुड गया 'हवाई अड्डे की तरफ ' मई की कड़क धूप पैदल का सफर . चलता रहा . इक्का दुक्का लोग दिखे लेकिन किसी से डगर पूछने की हिम्मत नहीं हुई और मै कई मील आगे निकल गया . विश्वनाथ मंदिर के पीछे एक पेड़ के नीचे एक आदमी मिला . जो हमारे गाँव के लोंगो से मेल खाता दिखा . घुटने तक की धोती और बंडी पहने बैठा सुस्ता रहा था . हम उसके पास जा कर रुके और पूछा -अभी लंका कितनी दूर है ? वह समझ गया . तुम गलत आ गए हो , लंका तो उसी तरफ है जिधर से आ रहे हो . ... बैठो सुस्ता लो . गर्मी बहुत है . अभी एक बस आयेगी विश्वविद्यालय की है उस पर बैठ जाना लंका छोड़ देगी पैसा नहीं लगेगा . ... पानी पियोगे ? वह उठा और बगीचे में चला गया वहाँसे एक लोटे में पानी और थोड़ा सा गुड़ लेकर आया . विश्वविद्यालय का यह पहला सबक था जिसे मैंने उस 'आदमी ' से सीखा . उसने हमें बस में बिठा दिया और मै लंका आ गया .
तींन साल बाद जब मै छात्र संघ का अध्यक्ष बना तो वह 'आदमी 'हमें याद आया . उसकी तलाश में मै कईबार उस जगह को देखा , दरियाफ्त किया लेकिन कुछ पता नहीं चला . एक दिन मैंने देबू दा ( स्वर्गीय देव ब्रत मजूमदार ) से पूछा कि उसका पता कैसे किया जा सकता है . चूंकी देबू दा चार्टों के ही नेता नहीं थे कर्मचारियों के भी नेता थे . दादा ने सुझाव दिया तुम सुरेन्द्र त्रिपाठी से मिलो वह खोज देंगे आजकल कर्मचारियों के अध्यक्ष वही हैं . सुरेन्द्र त्रिपाठी थे तो कम्युनिस्ट पर दोस्त बहुत अच्छे थे . उन्होंने कहा क्यों खोज रहे हो . हमने कहा उसने हमें कुछ 'उधार ' दिए हैं उसे लौटाना है . सुरेन्द्र जी ठहाका लगा कर हँसे , भाई यहाँ जितने भी लोग हैं सब के सब का कर्जदार तो मालवी जी रहे आज तक इनका कर्ज उतार रहे हैं . चाहे वी सी श्री माली हों या आपका दोस्त मलिक , इन सब ने मालवी जी को कर्ज दिया है ..... एक काम करो कल सेन्ट्रल आफिस आ जाना , ग्यारह बजे मालियों की मीटिंग है उसमे से पहचान लेना . एन वक्त पर मै गया और उस 'आदमी ' को पहचान लिया . शिव धनी राम . दूसरे दिन शिव धनी का तबादला केन्द्रीय दफ्तर से छात्रसंघ हो गया .
बात उन दिनों की है जब छात्रसंघ के कर्मचारियों की तूती बोलती थी .आज से शिव धनी छात्र संघ के माली थे . आहिस्ता आहिस्ता शिव धनी घुल मिल गए . पांडे जी जो कि चपरासी थे वहीं छात्रसंघ में रहते भी थे अब दो जन हो गए . बाकी स्टाफ ड्यूटी के बाद घर चला जाता था लेकिन शिव धनी और पांडे जी वहीं खाना बनाते और दिन भर की खबर ... एक दो के बाद .. आप से तुम पर उतर जाते .. मजूमदार......मार्कंडे के साथ काम किया हूँ ..वो ठीक नहीं है , पीठ पीछे तुम्हारी बुराई करता है . वगैरह वगैरह . और रात का खाना 'साझा होता ' . एक दिन हमने शिव धनी से पूछा तुम्हे याद है किसी लड़के को गुड़ खिला कर पानी पिलाया था और उसे बस में बिठाया था . हाथ में पानी का ग्लास लिए शिव धनी ने बहुत अन्मयास्क ढंग से कहा -साहेब बहुतों को खिलाया पिलाया है कहाँ तक याद करें . सच कहता हूँ अगर वह मलिक का बच्चा वहाँ न मौजूद रहता तो मै शिव धनी का पैर पकड़ कर रो लेता और हल्का हो जाता . लेकिन ऐसा नहीं कर सका . दूसरे दिन कैम्पस में नई चर्चा चल निकलती --'हव स्साला ज्यादा ले लिया था ' . उसी तरह जैसे हमसे चुनाव के समय पूछा गया था 'गेस्ट हाउस कांड ' का जवाब दो .
शिव धनी ने एक बार भी नहीं बोला -नेकी कर दरिया में डाल .यह तो अध्यापक लोग पढ़ाते हैं . शिव धनी तो उसमे जीते हैं .
-जारी
......उन दिनों काशी विश्वविद्यालय का दिल बड़ा हुआ करता था . गधे को गढ़ कर घोड़ा बनाना और उसे दौड़ में उतार देने का चलन था . आज उसके बरक्स है . अब तो उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो पीठ पर जींस और आँखों पर ठप्पा बंधे आते है और जो कुछ भी रहता है बेचारे उसे भी उतार कर बाहर चले जाते हैं . इन्तेरेंस ? प्रवेश हुआ नहीं कि परीक्षा पहले दे दो . यह कौन सा चलन है ? जब लड़का पहले से ही तैयार है तो मोटी रकम पर ऐश करनेवाले प्राध्यापक किस लिए हैं ? लेकिन तब ऐसा कुछ नहीं था . और उसी दौर में मै भी पहुचा था . उन दिनों प्रवेश के लिए दो रूपये का एक फ़ार्म मिलता था . पीआरओ आफिस से . और यह आफिस कुलपति निवास और रुइया छात्रावास के सामने हुआ करता था . हमने फ़ार्म तो ले लिया . मुतमईन होने की खुशी में वापसी का डगर भूल गया . आना चाहिए था 'सिंह द्वार ' की तरफ मै मुड गया 'हवाई अड्डे की तरफ ' मई की कड़क धूप पैदल का सफर . चलता रहा . इक्का दुक्का लोग दिखे लेकिन किसी से डगर पूछने की हिम्मत नहीं हुई और मै कई मील आगे निकल गया . विश्वनाथ मंदिर के पीछे एक पेड़ के नीचे एक आदमी मिला . जो हमारे गाँव के लोंगो से मेल खाता दिखा . घुटने तक की धोती और बंडी पहने बैठा सुस्ता रहा था . हम उसके पास जा कर रुके और पूछा -अभी लंका कितनी दूर है ? वह समझ गया . तुम गलत आ गए हो , लंका तो उसी तरफ है जिधर से आ रहे हो . ... बैठो सुस्ता लो . गर्मी बहुत है . अभी एक बस आयेगी विश्वविद्यालय की है उस पर बैठ जाना लंका छोड़ देगी पैसा नहीं लगेगा . ... पानी पियोगे ? वह उठा और बगीचे में चला गया वहाँसे एक लोटे में पानी और थोड़ा सा गुड़ लेकर आया . विश्वविद्यालय का यह पहला सबक था जिसे मैंने उस 'आदमी ' से सीखा . उसने हमें बस में बिठा दिया और मै लंका आ गया .
तींन साल बाद जब मै छात्र संघ का अध्यक्ष बना तो वह 'आदमी 'हमें याद आया . उसकी तलाश में मै कईबार उस जगह को देखा , दरियाफ्त किया लेकिन कुछ पता नहीं चला . एक दिन मैंने देबू दा ( स्वर्गीय देव ब्रत मजूमदार ) से पूछा कि उसका पता कैसे किया जा सकता है . चूंकी देबू दा चार्टों के ही नेता नहीं थे कर्मचारियों के भी नेता थे . दादा ने सुझाव दिया तुम सुरेन्द्र त्रिपाठी से मिलो वह खोज देंगे आजकल कर्मचारियों के अध्यक्ष वही हैं . सुरेन्द्र त्रिपाठी थे तो कम्युनिस्ट पर दोस्त बहुत अच्छे थे . उन्होंने कहा क्यों खोज रहे हो . हमने कहा उसने हमें कुछ 'उधार ' दिए हैं उसे लौटाना है . सुरेन्द्र जी ठहाका लगा कर हँसे , भाई यहाँ जितने भी लोग हैं सब के सब का कर्जदार तो मालवी जी रहे आज तक इनका कर्ज उतार रहे हैं . चाहे वी सी श्री माली हों या आपका दोस्त मलिक , इन सब ने मालवी जी को कर्ज दिया है ..... एक काम करो कल सेन्ट्रल आफिस आ जाना , ग्यारह बजे मालियों की मीटिंग है उसमे से पहचान लेना . एन वक्त पर मै गया और उस 'आदमी ' को पहचान लिया . शिव धनी राम . दूसरे दिन शिव धनी का तबादला केन्द्रीय दफ्तर से छात्रसंघ हो गया .
बात उन दिनों की है जब छात्रसंघ के कर्मचारियों की तूती बोलती थी .आज से शिव धनी छात्र संघ के माली थे . आहिस्ता आहिस्ता शिव धनी घुल मिल गए . पांडे जी जो कि चपरासी थे वहीं छात्रसंघ में रहते भी थे अब दो जन हो गए . बाकी स्टाफ ड्यूटी के बाद घर चला जाता था लेकिन शिव धनी और पांडे जी वहीं खाना बनाते और दिन भर की खबर ... एक दो के बाद .. आप से तुम पर उतर जाते .. मजूमदार......मार्कंडे के साथ काम किया हूँ ..वो ठीक नहीं है , पीठ पीछे तुम्हारी बुराई करता है . वगैरह वगैरह . और रात का खाना 'साझा होता ' . एक दिन हमने शिव धनी से पूछा तुम्हे याद है किसी लड़के को गुड़ खिला कर पानी पिलाया था और उसे बस में बिठाया था . हाथ में पानी का ग्लास लिए शिव धनी ने बहुत अन्मयास्क ढंग से कहा -साहेब बहुतों को खिलाया पिलाया है कहाँ तक याद करें . सच कहता हूँ अगर वह मलिक का बच्चा वहाँ न मौजूद रहता तो मै शिव धनी का पैर पकड़ कर रो लेता और हल्का हो जाता . लेकिन ऐसा नहीं कर सका . दूसरे दिन कैम्पस में नई चर्चा चल निकलती --'हव स्साला ज्यादा ले लिया था ' . उसी तरह जैसे हमसे चुनाव के समय पूछा गया था 'गेस्ट हाउस कांड ' का जवाब दो .
शिव धनी ने एक बार भी नहीं बोला -नेकी कर दरिया में डाल .यह तो अध्यापक लोग पढ़ाते हैं . शिव धनी तो उसमे जीते हैं .
-जारी
क्या आपको मालूम है कि जब आप बनारस बी येच्चू ( अपने इलाके में बी येच्चू विश्वविद्यालय का समानार्थक शब्द माना जाता था ) में थे और आपके बहुत सारे साथी आपकी दिनचर्या तक जौनपुर में भी बताया करते थे . वे मरगूपुर के मेरे साथी आपके भक्त थे . सल्तनत बहादुर कालेज के प्रिंसिपल महावीर सिंह का बेटा महेंद्र और मरगूपुर के रवीन्द्र बहादुर सिंह आपके खास प्रशंसक हुआ करते थे. आप के इस नोट से मेरा भी वह समय ताज़ा हो गया जब हम लोग बिना किसी लक्ष्य के पढाई किये जा रहे थे .
ReplyDeletebahut achcha lag raha hai dada........aage bhi jan ne ki utsukta hai....
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