बना रहे बनारस ....
...... माला रॉय को बधाई और धन्यवाद दोनों कि उन्होंने दिल्ली में यह प्रदर्शनी आयोजित की . इस प्रदर्शन में 'उत्तर ,दक्षिण,पूर्व और पश्चिम को एक साथ जोड़ा . इसमें हमें भी बुला लिया गया . हम गए और साथ में बनारस ( हमारे चित्रों का विषय ) लादे गए . स्याह -सफ़ेद और पारदर्शी तरल जलरंग का प्रयोग जो कि बनारस का मूल चरित्र है , को माध्यम बनाया . रांड,सांड ,सीढ़ी, सन्यासी . इनसे बचे तो पूजै काशी . ' हमारे चित्रों के केन्द्र में रहे . एक तरह से ये हमारे कुल ग्यारह सालों की 'सशरीर ' काशी प्रवास की कमाई है .बाद बाकी अभी भी काशी से मुक्त नहीं होपाया हूँ . बाज दफे जब कोइ पाखंडी मोक्ष की बात करता है तो मन करता है इसे पकड़ कर काशी छोड़ आऊँ और उसे दिखाऊँ कि देखो यहाँ हर कोइ मोक्ष को प्राप्त कर लिया है लेकिन पूर्व जन्म के पुण्य को खर्चने के लिए अपने धंधे में लगा है पर भाव वही 'विरक्ति' का ही है . केशव पान की दूकान पर बैठे राजेंदर पान 'थमा ' रहे हैं . काशी में पान नतो बनता है , न ही लगाया जाता है . याचक एक 'थमाय दियो गुरू ' का मन्त्र जाप करेगा और दाता पान थमा देगा .आहुति की मुद्रा में . क्यों कि यह काशी है . यह न दिल्ली है न ही 'नखलऊ' (शुभा प्रदीप जी के सौजन्य से ) दिल्ली 'लगाता ' है , लखनऊ 'बनाता ' है . और काशी 'थमाता है . थमाने में बनाना और लगाना दोनों शामिल है यह आपकी नियति है कि आप को क्या पसंद है . वो मीर साहिब क किस्सा दमदार है . मीर साहेब दिल्ली से चले लखनऊ आ गए . पान की तलब लगी ,दूकान [पर गए और बोले -मियाँ एक पान लगा दो . पानवाले ने गौर से मीर साहेब को देखा और बोला - मियाँ यह लखनऊ है यहा पान बनाया जाता है लगाया नहीं जाता . यहाँ जूता लगाया जाता है . क्या करते मीर साहेब मसोस कर रह गए . तो हम इस काशी में रहे . उसे दिल में रखे घूम रहे हैं . यहाँ आप से नतो कोइ नफ़रत करेगा और न ही आप किसी से नफ़रत कर पायेंगे चाहे वह संघी ही क्यों न हो . यह काशी अकेली है . एक छतरी के नीचे है . इतना जुनूनी है कि इसने गंगा को अपने पास बुला लिया उनके रुख को बदल दिया गंगा हिमालय से चल कर गंगासागर में समाहित होती हैं उत्तरवाहिनी हैं . उत्तर से दक्षिण बही हैं . लेकिन काशी में दक्षिण बाहिनी होना पड़ा है . आज गंगा काशी की मैया हैं . न जाति पूछती हैं न मजहब सब को एक रूप से निर्मल करती हैं .यह बनारस लेकर मै दिल्ली आया और आइफेक्स में लटक गया .
२७ सितम्बर से शुरू हुई इस प्रदर्शनी का उदघाटन सांसद राज बब्बर ने किया . मुख्य अतिथि थे 'सोनालिका' के मालिक श्री यल डी मित्तल .
बाकी क्या हुआ ? कल ....( राज बब्बर ने अपना सन्देश हिन्दी में लिखा . एक पत्रकार ने पूछा -हिन्दी में ? राज ने मुस्कुराकर मेरी तरफ देखा ... हमने वह वाकया सुनाया जब 'अंगरेजी हटाओ ' के आंदोलन में राज पीते जा रहे थे और जार्ज ने राज के ऊपर लेट कर बचाया वरना आज यह कलाकार मलंग की भूमिका कर रहा होता ......'तराजू नहीं ')
...... माला रॉय को बधाई और धन्यवाद दोनों कि उन्होंने दिल्ली में यह प्रदर्शनी आयोजित की . इस प्रदर्शन में 'उत्तर ,दक्षिण,पूर्व और पश्चिम को एक साथ जोड़ा . इसमें हमें भी बुला लिया गया . हम गए और साथ में बनारस ( हमारे चित्रों का विषय ) लादे गए . स्याह -सफ़ेद और पारदर्शी तरल जलरंग का प्रयोग जो कि बनारस का मूल चरित्र है , को माध्यम बनाया . रांड,सांड ,सीढ़ी, सन्यासी . इनसे बचे तो पूजै काशी . ' हमारे चित्रों के केन्द्र में रहे . एक तरह से ये हमारे कुल ग्यारह सालों की 'सशरीर ' काशी प्रवास की कमाई है .बाद बाकी अभी भी काशी से मुक्त नहीं होपाया हूँ . बाज दफे जब कोइ पाखंडी मोक्ष की बात करता है तो मन करता है इसे पकड़ कर काशी छोड़ आऊँ और उसे दिखाऊँ कि देखो यहाँ हर कोइ मोक्ष को प्राप्त कर लिया है लेकिन पूर्व जन्म के पुण्य को खर्चने के लिए अपने धंधे में लगा है पर भाव वही 'विरक्ति' का ही है . केशव पान की दूकान पर बैठे राजेंदर पान 'थमा ' रहे हैं . काशी में पान नतो बनता है , न ही लगाया जाता है . याचक एक 'थमाय दियो गुरू ' का मन्त्र जाप करेगा और दाता पान थमा देगा .आहुति की मुद्रा में . क्यों कि यह काशी है . यह न दिल्ली है न ही 'नखलऊ' (शुभा प्रदीप जी के सौजन्य से ) दिल्ली 'लगाता ' है , लखनऊ 'बनाता ' है . और काशी 'थमाता है . थमाने में बनाना और लगाना दोनों शामिल है यह आपकी नियति है कि आप को क्या पसंद है . वो मीर साहिब क किस्सा दमदार है . मीर साहेब दिल्ली से चले लखनऊ आ गए . पान की तलब लगी ,दूकान [पर गए और बोले -मियाँ एक पान लगा दो . पानवाले ने गौर से मीर साहेब को देखा और बोला - मियाँ यह लखनऊ है यहा पान बनाया जाता है लगाया नहीं जाता . यहाँ जूता लगाया जाता है . क्या करते मीर साहेब मसोस कर रह गए . तो हम इस काशी में रहे . उसे दिल में रखे घूम रहे हैं . यहाँ आप से नतो कोइ नफ़रत करेगा और न ही आप किसी से नफ़रत कर पायेंगे चाहे वह संघी ही क्यों न हो . यह काशी अकेली है . एक छतरी के नीचे है . इतना जुनूनी है कि इसने गंगा को अपने पास बुला लिया उनके रुख को बदल दिया गंगा हिमालय से चल कर गंगासागर में समाहित होती हैं उत्तरवाहिनी हैं . उत्तर से दक्षिण बही हैं . लेकिन काशी में दक्षिण बाहिनी होना पड़ा है . आज गंगा काशी की मैया हैं . न जाति पूछती हैं न मजहब सब को एक रूप से निर्मल करती हैं .यह बनारस लेकर मै दिल्ली आया और आइफेक्स में लटक गया .
२७ सितम्बर से शुरू हुई इस प्रदर्शनी का उदघाटन सांसद राज बब्बर ने किया . मुख्य अतिथि थे 'सोनालिका' के मालिक श्री यल डी मित्तल .
बाकी क्या हुआ ? कल ....( राज बब्बर ने अपना सन्देश हिन्दी में लिखा . एक पत्रकार ने पूछा -हिन्दी में ? राज ने मुस्कुराकर मेरी तरफ देखा ... हमने वह वाकया सुनाया जब 'अंगरेजी हटाओ ' के आंदोलन में राज पीते जा रहे थे और जार्ज ने राज के ऊपर लेट कर बचाया वरना आज यह कलाकार मलंग की भूमिका कर रहा होता ......'तराजू नहीं ')