Monday, September 30, 2013

बना रहे बनारस ....
...... माला रॉय को बधाई और धन्यवाद दोनों कि उन्होंने दिल्ली में यह प्रदर्शनी आयोजित की . इस प्रदर्शन में 'उत्तर ,दक्षिण,पूर्व और पश्चिम को एक साथ जोड़ा . इसमें हमें भी बुला लिया गया . हम गए और साथ में बनारस ( हमारे चित्रों का विषय ) लादे गए . स्याह -सफ़ेद और पारदर्शी तरल जलरंग का प्रयोग जो कि बनारस का मूल चरित्र है , को माध्यम बनाया . रांड,सांड ,सीढ़ी, सन्यासी . इनसे बचे तो पूजै काशी . ' हमारे चित्रों के केन्द्र में रहे . एक तरह से ये हमारे कुल ग्यारह सालों की 'सशरीर ' काशी प्रवास की कमाई है .बाद बाकी अभी भी काशी से मुक्त नहीं होपाया हूँ . बाज दफे जब कोइ पाखंडी मोक्ष की बात करता है तो मन करता है इसे पकड़ कर काशी छोड़ आऊँ और उसे दिखाऊँ कि देखो यहाँ हर कोइ मोक्ष को प्राप्त कर लिया है लेकिन पूर्व जन्म के पुण्य को खर्चने के लिए अपने धंधे में लगा है पर भाव वही  'विरक्ति' का ही है . केशव पान की दूकान पर बैठे राजेंदर पान 'थमा ' रहे हैं . काशी में पान नतो बनता है , न ही लगाया जाता है . याचक एक 'थमाय दियो गुरू ' का मन्त्र जाप करेगा और दाता पान थमा देगा  .आहुति की मुद्रा में . क्यों कि यह काशी है . यह न दिल्ली है न ही 'नखलऊ' (शुभा प्रदीप जी के सौजन्य से ) दिल्ली 'लगाता ' है , लखनऊ 'बनाता ' है . और काशी 'थमाता है . थमाने में बनाना और लगाना दोनों शामिल है यह आपकी नियति है कि आप को क्या पसंद है . वो मीर साहिब क किस्सा दमदार है . मीर साहेब दिल्ली से चले लखनऊ आ गए . पान की तलब लगी ,दूकान [पर गए और बोले -मियाँ एक पान लगा दो . पानवाले ने गौर से मीर साहेब को देखा और बोला - मियाँ यह लखनऊ है यहा पान बनाया जाता है लगाया नहीं जाता . यहाँ जूता लगाया जाता है . क्या करते मीर साहेब मसोस कर रह गए . तो हम इस काशी में रहे . उसे दिल में रखे घूम रहे हैं . यहाँ आप से नतो कोइ नफ़रत करेगा और न ही आप किसी से नफ़रत कर पायेंगे चाहे वह संघी ही क्यों न हो . यह काशी अकेली है . एक छतरी के नीचे है . इतना जुनूनी है कि इसने गंगा को अपने पास बुला लिया उनके रुख को बदल दिया गंगा हिमालय से चल कर गंगासागर में समाहित होती हैं उत्तरवाहिनी हैं . उत्तर से दक्षिण बही हैं . लेकिन काशी में दक्षिण बाहिनी होना पड़ा है . आज गंगा काशी की मैया हैं . न जाति पूछती हैं न मजहब सब को एक रूप से निर्मल करती हैं .यह बनारस लेकर मै दिल्ली आया और आइफेक्स में लटक गया . 
      २७ सितम्बर से शुरू हुई इस प्रदर्शनी का उदघाटन सांसद राज बब्बर ने किया . मुख्य अतिथि थे 'सोनालिका' के मालिक श्री यल डी मित्तल . 
   बाकी क्या हुआ ? कल ....( राज बब्बर ने अपना सन्देश हिन्दी में लिखा . एक पत्रकार ने पूछा -हिन्दी में ? राज ने मुस्कुराकर मेरी तरफ देखा ... हमने वह वाकया सुनाया जब 'अंगरेजी हटाओ ' के आंदोलन में राज पीते जा रहे थे और जार्ज ने राज के ऊपर लेट कर बचाया वरना आज यह कलाकार मलंग की भूमिका कर रहा होता ......'तराजू नहीं ')

Thursday, September 19, 2013

छात्र की पहचान बने ....
     अफलू ने अपने एक पोस्ट में दो बातो का जिक्र किया है . एक -हर  शिक्षण संस्थान में खुली भर्ती .और दूसरा उसकी 'पहचान ' . अफलू ने ७७ के अपने कार्यकाल (अध्यक्ष छात्रसंघ काशी विश्वविद्यालय ) में किये गए कार्यों के लिए हमारी पीठ ठोंकी है .उसपर कुछ सवाल भी उठे हैं ,उसे बहस के लिए खोलना ज्यादा जरूरी है . डॉ लोहिया जिनके हम अनुआयी रहे हैं की एक परिकल्पना थी -अगर कोइ लड़का या लड़की आगे पढ़ना चाहता /चाहती है तो उसे दाखिला मिलना चाहिए . इसी परिकल्पना पर 'स यू स ' ने एक नारा दिया था -खुला दाखिला सस्ती शिक्षा , लोकतंत्र की यही परिक्षा ' .७७ में जब हम जेल से छूट कर बाहर आये तो हमें देबूदा ( काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और हमलोगों के अभिभावक ) ने चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतार दिया . हम उतर भीगए . हमारा मुकाबला संघी से था . वह धन और बल दोनों से मजबूत था . लेकिन अगर कहीं से कमजोर था तो बस 'बुद्धि 'से .( यह स्थापना हमारी नहीं है , हमें इतनी छूट मिलती भी नहीं कि हम अपने अग्रज के बारे ऐसा कहें . यह परिपाटी अब तक चली आ रही है . कई संघी आज भी फेसबुक पर हमारी टिप्पणी से बौखला तो जाते हैं लेकिन वो उस परिपाटी का निर्वहन करते है जो कभी विश्वविद्यालय से जुड़े रहे .यह सथापना राजनीति विभाग के विभागाधाक्ष प्रोफ़ेसर हरिहर नाथ त्रिपाठी की थी ) चुनांचे हमने नयी तरकीब निकाली . ७२ में हमने राजाराम छात्रावास में जे पी की एक मीटिंग कराई थी जिसमे उन्होंने कहा था -जनतंत्र की रक्षा करनी है तो चुनाव को सस्ता करो ' इसे हमने जस का तस ले उठा लिया . फिर हमने कहा कि इस चुनाव में हम पोस्टर नहीं छापायेंगे . देबू दा ने पूछा - तो ? हमने कहा हमारे विभाग ( कालेज आफ फाइन आर्ट्स ) के लड़के और लड़किया हाथ से पोस्टर बनाएंगे और उसे प्रदर्शित करेंगे . वही हुआ . एक दिन लड़कियों ने हमें घेर लिया -आप जीत गए तो हमें क्या मिलेगा ? हमने मजाक किया - एक तो मै मिलूँगा कि विश्वविद्यालय की सबसे छोटी फैकल्टी का लड़का उड़ कुर्सी तक गया और दूसरा हम इस विश्वविद्यालय में स्थाई रूप से एक कोना दे कर जांएगें जिसे आप याद रखेंगी . जीत के बाद 'मधुबन ' का निर्माण जिसेफाइन आर्ट्स  के लडको और लड़कियों ने अपनी  कला से सजाया आज भी फलफूल रहा है . हमें खुशी है कि इस साल विश्वविद्यालय प्रशासन ने उसे पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की है .कुलपति लालजी सिंह को बधाई . 
       अब आयी बात खुले दाखिला की . उसे भी हमने प्रशासन से हासिल कर लिया ज्यादा जद्दो जेहद नहीं करनी पडी . कुलपति अनंत रमण साहब मानते गए . हमारा तर्क था कि 'अगर सरकार की तरफ से ३३ फीसद अंक पास होने के लिए काफी है तो प्रवेश के लिए क्यों ना काफी है ? दूसरा हमारे अध्यापक अगर 'घोड़ों' को ही घोड़ा बनाएंगे तो वे इतनी मोटी राकन क्यों ले रहे हैं . यह उनकी जिम्मेवारी है कि बच्चे को हुनर मंद बनाए . अगर कोइ अध्यापक ऐसा नहीं कर सकता तो वह अपना नाम सार्वजनिक कर दे . और हम जीत गए . इस तरह विश्वविद्यालय ने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया . शर कई कालेज बंद होने के कगार पर आ लगे . उस सने संघियों ने हम पर आरोप लगा था कि हम विश्वविद्यालय की गक्रिमा बिगाड़ रहे हैं .हम इसे  a.b.c.d ( आजमगढ़ ,बलिया . छपरा ,देवरिया ) बना दे रहे हैं . दूसरा प्रयोग विश्विद्याल ने देखा - लडकियां कैद के बाहर हो गयी . 
     चुनाव के समय एक दिन हम ज्योतिकुंज ( महिला छात्रावास ) में बोलने पहुचे . उस समय हमारे प्रतिद्वंदी संघी भाई बोल रहे थे . हमें देखते ही उनका सुर बदल गया और कुछ ज्यादा ही उत्तेजित आवाज में उन्होंने ऐलान किया कि अगर मै जीता तो कल से किसी लड़की को कोइ लड़का छेड़ने की हिम्मत नहीं करेगा . लड़कियों ने जोरदार ताली मारी . इसी के बाद हमें बोलना था . हमने शुरुआत ही आक्रामक की , - किसी लड़की की सुरक्षा की गारंटी केवल दो है जो ले सकता है .एक गुंडा और दूसरा पुलिस हम दोनों ही नहीं हैं लेकिन दावे के साथ इतना कह सकते हैं कि हम आपके मोहब्बत के हिफाजत की गारंटी लेंगे . यह अप्रत्यासित था ,एक सन्नाटा छा गया . अचानक कोने से एक लड़की ने निहायत ही मस्ती के मूड में बालो को को पीछे झटक कर ताली बजानी शुरू की . उसकी गर्दन नीचे झुकी थी और उसके द्दोनो हाथ ऊपर थे . यह 'कान्फीडेंस ' मै पहलीबार देख रहा था . पूरा हाल तालियों से गूँज गया . मेरा दोस्त जो मेरे खिलाफ लड़ रहा था ,हमें हाथ के इशारे से कुछ बोला और आगे निकल गया . हमने बात आगे बढाई - अगर कल को हम छात्र संघ पर गए तो तो आप उसी वक्त 'जेल के बाहर हो जायंगी .( उस समय तक विश्वविद्यालय का नियम था कि अगर कोइ लड़की बाहर निकल रही है तो उसे रजिस्टर पर लिखना पड़ता था कि वह किसके साथ बाहर जा रही है ? ) हमने कहा कि जीत की घोषणा को आप यह मान लेना कि वह रजिस्टर अब जला दिया गया है . अब आप झूठ नहीं बोलेंगी क्यों कि अब आपसे कोइ पूछेगा नहीं . अगर लड़के आजादी का अर्थ जानते हैं तो आपको भी य७ह हक है कि आपाजादी से जियें . 
   बहर हाल हम जीते और वायदे को निभाया . डॉ काशी नाथ ने हँस में जब हमारे बारे में लिखा तो एक मजेदार जुमला लिखा यह पहला अध्यक्ष था जो केवल छात्रों का नहीं था ,छात्राओं का भी था . 
   अफलू ने 'अलग पहचान की बात ' कही है . देश के जितने भी विश्वविद्यालय हैं उनके छात्र संघ ने किसी 'सकारात्मक बदलाव ' की डगर न तो देख पाए न ही दिखा पाए . काशी विश्वविद्यालय इस मायने में अकेला है जो बापू के साथ है . भाषा आंदोलन का हीरो देवब्रत मजुमदार . विश्वविद्यालय से अनिवार्य हाजिरी समाप्त , भाई मार्कंडेय सिंह काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष की देंन . यह खादिम तो सब का शिष्य रहा है . (ऊपर जो चित्र है वह मधुबन के निर्माण के समय का है . लड़के और लड़किया पत्थर को तोस कर आकृति दे रहे हैं ) शुक्रिया अफलू .शुक्रिया प्रमोद जोशी जी , और शुक्रिया बिपेंद्र जी . आप लोगो ने उकसाया हमें बता दिया . यथास्थितवादी संघी और सकारात्मक परिवर्तनवादी स्थितिया जस की तस ही नहीं हैं बल्की आज वे वे ज्यादा आक्रामक हो गए हैं . इस लिए हमने वाकयात को बीच में डाला .  
      

Wednesday, September 18, 2013

गांधी और कांग्रेस .... 
अफलू /अफलातून देसाई . गांधी 'परिवार ' से ताअल्लुक रखते हैं . बापू के साथ एक परिवार साये की तरह बापू के साथ रहा है . प्यारेलाल , फिर महादेव देसाई जिनके सुपुत्र हैं प्रसिद्ध गांधीवादी नारायण देसाई . इस देसाई परिवार के दो सदस्य जो दोनों नारायण जी के सुपुत्र हैं हमारे मित्र है . नाचिकेता देसाई और यह अफलू . इन दिनों हमें कांग्रेस और गांधी कीओर चलते देख कर अफलू ने एक जुमला ठोंका है . कांग्रेस और गांधी ? यह आलेख उसी जिरह का एक हिस्सा है . - लेखक 
     गांधी और कांग्रस के रिश्ते पर जब सवाल उठता है तो वह एक कालखंड पर आकर टिक जाता है . और वह कालखंड है आजादी का आगाज और हिंद-पाक बटवारे का घटना क्रम . इसके पहले गांधी ही कांग्रेस रहे इसमें दो राय नहीं . लेकिन 'चर्चिल ' के  बटवारे की चाल ने एक साथ कई गुल खिलाए . -दुनिया की यह पहली घटना दर्ज होने जा रही थी कि भारत एक ऐसी लड़ाई लड़ कर आजादी हासिल की है जिसमे कोइ खून खराबा नहीं हुआ . एक ऐसी जंग जिसमे दोनों आमने सामने की ताकते एक दूसरे को दिल से शुक्रिया अदा करके अलग हो जाते . लेकिन यह चर्चिल को नहीं भा रहा था . चर्चिल व्यक्तिगत तौर पर गांघी जी से खफा था और चाहता था कि अहिंसा के इस पुजारी की आख़िरी ख्वाहिस को खून से रहगा जाय . जिसमे उनकी कौम (अंग्रेज ) बेदाग़ बच जायं और ये हिन्दुस्तानी आपस में ही लड़ मरें. इस खेल में चर्चिल सफल रहा . उसने एक ऐसे शख्स को 'खलनायक बनाया जो मुसलमान तो कत्तई नहीं था ,हाँ आधा अंग्रेज जरूर था . वह थे जिन्ना . जिन्ना को अंग्रेस सेअलग करने के लिए और गांधी को कमतर आकने लिए सियासत में पहलीबार 'लिबास' का खेल खेला गया . गांधी को 'अधनंगा फ़कीर ' कहने का मतलब केवल गांधी उपहास करना भर नहीं था . जिन्ना के लिबास को मान्यता भी देना था . और जिन्ना चर्चिल के चक्रव्यूह में फसते चले गए .  और एक दिन 'अनायास ' जिन्ना पाकिस्तान की मांग के सबसे बड़े नेता हो गए जब कि सच्चाई इसके बरक्स है . जिन्ना अदरूनी तौर पर विभाजन के पक्षधर नहीं थे ,लेकिन उनके गले में पाकिस्तान ऐसे फसा कि वे न तो उसे निगल सकते थे ,नहीं उगल सकते थे . ( कृपया लार्ड मौन्त्बेतन के दस्तावेजों को देखें ) .इतिहास चक्र देखिये जाजादी की लड़ाई के दो महत्वपूर्ण स्तंभ गांधी और जिन्ना दोनों अकेले हो गए थे . जिन्ना की उल जलूल बातों से लार्ड माउंट बेतन को झल्लाहट होने लगी थी . जिन्ना ने कहा हम उस पाकिस्तान को लेकर क्या करेंगे जिसमे न कल्कत्ता न बंबई . एक हरकत और की जिन्ना ने उन्होंने प्रस्ताव रखाकी कि पूर्वी पाकिस्तान और और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच सत्तर मील चौड़ा रास्ता दिया जाय . और इधर -
      बगैर गांधी को बताए कांग्रेस ने बटवारे का फैसला कर लिया था . कांग्रेस कार्य कारिणी में पहली बार यह मतभेद उभर कर सामने आया जब गांधी अकेले हो गए उनके साथ कांग्रेस के सामाजवादी लोग ही रह गए थे इनमे डॉ लोहिया , जेपी आचार्य नरेन्द्रदेव ,अशोक मेहता प्रमुख थे . लेकिन गांधी उस विष को भी पी गए . और कांग्रेस को अपनाए रखा . कांग्रेस की मजबूरी थी वह बापू को छोड़ नहीं सकती थी . आजादी के बाद कांग्रेस और गांधी के बीच कई मुद्दों पर असहमति थी . उसमे गाँव ' एक असल मुद्दा था . तब तक नेहरू सोवियत रूस के माडल से प्रभावित थे और उसी ढर्रे पर चलना चाहते थे जब कि गांधी जी का कहना था कि जब तक गाँव विकसित नहीं होगें देश मजबूत हो ही नहीं सकता . गांधी की ह्त्या के बाद नेहरू ने इसे स्वीकार किया और ग्रामोन्मुखी नीतियों की तरफ बढे . पंचायती राज , विकेन्द्रीकरण आदि को खुल कर स्वीकारा . आज तक कांग्रेस गांधी के उसी रास्ते पर चल रही है . . 

Sunday, September 15, 2013

युसूफ भाई ....
खबर है कि युसूफ भाई जिन्हें देश दुनिया दिलीप कुमार के नाम से जानती और पहचानती है ,बीमार हैं .लीलावती अस्पताल में भर्ती है . डुआ मांगते है वो जल्द से जल्द ठीक हो जांय . हमारी उनसे जो जानपहचान हुई वह एक दिलचस्प वाकया है . 
बाबरी मस्जिद तोडी जा चुकी थी . देश एक अजीब से जद्दो जेहद से गुजर रहा था . हम उड़ीसा से लौट कर बंबई आये थे . नादिरा जी ने घर पर पार्टी दी थी . वहाँ से लौट कर मै होटल आया . और रिसेप्शन पर गया कि हमें दिल्ली की जो भी फ्लाईट मिले उससे भेज दीजिए . इतने में मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा ,और बोले आज नहीं कल का टिकट बुक होगा . यह थे हमारे अजीज सलमान खुर्शीद . उन दिनों विदेश राज्य मंत्री थे . मै भी चौका . हम दोनों गले मिले . सलमान भाई हमें लेकर लिफ्ट की तरफ बढ़ गए . यहाँ दिलीप साहब दिखे लंगडाते हुए चल रहे थे . सब एक ही साथ लिफ्ट में चढ़े . हमने दिलीप साहब से पूछा -युसूफ भाई पैर में चोट लगी है क्या ? दिलीप साहब ने बड़ी संजीदगी के साथ हमें देखते हुए कहा - नहीं जनाब ! चोट तो जिगर में लगी है . ' सलमान भाई समझ गए कि कुछ गडबड हो रहा है . दरअसल हुआ क्या था कि कटक में रवि दा (प्रसिद्ध समाजवादी और लोक सभा के पूर्वद्ध्य्क्ष ) ने हमें उडिया का एक गमछा दिया था ,वह मेरे गले में था . गडबड यह हुआ कि उस गमछे का रंग केसरिया था .सलमान भाई ने तुरंत परिचय कराया युसूफ भाई ये चंचल जी हैं . समाजवादी हैं जार्ज के बहुत नजदीकी है ,और्हमारे दोस्त हैं . दिलीप साहब बिलकुल फ़िल्मी हो गए . ऊपर जो चित्र आप देख रहे है हू ब हू यही अंदाज और हमें खीच कर गले से लगा लिए . फिर तो खूब जमी . 
    ऊपर हाल में जहां पार्टी थी वहाँ एक से बढ़ कर एक मिले . नौशाद साहब , जानीवाकर , सुनील दत्त . अमजद खान वगैरह वगैह . नौशाद साहब जब यह मालुम हुआ कि मै जौनपुर से हूँ तो उन्होंने हमें अपने पास बुला लिया उनसे बहुत लंबी और दिलचश्प बात हुई . इतने में खाना लगने का ऐलान हुआ . दिलीप साहब ने कहा वे खाना नहीं  खायेंगे . हम जिस टेबुल पर बैठे थे उसपर नौशाद साहब ,जानीवाकर . नरेश जुनेजा थे . नौशाद जी उस समय वो किस्सा सुना रहे थे जब गंगा जमुना में दिलीप कुमार ने काम करने से इस लिए मना कर दिया था कि यह तो अवधी भाषा में है मेरे ऊपर फिट नहीं बैठेगी . नौशाद जी ने किस तरह दिलीप जी को मना कर तैयार किया . दिलीप साहाब सब सुन रहे थे .वे भी वहीं आकर बैठ गए . चलते चलते बात सियासत पर आ गयी . जानीवाकर ने एक गंभीर जुमला बोला - समाजवादियों ने कांग्रेस से निकल कर गलत किया वरना आज मुल्क कहीं और होता . जानीवाकर और सियासत पर यह पकड़ ? मै पहलीबार उन्हें समझ रहा था . इसी बीच सुनीलदत्त जी अपनी प्लेट लेकर उसी टेबुल पर आ गए और एक पीस निकाल कर दिलीप साहब की ओर बढ़ाते हुए बोले युसूफ भाई इसका जायका देखिये . युसूफ ने बच्चे की तरह मुह खोल दिया . एक एक कर के दत्त जी खिलाते रहे और उसुफ़ खाते रहे . यह प्यार हमने वहाँ फ़िल्मी दुनिया में देखा . 
     नौशाद साहब ने एक गाना बताया ,बैजूबावरा का ( शायद , ) लिखनेवाला शकील बदायुनी . गायक मोहम्मद रफ़ी . संगीत नौशाद का और जिस पर फिल्माया गया वेही युसूफ खान ... मन तरसत हरि दर्शन को आज .....
       युसूफ भाई ठीक होइए , आइये गले मिल कर कुछ गप्पिया जाय .

Tuesday, September 10, 2013

मै कांग्रेस के साथ हूँ .........
....बार -बार हमसे यह जायज सवाल पूछा जाता है कि मै कांग्रस में क्यों हूँ , जब छात्र राजनीति के समय से ही मै समाजवादी 'आंदोलन ' से जुड़ा रहा और अपनी पहचान बनाई ? विस्तार में जाने से बचने के लिए हमने एक अंग्रेज विचारक जो आजीवन गांधी का समर्थक रहा उनके हवाले से एक जुमला सुना देता हूँ . -'अगर कोइ २५ साल की उम्र तक क्रान्ति की बात नहीं करता तो साझ लेना चाहिए कि उसमे कुछ दिमागी खराबी है , और ४० साल की उम्र के बाद भी वह क्रान्ति की बात करता है तो समझ लेना चाहिए कि ,निश्चित रूप से उसका दिमाग खराब है . '.आज थोड़ा विस्तार चाहूँगा . कांग्रेस और समाजवादी आंदोलन के रिश्ते वाकई दबे रह गए हैं . इसके पीछे हमारे तथाकथित 'इतिहासकारों ' का हाथ है . आप भारत की आजादी का इतिहास और आजादी के बाद का भारत देखें तो इतिहास कारों की कलई  खुलती है . दरअसल ये अनुवादक है . पश्चिमी लेखकों की सामग्री को अपनी भाषा देकर ये इतिहास की सपाट बयानी करते हैं . इधर जब से रामचंद्र गुहा ने इतिहास को कुरेदना शुरू किया है तब से नौजवानों में भी एक बेचैनी बढ़ी है . बहर हाल  मुल्क के बटवारे का ही इतिहास देखिये . बड़ी तकलीफ होती है जब यह एहसास होता है कि हम उस मुल्क के संभ्रांत शहरी है जिस मुल्क में आज तक 'बटवारे ' जैसे बड़े सवाल को लेकर दुविधा बनी हुई है कि बटवारे का जिम्मेवार कौन है ? इस विषय पर सबसे बड़ी खुराफात संघियों ने की है . गाँव- गाँव, घर- घर, जन जन तक इन्होने ' कनफुसिया प्रचार किया कि बटवारे का मूल 'अपराधी ' गांधी है . इससे उन्हें दो फायदा मिलता दिखाई दे रहा था . एक बटवारे के समय दिया हुआ उनका नारा "मुसलमानों भारत छोड़ो ' को भुला दिया जाय और बापू की ह्त्या की एक बड़ी वजह बापू के मत्थे मध् कर गोडसे को महिमा मंडित किया जाय . शुक्र है जाज के सूचना क्रान्ति का जिसने आज की पीढ़ी को असलियत बता रहा है . पर पूछता कौन है . भारत के अनुवादी इतिहासकारों ने दबी जुबान से बटवारे को गोलमटोल व्याख्या में लपेट दिया क्यों कि इनमे से तकरीबन सारे इतिहासकार 'प्रगतिशील 'यानी साम्यवादी रहे हैं . और भारत -पाक बटवारे को साम्यवादियों ने बकायदे प्रस्ताव पास करके बटवारे का समर्थन किया है .  इतना ही नहीं मुस्लिम लीग ने जब 'सीधी कार्यवाही ' का ऐलान किया और पूरे देश में क़त्ल ये आम शुरू हुआ तो कांग्रेस  गृह युद्ध के खौफ से दर गयी . इतना ही नहीं कांग्रेस का एक बड़ा बर्ग यह महसूस करने लगा कि यह अंग्रेजों के भारत से न निकलने की चाल है . इन दो तर्कों ने कांग्रेस को मजबूर किया कि वह लीग की माग को मान ले और बटवारे के फैसले को सहमति दे दे . और यही हुआ . मजे की बात यह कि गांधी जी इन सब से दूर रखा गया .
  सबसे गूढ़ रहस्य उस समय खुलता है जब कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक होती है . जिसमे बटवारे का फैसला होना है . उस समय बापू नोआखाली में थे . उन्हें बुलाया गया 'विशेष आमंत्रित ' की तरह . ( गांधी कांग्रेस के साथ आधिकारिक रूप से कुल सत्रह साल ही रहे . १९१७ में कांग्रेस के सदस्य बने और १९३४ में यह कह कर कांग्रेस से अलग हो गए कि जब भी कांग्रेस को मेरी जरूरत पड़े वह हमारी राय ले सकती है . यह बात दीगर है कि कांग्रेस को बापू के आख़िरी दिन तक राय की जरूरत पडी और वे देते रहे . ) बैठक में गांधी जी जब आये तो उनके बैठने का कोइ इंतजाम नहीं था . ( यह पहली और शायद आख़िरी बैठक थी जो कुर्सियों पर बैठ कर पूरी की गयी . वरना कांग्रेस की बैठक नीचे जमीन पर होती है और अद्ध्यक्ष के सामने एक मुनीम वाली डेस्क रख दी जाती है . ) आचार्य कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं . चादर ओढ़ कर सिर झुका कर बैठे हैं उनकी 'तबियत ' ठीक नहीं थी . गांधी ने आते ही सबसे पहले यही सवाल पूछा - इतना बड़ा फैसला ( बटवारे का ) आप लोगो ने ले लिया हमें बताया तक नहीं ? कोइ कुछ नहीं बोला . थोड़ी देर में पटेल ने कहा हम कहाँ से आपको बताते आप थे भी तो इतनी दूर . गांधी ने पलट कर पटेल को देखा . पटेल ने सिर झुका लिया . फिर नेहरू ने कहा - बापू हमने तो आपको 'इशारतन' बता दिया था . बापू झुंझला गए हमें कुछ भी नहीं बताया गया . बीच में जे.पी ने नेहरू को टोका -बापू गलत नहीं बोल रहे हैं . नेहरू ने जे पी को घुडक दिया .जे पी चुप हो गए . लेकिन लोहिया ने बड़ी बेबाकी से कहा - दोनों में कौन झूठ बोल रहा है यह सब को मालुम है . यहाँ लोहिया और नेहरू में पहली तकरार हुयी . बीच बचाव गांधी ने किया . और गांधी ने एक प्रस्ताव रखा - पहले अंग्रेज यहाँ से चले जाय हम बटवारे का फैसला कर लेंगे . कांग्रेस को यह फैसला और भी खून्खाराबेवाला लगा . 'गृहयुद्ध ' की आशंका ने कांग्रेस को मजबूर कर दिया कि गांधी का यह भी प्रस्ताव ना मंजूर हो गया . बहुमत पटेल के साथ रहा . (वे ही सबसे ज्यादा मुखर थे ) गांधी ने आखिरी प्रस्ताव रखा कि चलो बटवारे को मान लिया जाय लेकिन यह स्पष्ट कर दिया जाय कि कांग्रेस दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं मानती . आज भी कांग्रस अकेली पार्टी है जो दोराश्त्र के सिद्धांत के खिलाफ है .
     यहाँ यह जिक्र करदेना जरूरी है कि गांधी यहाँ आते आते अकेले हो गए है उनके साथ मुट्ठी भर समाजवादी है .डॉ लोहिया ,जय प्रकाश नारायण , आचार्य नरेंद्र देव , कृपलानी खान अब्दुल गफ्फार खान . इन तमाम असहमतियों के बावजूद गांधी उस कांग्रेस को नहीं तोड़ना चाहते थे जिसे उन्होंने सींच कर बड़ा किया था .
     इतिहास का यह हिस्सा हमने इस लिए उठाया कि आपको यह जानने में सुविधा हो जाय कि समाजवादी कांग्रस का एक हिस्सा रहा . नेहरू इसके नेता थे . पटेल और समाजवादियों के बीच यहाँ से तनाव बढ़ता है . नेहरू की दिक्कत थी कि वे संगठन में मजबूत नहीं थे ,संगठन पर पटेल का कब्जा था . लेकिन नेतृव के सवाल पर नेहरू से बड़ा कोइ दूसरा नहीं था , अ कद में ,न सोच में . यही वजह थी कि गांघी ने प्रधान मंत्री के लिए नेहरू का न केवल समर्थन किया अपितु जब उन्हें मालुम हुआ कि नेहरू और पटेल के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है तो बापू ने पटेल से इस्तीफा तक मांग लिया . अभी कम ही लोग जानते हैं कि ३० जनवरी को जिस दिन बापू की ह्त्या हुई पटेल अपना इस्तीफा बापू को देकर गुजरात के लिए रवाना हो गए थे . गांधी की ह्त्या की खबर उन्हें नडियाद में मिली और दिल्ली लत आये . उस इस्तीफे को नेहरू और पटेल के सामने वायसराय लार्ड माउंट बेटन ने फाड़ कर फेका और कहा अब आप दोनों मिल कर देश को देखिये अब तो बापू भी नहीं हैं .
      पतेल्वादियो और समाजवादियो के बीच बढ़ती दूरी ने पटेल को उकसाया कि यह सटीक समय है समाजवादियों को बाहर करने का . समाजवादी चाहते तो नहीं निकलते . लेकिन पटेल से जे पी आहत हो गए और उन्होंने निकले का फैसला ले लिया . जंतर मंतर (कांग्रेस कार्यालय ) की सीढ़ियों से उतारते समय डॉ लोहिया ने जे पी को रोका - नेहरू को देखा कितने उदास और अकेला महसूस कर रहे हैं चलो लौट चले . जेपी नहीं माने . तब लोहिया ने कहा -जेपी एक बात याद रखना आज अगर बाहर निकल ही रहे है तो फिर वापस आने का मन न बनाना . और समाजवादी बाहर निकल आये . यहाँ बहुत संक्षेप में उन मुद्दों का जिक्र कर दूं जिस पर पटेल और समाजवादियों के बीच असहमति थी . वह था -प्रिवीपर्स की समाप्ति , बैको का राष्ट्रीय करण , जमीन का बटवारा वगैरह जिसे इतिहास में 'चौदह सूत्रीय कार्यक्रम ' कहते हैं . मजे की बात यह कि १९६९ नेकीराम नगर कांग्रेस जिसमे इंदिरागांधी को कांग्रेस से बाहर निकाल दिया गया और कांग्रेस टूट गयी उसका कारण भी वही चौदह सूत्रीय कार्यक्रम था जिसे समाजवादियो ने बनाया था . इंदिरा गांधी इसके समर्थन में थी और तमाम यथास्थितवादी इसके विरोध में थे . इंदिरा गांधी के साथ जो अन्य पांच चंद्रशेखर, कृष्णकांत , मोहन धारिया ,रामधन और अर्जुन अरोड़ा निकाले गए सब के सब समाजवादी थे . कांग्रस इंडीकेट बनी और उसने सबसे पहले अपने 'चवन्निया रसीद ' (सदस्यता फ़ार्म ) पर अपने को समाजवादी घोषित करते हुए 'समाजवादी समाज बनाने के के लिए ' संकल्प लिया . वह आज भी उनके फ़ार्म पर दर्ज है .
       अंत में आज जब समाजवादी आंदोलन बिखर गया है , समाजवादी आंदोलन की जो मूल अवधारणा थी आज वह कांग्रेस की पूंजी है तो हमारे जैसे लोग कांग्रेस से परहेज क्यों करेंगे . 

Monday, September 9, 2013

गेस्टहाउस कांड का जवाब .............
            ... यह एक अधेड़ का हलफनामा है जिसे वह अपने होश व हवास के साथ दाखिल कर रहा है . उनवान है उसकी जवानी के किस्सों का जिसके चलते वह परेशान रहा और खुश भी . बात है ७७ की . वह दो साल की जेल यात्रा से लौट कर घर को आया था . उन दिनों उसका घर काशी विश्वविद्यालय था . डालमिया कमरा  ४०५ . तब तक विश्वविद्यालय में नए लोग आ चुके थे और जो पुराने थे वो जा चुके थे . एक दिन हमारे मित्र भाई राम कृपाल ( आजकल नवभारत टाइम्स के संपादक हैं ) आये और बोले कि आपको शुक्ला जी ( स्वर्गीय विनोद शुक्ला ) ने बुलाया है . उनदिनो शुक्ला जी कानपुर से 'आज ' दैनिक निकाल रहे थे . मै बगैर किसी को बताए कानपुर निकल गया . और छ महीने रहा . वहाँ की कथा बहुत बड़ी है उसे फिर कभी . यहाँ विश्वविद्यालय में छात्रसंघ का चुनाव घोषित हो गया . और देश में आम चुनाव . मै दिल्ली में मधुजी और जार्ज से मिला कि हमें भी टिकट मिलना चाहिए . शायद मिल भी जाता लेकिन इस बीच देबू दा ( स्वर्गीय देव ब्रत मजुमदार ,देश के सबसे चमकदार और संघर्षशील युवा नेता ) जार्ज और मधु जी से मिल कर उन्हें समझा चुके थे कि चंचल को विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव लड़ना है . मै जब जार्ज से मिला तो उन्होंने कुछ बोला नहीं , बस मुस्कुराकर बोले -तुम मधु जी बात कर लो . मधु जी से मिला तो उन्होंने दोटूक जवाब दिया . जाओ पहले छात्र संघ का चुनाव लड़ो . और मै चुप चाप कानपुर लौट आया . देबू दा ने विनोद जी से बात की कि उसे बनारस भेज दीजिए . विनोद जी तैयार नहीं थे . देबूदा ने राम कृपाल को पटा लिया . एक सांझ राम कृपाल ने हमें समझा बुझा कर बनारस लौटने को राजी कर लिया कि चुपचाप निकल जाइए मै विनोद जी को समझा दूंगा . और मै बनारस आ गया . 
      संघी घराने ने अपने सबसे मजबूत उम्मीदवार महेंद्र सिंह को मैदान में उतार दिया था . उन दिनों तक छात्र राजनीति में भी मतभेद तो रहते थे लेकिन मनभेद नहीं था . मै महेंद्र सिंह साथ साथ जेल भी काटे थे . आपातकाल में . हम दोनों अच्छे और बेबाक दोस्त भी रहे . चुनाव शुरू हो गया . विश्वविद्यालय का चुनाव आदर्श चुनाव होता है . आप अपनी बात कहिये पर न माइक लगेगा और न ही बाह्य आडम्बर का सहारा लिया जायगा . दो बार केवल आप माइक से प्रचार करेंगे .एक विश्वविद्याल प्रशासन अपने खर्चे पर एक मंच से सब उम्मीदवार को बोलने का मौक़ा देगी जहां लॉस स्पीकर लगता है . दूसरा विश्वविद्यालय के गेट पर . इस बीचैक आफत आ गयी . यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में ,एक कमरे में मै एक महिला मित्र के साथ बैठा काफी पी रहा था इसे संघियों ने देख लिया . यह एक मुद्दा बन गया . संघी चरित्र हनन की सारी भाषा जानते हैं . जो कुछ नहीं भी हुआ था सब का बखान ऐसे करते थे जैसे वे वहाँ कुर्सी लगा कर बैठे थे . देबू दा ने हमें बुलाया . वहाँ समाजवादी युवजन सभा के सारे कारीगर मौजू थे . मोहन प्रकाश , दींन  दयाल . राम बचन पांडे . देबू दा हत्थे से उखड गए - स्साले तुमने सब सत्यानाश कर दिया क्या जरूरत थी मोहब्बत करने की . और इस समय ? मै चुप रहा  हमने कहा कि मै जवाब दे लूंगा . रामबचन पांडे हमारे समर्थन में उतरे . मोहन जी चुप रहे . बहर हाल मामला तो बढ़ ही चुका था . जहां मै वोट मागने जाऊं 'गेस्ट हाउस ' पहले से मौजूद मिले . और मै एक ही बात बोलता था -'आखिरी मीटिंग जो लंका गेट पर होगी उसमे इसका जवाब दूंगा . नतीजा यह हुआ कि लंका की आख़िरी मीटिंग बहुत जबरदस्त हुई . उसके पहले यह रिवाज था कि उस आख़िरी दिन हर उम्मीदवार एक निश्चित दूरी पर माइक लगा कर प्रचार किया करते थे और वह मीटिंग ही तय कर देती थी कि कल के चुनाव में किसका पलडा भारी है ,लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ . विद्यार्थी परिषद ने एक दिन पहले ही अपनी सभा कर ली . सारे विश्वविद्यालय की निगाह हमारी सभा पर लगी हुयी थी . समूचा लंका खचा खच भरा हुआ था . लडकियां महिला विद्यालय की छत पर भरी पडी थी . हमारे मंच पर देबू दा के अलावा मोहन प्रकाश , राम बचन पांडे , नितीश कुमार वगैरह वगैरह सब रहे . 
        जब मेरा नाम बुलाया गया तो एक दम सन्नाटा . लंका के दुकानदार तक बाहर आ गए . वह हमारी जिंदगी का सबसे छोटा भाषण था . ..... 'आप सुनना चाहते हैं गेस्ट हाउस कांड .. आप सब नौजवान है .. कोइ एक नौजवान है जो किसी लड़की से दोस्ती करना नहीं चाहेगा ? कोइ हो हाथ उठा दे .. ' एक सन्नाटा पसर गया , अचानक तालियों की गडगडाहट से पूरा लंका भर गया . यह ताली सामने तो चुप हो गयी लेकिन महिला विद्यालय की छत से उठी तालियाँ बजती ही रही . मैंने आगे बोला -' लेकिन तीन हैं जिन्हें लड़किओं से दोस्ती नहीं पसंद है .. एक 'डेड बाड़ी ' दूसरे नपुंशक और तीसरे संघी .. आप हमें वोट दो या न दो लेकिन हम जमीज के हामी कभी नहीं हो सकते जहां पुरुषों का पुरुषों से सम्बन्ध जायज माना जा है .. ' चौतरफा तालिया बज रही थी , मै चुपचाप मंच पर खड़ा था एक शख्स रो रहा था वह थे देबू दा .. जब मै नीचे उतरा और देबू दा की तरफ बढ़ा तो तो वो गमछे से आँख पोंछ रहे थे और इतना ही बोले - स्साला फ्राड ...
         मोहन जी ने कहा पैदल चलो , लड़किया पुपर ताली बजा रही है उन्हें विष कर दो ...
( इस कथा को साहित्य में पढ़ना हो भाई काशी नाथ को पढ़ लीजिए जो उन्होंने विस्तार से 'हँस ' में लिखा है .
                                                                           जारी 

Sunday, September 8, 2013

दंगा तो होगा ही .........
.......अन्ना दिल्ली में था . ( हम थे भी लिख सकते थे , लेकिन जानबूझ कर 'था' लिख रहा हूँ . क्यों कि उसने संघ के उकसावे पर बहुत बड़ा पाप किया है . सड़क की उर्ज्वा को कम से कम तीस साल के लिए गोबर कर दिया है . जनता का यकीन 'सड़क ' से उठ गया है .जम्हूरी निजाम में संसद की ताकत सड़क से ही मापी जाती है .उसने सड़क को तोड़ा है जनता के अरमान को तोड़ा है ) आंदोलन गति के साथ आगे बढ़ रहा था .हम घुमते घामते हिन्दुस्तान टाइम्स के सामने पहुँच गए . सोचा अपने दोस्त शशि शेखर से मिल लूं . ( संपादक हिन्दुस्तान हिन्दी ) दफ्तर में गुसा तो लगा कि साउथ ब्लाक में जाना हो रहा है . सुरक्षा चाक चौबंद . मुलाहिजा हुआ . ऊपर गया फिर रोका गया . हम बैठे बैठे सोचते रहे भाई पहले तो ऐसे नहीं होता था ( गलती हमारी थी , बहुत दिनों बाद हम इस दफ्तर में जा रहे थे और उस जमाने में जाया करता था जब दहशतगर्दों का खौफ नहीं था . आज इन दफ्तरों की मजबूरी है ) मनोहर श्याम जोशी मृणाल पांडे .शीला झुनझुनवाल से मिलने ( झूठ बोल रहा हूँ ,कुछ लिखने और बनाने के लिए बे धड़क दफ्तर में घुसते थे और कहना नहीं पड़ता था काम तुरत मिल जाता था . जानते सब थे कि इस चिलचिलाती धूप में . हड्डी तोड़ ठंढ में , मूसलाधार बारिश में कोइ किसी से केवल 'मिलने ' नहीं आया है . एक वाकया मजेदार है तब साप्ताहिक हिन्दुस्तान चपटा था उसके संपादक थे मनोहर श्याम जोशी . कठिन गर्मी के दिन थे पसीने से तरबतर दफ्तर पहुंचा . बाहर ही केजरीवाल साहेब मिल गए मुस्कुराए बोले आज तुम लोगो की कोइ विशेष बैठक है ,अंदर तुम्हारा दोस्त रमेश दीक्षित भी है . मै कुछ जवाब दिए ही जोशी जी के कमरे में घुस गया . जोशी जी मुस्कुराए - बोलो कैसे चले ? हमने कहा बस ऐसे ही मिलने आ गया . जोशी जी गंभीर हो गए .घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और उससे बोले केजरीवाल साहेब को बुलाओ . केजरीवाल साहेब आ गए . जोशी जी ने कहा -हमें सौ रूपये उधार दे दीजिए . अगर आपके पास न हो तो किसी से मांग कर लाइए जरूरी है . केजरीवाल साहेब थोड़ी देर बाद लौटे और सौ रूपये जोशी के हाथ में रख दिए . जोशी जी ने नोटों को देखा .. मुस्कुराए और बोले - कई लोगो से मांगना पड़ा आपको ? केजरीवाल कुछ जवाब देते इसके पहले ही जोशी जी ने सारे नोट टेबुल पर फैला दिए .ये तीन नोट उसके हैं जो बस से सफर करता है ,ये चार नोट कैंटीन के हैं , और ये आपके अपने हैं . सही ? केजरीवाल हक्का बक्का जोर का ठहाका लगा . फिर जोशी जी ने खुलासा किया . जो नोट लम्बाई में दोहरी गयी है यह बस कंडक्टर ही करता है . बाकी तीन पर बेसन लगा है ताजा वह इस समय ब्रेड पकौड़ा बना है बाकी आपके हैं इनमे आपके बनारसी तम्बाकू की महक है ... बहुत बहुत धन्यवाद केजरीवाल साहेब अब आप भी यहीं बैठिये और काफी पीजिए . अचानक जोशी जी ने उन नोटों को मेरी तरफ बढ़ा दिया और बोले - इन नोटों को चला कर दिखाना तो और नोटों को मेरी तरफ बढ़ा दिए . हमारी आँखे गोल हो गयी . देखो तुम समाज्बादी हो ,पत्रकार हो , कार्टूनिस्ट हो और सबसे बड़ी बात 'फ्रीलांसर हो .ये जो फ्रीलांसर समाज्बादी होता है वह किसी से मिलने यूँ ही नहीं जाता ... फिर केजरीवाल की तरफ मुड़े -एक काम करिये अगले अंक में जिन कहानियों और कविताओं को जाना है उसे चंचल को दे दीजिए समय पर मिल जाय यह आपकी जिम्मेवारी है .)
    विषयान्तर हो गया . मुआफी नहीं मांगूगा . भाई शशी शेखर के दफ्तर में बैठे बैठे यह याद आ गया था . बहरहाल जब शेखर जी को पता चला तो उन्होंने तुरत बुलाया . हम लोग काफी देर बतियाते रहे उसमे हम दोनों एक जगह सहमत रहे कि अन्ना सड़क को धोखा दे रहा है . सड़क की राजनीति मरती है है तो फिजूल की सियासत घेरा बनाती है . मुजफ्फर नगर इसका ताजा उदाहरण है . 
एक पाव धूप ......
......उन दिनों काशी विश्वविद्यालय का दिल बड़ा हुआ करता था . गधे  को गढ़ कर घोड़ा बनाना और उसे दौड़ में उतार देने का चलन था . आज उसके बरक्स है . अब तो उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो पीठ पर जींस और आँखों पर ठप्पा बंधे आते है और जो कुछ भी रहता है बेचारे उसे भी उतार कर बाहर चले जाते हैं . इन्तेरेंस ? प्रवेश हुआ नहीं कि परीक्षा पहले दे दो . यह कौन सा चलन है ? जब लड़का पहले से ही तैयार है तो मोटी रकम पर ऐश करनेवाले प्राध्यापक किस लिए हैं ? लेकिन तब ऐसा कुछ नहीं था . और उसी दौर में मै भी पहुचा था . उन दिनों प्रवेश के लिए दो रूपये का एक फ़ार्म मिलता था . पीआरओ आफिस से . और यह आफिस कुलपति निवास और रुइया छात्रावास के सामने हुआ करता था . हमने फ़ार्म तो ले लिया . मुतमईन होने की खुशी में वापसी का डगर भूल गया . आना चाहिए था 'सिंह द्वार ' की तरफ मै मुड गया 'हवाई अड्डे की तरफ ' मई की कड़क धूप पैदल का सफर . चलता रहा . इक्का दुक्का लोग दिखे लेकिन किसी से डगर पूछने की हिम्मत नहीं हुई और मै कई मील आगे निकल गया . विश्वनाथ मंदिर के पीछे एक पेड़ के नीचे एक आदमी मिला . जो हमारे गाँव के लोंगो से मेल खाता दिखा . घुटने तक की धोती और बंडी पहने बैठा सुस्ता रहा था . हम उसके पास जा कर रुके और पूछा -अभी लंका कितनी दूर है ? वह समझ गया . तुम गलत आ गए हो , लंका तो उसी तरफ है जिधर से आ रहे हो . ... बैठो सुस्ता लो . गर्मी बहुत है . अभी एक बस आयेगी विश्वविद्यालय की है उस पर बैठ जाना लंका छोड़ देगी पैसा नहीं लगेगा . ... पानी पियोगे ? वह उठा और बगीचे में चला गया वहाँसे एक लोटे में पानी और थोड़ा सा गुड़ लेकर आया . विश्वविद्यालय का यह पहला सबक था जिसे मैंने उस 'आदमी ' से सीखा . उसने हमें बस में बिठा दिया और मै लंका आ गया . 
     तींन साल बाद जब मै छात्र संघ का अध्यक्ष बना तो वह 'आदमी 'हमें याद आया . उसकी तलाश में मै कईबार उस जगह को देखा , दरियाफ्त किया लेकिन कुछ पता नहीं चला . एक दिन मैंने देबू दा ( स्वर्गीय देव ब्रत मजूमदार ) से पूछा कि उसका पता कैसे किया जा सकता है . चूंकी देबू दा चार्टों के ही नेता नहीं थे कर्मचारियों के भी नेता थे . दादा ने सुझाव दिया तुम सुरेन्द्र त्रिपाठी से मिलो वह खोज देंगे आजकल कर्मचारियों के अध्यक्ष वही हैं . सुरेन्द्र त्रिपाठी थे तो कम्युनिस्ट पर दोस्त बहुत अच्छे थे . उन्होंने कहा क्यों खोज रहे हो . हमने कहा उसने हमें कुछ 'उधार ' दिए हैं उसे लौटाना है . सुरेन्द्र जी ठहाका लगा कर हँसे , भाई यहाँ जितने भी लोग हैं सब के सब का कर्जदार तो मालवी जी रहे आज तक इनका कर्ज उतार रहे हैं . चाहे वी सी श्री माली हों या आपका दोस्त मलिक , इन सब ने मालवी जी को कर्ज दिया है ..... एक काम करो कल सेन्ट्रल आफिस आ जाना , ग्यारह बजे मालियों की मीटिंग है उसमे से पहचान लेना . एन वक्त पर मै गया और उस 'आदमी ' को पहचान लिया . शिव धनी राम . दूसरे दिन शिव धनी का तबादला केन्द्रीय दफ्तर से छात्रसंघ हो गया . 
   बात उन दिनों की है जब छात्रसंघ के कर्मचारियों की तूती बोलती थी .आज से शिव धनी छात्र संघ के माली थे . आहिस्ता आहिस्ता शिव धनी घुल मिल गए . पांडे जी जो कि चपरासी थे वहीं छात्रसंघ में रहते भी थे अब दो जन हो गए . बाकी स्टाफ ड्यूटी के बाद घर चला जाता था लेकिन शिव धनी और पांडे जी वहीं खाना बनाते और दिन भर की खबर ... एक दो के बाद .. आप से तुम पर उतर जाते .. मजूमदार......मार्कंडे के साथ काम किया हूँ ..वो ठीक नहीं है , पीठ पीछे तुम्हारी बुराई करता है . वगैरह वगैरह . और रात का खाना 'साझा होता ' . एक दिन हमने शिव धनी से पूछा तुम्हे याद है किसी लड़के को गुड़ खिला कर पानी पिलाया था और उसे बस में बिठाया था . हाथ में पानी का ग्लास लिए शिव धनी ने बहुत अन्मयास्क ढंग से कहा -साहेब बहुतों को खिलाया पिलाया है कहाँ तक याद करें . सच कहता हूँ अगर वह मलिक का बच्चा वहाँ न मौजूद रहता तो मै शिव धनी का पैर पकड़ कर रो लेता और हल्का हो जाता . लेकिन ऐसा नहीं कर सका . दूसरे दिन कैम्पस में नई चर्चा चल निकलती --'हव स्साला ज्यादा ले लिया था ' . उसी तरह जैसे हमसे चुनाव के समय पूछा गया था 'गेस्ट हाउस कांड ' का जवाब दो . 
  शिव धनी ने एक बार भी नहीं बोला -नेकी कर दरिया में डाल .यह तो अध्यापक लोग पढ़ाते हैं . शिव धनी तो उसमे जीते हैं .
                                                -जारी   

Friday, September 6, 2013

अन्न भोग  
अन्न महज पेट भरने की सामग्री भर नहीं है . पेट को अन्न की जरूरत भी नहीं  होती और न ही अन्न को पेट पसंद करता है . भूख दिमाग में लगती है . बेचारा पेट अपनी बनावट और बुनावट के लिए दिमाग की बेगारी करता है . बाज दफे तो पेट दिमाग के बर् खिलाफ जाकर हड़ताल तक कर बैठता है . जो भी हो लेकिन अन्न की जरूरत तो होती ही है . 
    प्रकृति में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अन्न को खाता ही नहीं उससे खेलता भी है . अपने रूचि के अनुरूप अन्न को बदलता है . इस अन्न बदलाव पर आज फेसबुक पर अंजना चौहान सिंह का एक आलेख है 'जंक फ़ूड ' के खिलाफ . हमने देखा कि इतना खूबसूरत और ज्ञानवर्धक आलेख बहुत  हल्के से चला जा रहा है . इसलिए हम अंजना जी के साथ उनके किचेन तक जाने की इजाजत  चाहता हूँ . हमारे पास कई टिप्स हैं . 
         'अन्न की पूजा करो ' यह प्राण है .
वेद की ऋचा है जिसका भाष्य उपनिषद करता है . कई वामपंथी जो संस्कृत से , वेद उपनिषद से चिढते हैं उनसे कहता हूँ मित्र 'अन्न ' पर की गयी वेद ,उपनिषद की मान्यता से आप इनकार भले ही करें लेकिन खाने के लिए अन्न ही खोजेंगे हथौड़ा और रिंच नहीं हजम कर पायंगे . दक्षिण पंथी इनसे भी दो कदम आगे है . वह इस ज्ञान को 'तुन' के लाल कपड़े में लपेट कर फूल चढ़ा देगा और झुक कर आगे बढ़ जायगा . संस्कृत ज्ञान का भण्डार है पर ये पोंगापंथी अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेंगे . 
   एक दिन भाई धर्मेन्द्र राय ने किसी की युक्ति को फेस बुक पर जस का तस दर्ज किया - आप अपनी जिंदगी में कभी किसी पुलिस अधिकारी से मिल लिए या किसी डाक्टर से मिल लिए तो उसे आजीवन याद करते रहते हैं लेकिन जिससे हर दिन तीनबार मिलते हैं उसे कत्तई नहीं याद करते .वह है अन्न और अन्नदाता . ' 
    इस अन्न के साथ आदमी के बच्चे ने बड़ा मजाक किया है . उसका रूप बिगाड़ कर . उसे सुधारने की जरूरत है जिससे आदमी का बच्चा तो सुधरा रहे . 
        अन्न ग्रहण पर फिर संस्कृत पर आ रहा हूँ . संस्कृत ज्ञान कहता है - भोजन को पहले देखो . एक सौंदर्यबोध पैदा होगा थाली में सजे अन्न से . उसकी महक लो , दूसरी इंद्री जागृत होगी . उसे छुओ . स्पर्श करो . फिर उसका स्वाद लो आहिस्ता आहिस्ता इस अन्न का मूल तत्व आपकी जननेंद्रिय को विकसित करेगी . यह है अन्न महिमा . 
   आखीर में किसका अन्न खाते हो . यह बहुत जरूरी है . इसका सबसे खूब सूरत उदाहरण महा भारत में मिलता है . भीष्म पितामह घायल होकर गिर गए हैं . सूर्य के उत्तरायण होने पर ही प्रंका त्याग करेंगे . सो सांझ को जब कौरव पांडव युद्ध विराम करते हैं तो अपने मुखिया से नीति सीखने भीष्म के पास इकट्ठा होते हैं और भीष्म नीति की शिक्षा देते हैं . एक दिन जब भीष्म बोल रहे थे तो द्रौपदी ने ठहाका लगाया . अर्जुन को गुस्सा आगया , वे द्रौपदी की तरफ दौड़े . कृष्ण बीच में आ गए और बोले कि पहले उससे पूछो तो सही कि वह हंसी क्यों . द्रौपदी ने भीष्म से कहा -आज आप नीति की शिक्षा दे रहे हैं उस समय आपकी नीति कहाँ थी जब चीर हरण हो रहा था ? छल से युधिष्ठिर को ठगा जा रहा था ,,,,, भीष्म ने बहुत खूबसूरत जवाब दिया था - बेटी ! मै अन्न दोष से पीड़ित था . यह अन्न दोष आज के समाज की सबसे बड़ी बीमारी है . भ्रष्टाचार , राजनीति , मीडिया सब के सब अन्न दोष से पीड़ित हैं .
सिंहावलोकन

हम और मै .
.... उन दिनों ....
काशी विश्वविद्यालय बनारस के दाहिने सिस्से को काट-छांट कर बसाया गया है . यह एक बेहतर शिक्षण संस्थान भर नहीं है ,अपने आपमें एक मुकम्मिल 'एल्बम है .इसे पलटते जाइए और डूबते उतराते रहिये . अनोखी जगह  है . इस संस्थान में दाखिला लेना , अपने आपमें एक 'घटना ' होती है . और घटना बनने की ललक हर नौजवान में होती है . हम भी नौजवान रहे ( आज भी हूँ ) सो हमने भी यहा दाखिले का सपना देखा और चल पड़े सपना को पूरा करने .
गाँव के एक कालेज से इंटर की मार्कशीट , मोमजामे में दो पराठे , एक ढेला गुड़ . चालीस रूपये नकदी . पैंट और कमीज . बस इतना ही सब था . पर दाखिला नहीं मिला . दोस्तों ने खूब चिढाया ' बाप मरे अंधियारे बेटा पावर हाउस ' बहर लौट आया . यह कहते हुए कि चलो जब यहाँ महादेवी वर्मा जी दाखिला नहीं ले पायी तो मेरी क्या औकात . दिल मजबूत किया और काशी का मध्य क्षेत्र पकड़ा . काशी विद्यापीठ . 'शास्त्रियों ' का धर्मस्थल . बापू की डाली हुई नीव पर अपने तमाम अभावों के बीच टन कर खड़ा यह विश्वविद्यालय आजादी की लड़ाई का केन्द्र रहा है . दाखिला ले लिया . यहाँ लगे हाथ जिक्र कर दूं कि हम भाग्यशाली रहे ,हमारे कुलपति थे - राजाराम शास्त्री . दाखिले के तुरत बाद जेल जाना पड़ गया . हुआ यूँ कि उन दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे चौधरी चरण सिंह . उन्हें समाजवादियों से चिढ़ थी . और प्रदेश के तमाम विश्वविद्यालयों , विद्यालयों के छात्र संघों पर समाजवादी युवजन सभा का कब्जा रहा . यह मुख्यमंत्री को रास नहीं आता था . सो उन्होंने छात्र संघों को बंद करने का फरमान निकाल दिया . 'आ बैल मुझे मार ' आंदोलन शुरू हो गया . उसी झटके में हम भी नेता हो गए . चौधरी चरण के मंच पर चढ़ कर उनसे माइक छीन लिया . बस इतना ही अपराध था . और जेल चला गया . इसकी चर्चा रही . डेढ़ महीने बाद जब लौटा तब तक अखबारों ने हमें उड़ने की जगह दे दी थी .उस समय काशी विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे भाई मार्कंडे सिंह . उन्होंने हमें विश्वविद्यालय में दाखिला दिलवा दिया . और मै फाइन आर्ट्स का छात्र बन गया .
         फाइन आर्ट्स उन दिनों विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए 'दर्शनीय स्थल ' था . क्यों कि यह अकेला विभाग था जहां लड़के लडकियां उन्मुक्त भाव से रहते थे . साथ साथ . यहीं पर हमने पहली बार 'लड़की ' से बात करना सीखा . उनके साथ चाय पीना सीखा . यह हमारे  तमीज का पहला कायदा था .
                                                                                                              जारी -