Thursday, August 30, 2012
Wednesday, August 29, 2012
तोरी बोलिया सुने कोतवाल ....
......फेस बुक मकड जाल में उलझ गया है .'दलित ' अम्बेडकर ,तरह तरह के देवी देवता , अनाप सनाप गरियाना , .... ( हम इसके विरोध में नहीं हैं दोस्त .. जिंदगी कातने में यह मकड जाल बेहतरीन तरी का है ) मै निकल आया गाँव ..... पूर्वी उत्तर प्रदेश चेरा पूंजी हो गया है .दो पहर तक गर्मी , दोपहर बाद उमस के बीच पुरवाई और फिर बारिश का झोंका.. रात में गुलाबी ठंढ .चारों तरफ हरियाली .मोर की पिहक .मेढक की बदमासी .रात भर टर्र टर्र उसके झींगुर की सारंगी ... कोइराने में झूला पड़ा है .धुप्प अन्धेरा है .कजरी झूले के साथ आरोह और अवरोह पर झूल रही है .मोटू उकसाता है .कजरी देखने चलोगे ? देखने कि सुनने ? .... बदतमीज ...लोकगीत केवल 'कर्ण ग्राही ' ही नहीं होता इसमें ' चाछासु सुख ' की महक भी होती है ... गंदे ! तुम शहर में रहते रहते नर्कभोगी हो चुके हो .संगीत सुख से वंचित हो .यह जो लोक कला है संगीत है यह 'क्लासिकल मुजिक ' की मा है . डूब चुके शब्दों का जखीरा पड़ा है ... ' नह्कै' लाये गवनवा ... सुने हो ? निदिया ' बैरन ' भई ... तुम नकली परिमार्जित भाषा में कूदते रहो प्यारे लेकिन रस तो लोक में ही है .आज कविता में बुद्धि नाथ मिश्र जी हैं जो चुन चुन कर इन शब्दों को कविता में टाँक रहें हैं .... चलो माटी की महक में चलो .. लेकिन अंधेरी रात ... ? क्यों डरता है . आदमी से ज्यादा खतनाक कोइ जानवर नहीं होता .. इसके पदचाप से ही सब बगल हो जाते हैं ... हम चल पड़े मोटू ने मेरा हाथ पकड़ा हुआ है .मुलायम घास की झुरमुट ,गीली जमीन की फिसलन ,गंधराज की महक , मकई के खेत से गुजरते हुए दो जोड़ी इन पैरों ने महसूस किया कोइ दो आवाजें सावधानी से खिल खिला रही हैं .मोटू ने मेरे मुह पर हाथ रख दिया .खींच कर आगे ले चला ....व्यतिक्रम मत पैदा करो .. ये दो दिल हैं ..
काले दैत्याकार नीम के पेड पर झूला ऊपर आसमान तक जा रहा है ..वापसी में नव यौवना मुग्धाओं की चीत्कार से भर जाता है . नीचे सेआवाज आती है और .. और .. हमें खुसरो की फुसफुसाहट सुनाई पड़ती है .. ' झूला किन्ने डाला रे .. अमरइयां .. झूले मोरा सैयां लू मै बलईयाँ.... ' मोस्ट इराटिक सांग '.. मोटू चिकोटी काटता है .. चुपचाप सुनो ... ज्ञान मत बघारो .. ' रिम झिम बरसे कारी बदरिया .. पीया घर नाही ... प्रकृति के लास्य को कालिदास ने जिया था ? या किसी दूसरे के अनुभव को बांटा था ? अबूझ पहेली है . लेकिन ऋतु संहार अमर कृति है .... 'दामिनी चमके '.. जियरा हुलसे ..../ हम लौट आये हैं .लेकिन कजरी अभी भी बदन को भिगो रही है .अमराई के झूले की तरफ बढ़ता हूँ .. बिस्तर से गिरते गिरते बचा , नीद खुल गयी .. मोटू के हाथ में काली काफी का प्याला है - बदतमीज ... बहुत बिगड गए हो .. चलो उठो .. पेंटिंग बनानी है ..
......फेस बुक मकड जाल में उलझ गया है .'दलित ' अम्बेडकर ,तरह तरह के देवी देवता , अनाप सनाप गरियाना , .... ( हम इसके विरोध में नहीं हैं दोस्त .. जिंदगी कातने में यह मकड जाल बेहतरीन तरी का है ) मै निकल आया गाँव ..... पूर्वी उत्तर प्रदेश चेरा पूंजी हो गया है .दो पहर तक गर्मी , दोपहर बाद उमस के बीच पुरवाई और फिर बारिश का झोंका.. रात में गुलाबी ठंढ .चारों तरफ हरियाली .मोर की पिहक .मेढक की बदमासी .रात भर टर्र टर्र उसके झींगुर की सारंगी ... कोइराने में झूला पड़ा है .धुप्प अन्धेरा है .कजरी झूले के साथ आरोह और अवरोह पर झूल रही है .मोटू उकसाता है .कजरी देखने चलोगे ? देखने कि सुनने ? .... बदतमीज ...लोकगीत केवल 'कर्ण ग्राही ' ही नहीं होता इसमें ' चाछासु सुख ' की महक भी होती है ... गंदे ! तुम शहर में रहते रहते नर्कभोगी हो चुके हो .संगीत सुख से वंचित हो .यह जो लोक कला है संगीत है यह 'क्लासिकल मुजिक ' की मा है . डूब चुके शब्दों का जखीरा पड़ा है ... ' नह्कै' लाये गवनवा ... सुने हो ? निदिया ' बैरन ' भई ... तुम नकली परिमार्जित भाषा में कूदते रहो प्यारे लेकिन रस तो लोक में ही है .आज कविता में बुद्धि नाथ मिश्र जी हैं जो चुन चुन कर इन शब्दों को कविता में टाँक रहें हैं .... चलो माटी की महक में चलो .. लेकिन अंधेरी रात ... ? क्यों डरता है . आदमी से ज्यादा खतनाक कोइ जानवर नहीं होता .. इसके पदचाप से ही सब बगल हो जाते हैं ... हम चल पड़े मोटू ने मेरा हाथ पकड़ा हुआ है .मुलायम घास की झुरमुट ,गीली जमीन की फिसलन ,गंधराज की महक , मकई के खेत से गुजरते हुए दो जोड़ी इन पैरों ने महसूस किया कोइ दो आवाजें सावधानी से खिल खिला रही हैं .मोटू ने मेरे मुह पर हाथ रख दिया .खींच कर आगे ले चला ....व्यतिक्रम मत पैदा करो .. ये दो दिल हैं ..
काले दैत्याकार नीम के पेड पर झूला ऊपर आसमान तक जा रहा है ..वापसी में नव यौवना मुग्धाओं की चीत्कार से भर जाता है . नीचे सेआवाज आती है और .. और .. हमें खुसरो की फुसफुसाहट सुनाई पड़ती है .. ' झूला किन्ने डाला रे .. अमरइयां .. झूले मोरा सैयां लू मै बलईयाँ.... ' मोस्ट इराटिक सांग '.. मोटू चिकोटी काटता है .. चुपचाप सुनो ... ज्ञान मत बघारो .. ' रिम झिम बरसे कारी बदरिया .. पीया घर नाही ... प्रकृति के लास्य को कालिदास ने जिया था ? या किसी दूसरे के अनुभव को बांटा था ? अबूझ पहेली है . लेकिन ऋतु संहार अमर कृति है .... 'दामिनी चमके '.. जियरा हुलसे ..../ हम लौट आये हैं .लेकिन कजरी अभी भी बदन को भिगो रही है .अमराई के झूले की तरफ बढ़ता हूँ .. बिस्तर से गिरते गिरते बचा , नीद खुल गयी .. मोटू के हाथ में काली काफी का प्याला है - बदतमीज ... बहुत बिगड गए हो .. चलो उठो .. पेंटिंग बनानी है ..
Monday, August 27, 2012
पंडित जी ! प्रणाम ......
३ सितम्बर को पंडित जी का जन्म दिन है .मै नहीं जानता औरंगाबाद क्या कर रहा है ,लेकिन इतना दावे के साथ कह सकता हूँ कि आज भी बहुत सारे लोग हैं जिनके जेहन में पंडित जी ज़िंदा है और लोग उन्हें प्रणाम कर रहें हैं .( औरंगाबाद बनारस का एक सकसा हुआ मोहल्ला है जिसका जिक्र होते ही पंडित जी उठ खड़े होते हैं ,औरंगाबाद प्तातीक बनचुका है पंडित जी का ,उनकी अगली पीढ़ियों का -पंडित कमला पति त्रिपाठी , लोकपति त्रिपाठी ,राजेश पति त्रिपाठी ,और अब ललितेश त्रिपाठी .गरज यह कि इस घर में एक से एक विद्वान हैं जिनका जिक्र नहीं कर रहा हूँ .) ....हमने पंडित जी को पहली दफा जौनपुर में देखा .पंडित जी चंदौली से चुनाव हार गए थे .जौनपुर के उप चुनाव में वे जौनपुर आ गए थे .पंडित जी सर्किट हाउस में कांग्रेसियों से घिरे बैठे थे .पता नहीं कैसे अचानक मै चला गया उन्हें देखने .पंडित जी लान में बैठे थे .उनके बैठने का अंदाज भी कमाल का रहा एक पाँव जमीन पर दूसरा घुटने पर .लोग आ रहें थे और उस पैर को छू कर प्रणाम कर रहें थे जो दूसरे पैर पर टिका पड़ा था .मै गया और हाथ जोड़ कर प्रणाम किया .और वही खड़ा हो गया .पंडित जी ने गौर से देखा .तब तक किसी ने मेरा परिचय मेरे दादा के हवाले से दिया .( आजादी की लड़ाई में हमारा परिवार क्रांतिकारी माना जाता रहा है ) पंडित जी मुस्कुराए .. तुम उनके नाती हो ...किसी ने आगे बताया -ये समाजवादी है .पंडित जी मुस्कुराए ... बोले कुछ नहीं .अब लगता है पंडित जी को समाजवाद से मोह था शायद आजीवन .( बाद के दिनों में धर्मयुग में डॉ शिव प्रसाद सिंह के एक लेख में इसका जिक्र है कि कांग्रेस समाजवादी की एक बैठक में डॉ लोहिया ने पंडित जी के माथे पर लागे तिलक को लेकर पंडित जी को झिडकी दी थी ) पंडित जी से वह पहली मुलाक़ात और फलाने के नाती आजीवन बना रहा .
जौनपुर छोड़ कर जब बनारस पहुचा और विश्वविद्यालय की राजनीति में सक्रीय हुआ तो पंडित जी के पूरे परिवार से जुड गया ,गो कि हम समाजवादी रहें और पग-पग पर कांग्रेस के विरोध में रहे.चूंकी विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच कांग्रेस न के बराबर रही और समाजवादियों की टक्कर संघी घराने से होती रही इसमें कांग्रेस गाहे ब गाहे समाजवादियों के साथ आ खड़ी होती .पंडित जी के नाती आबू (पूरा नाम राजेश पति त्रिपाठी है आज कांग्रेस के अगली कतार के नेता हैं हम लोग इन्हें आबू के नाम से संबोधित करते रहे.) से हमारी दोस्ती हो गयी जो अब तक चल रही है. ७३ छात्र संघ के चुनाव में भाई मोहन प्रकाश समाजवादी खेमे से चुनाव मैदान में थे .मुकाबला संघ से था .कांग्रेस और कम्युनिस्ट ने भी अपने अपने उम्मीदवार लड़ाए थे .एक दिन हमारे नेता देबूदा ( देवब्रत मजुमदार ) ने मुझे अकेले बुला कर कहा - पंडित आये हुए हैं तुम उनसे मिल आवो ,कुछ मदद कर दे तो अच्छा रहेगा .सांझ को बचते बचाते मै औरंगा बाद पहुचा .आबू को पहले से ही मालुम था सो उन्होंने अकेले में मिलवाने की व्यवथा कर रखी थी .पंडित जी से यह आत्मीय मुलाक़ात थी .संकोच्वास मै उनसे चंदे की बात नहीं कर सका .और सोच लिया कि देबूदा से झूठ बोल दूंगा कि उन्होंने कुछ भी नहीं दिया .उठकर चलने लगा तो पंडित जी ने रोका - जाने के पहले बहू जी से मिल लेना ( आबू की मा चंद्रा त्रिपाठी जी ) और जब बहूजी से मिला तो उन्होंने जीत की अग्रिम बधाई दी और हाथ में धीरे से एक लिफाफा पकड़ा दिया और बोली -और जरूरत पड़े तो हमें बता देना .
एक और घटना का जिक्र करना चाहूँगा .७१ में कांग्रेस के सहयोग से उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह की सरकार थी .चौधरी चरण ने छात्र संघों को भंग कर दिया था .पूरे सूबे में छात्र उबाल पर थे .तमाम छात्र नेतावों पर अपराधिक मुक़दमे दर्ज हो चुके थे .लोग पकडे जा रहें थे .हम पर भी वारंट था और पुलिस बड़े मुस्तैदी से हमारी तलाश में थी .काफी सोच विचार के बाद तय हुआ कि अब क्या किया जाय . इसी बीच चौधरी चरण की सरकार गिर गयी और पंडित जी मुख्य मंत्री बन गए लेकिन पुलिस हमारीतालाश में लगी रही .और हमलोग पंडित जी के घर में डेरा डाले पड़े रहे. यह आबू की दोस्ती थी .एक दिन अचानक पंडित जी औरंगाबाद आ पहुचे .ठीक उसी समय हम लोंगो के लिए खाना लगाया जा रहा था .पंडित जी ने बहूजी पूछा कोइ आया है क्या ? बहूजी मुस्कुराई और बोलीं आबू के दोस्त लोग हैं .पंडित जी को अजीब लगा होगा कि आबू के दोस्त ..... न कोइ दुआ न बंदगी ...पंडित जी उठे और सीधे उसी कमरे के सामने आगये जहां हम लोग पसरे पड़े थे .हम लोंगो ने प्रणाम किया .पंडित जी मुस्कुराए ..अच्छा तो तुम लोग मेरे ही घर में ....अपने सचिव को कहा -डी यम और यस.पी को यहीं बुला लो .और पंडित जी वहीं दरवाजे पर कुर्सी लगा कर बैठ गए .थोड़ी देर में डी यम और यस पी सामने .पंडित जी ने पहला सवाल पूछा -उन नेताओं की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही ? एस पी ने कहा -दबिस डी जा रही है मिल नहीं रहें हैं .. पंडित जी मुस्कुराए कहाँ दे रहें हो दबिस .. मुख्यमंत्री के घर दबिस दिया ? ... हमने समझा अब गए काम से ..पंडित ने कहा तुम लोग नहीं पकड़ पाओगे .. ये सब यहीं है ...अब इन्हें पकडना भी नहीं ... कल लखनऊ पहुच कर इन पर लगे मुकदमे वापस ले लुऊंगा .. परेशान मत हो .. कम से कम मेरा खर्चा तो कुछ कम हो ... और हम मुस्कुराते हुए बाहर आगये ...
कांग्रेस के अंदरूनी खांचे में समाजवाद बनाम जड़वाद / नेहरू बनाम पटेल / उत्तर परदेस में गुप्ता बनाम गौतम / की एक कड़ी चरण बनाम पंडित जी हमने आखन देखी का जिक्र किया .पंडित जी के पास तिलक भी था और समाजवाद भी .इन्ही पंडित जी का ऐलान था -बाबरी मस्जिद पर एक भी फावड़ा गिरेगा तो वह मेरी पीठ पर गिरेगा . प्रणाम पंडित जी .
३ सितम्बर को पंडित जी का जन्म दिन है .मै नहीं जानता औरंगाबाद क्या कर रहा है ,लेकिन इतना दावे के साथ कह सकता हूँ कि आज भी बहुत सारे लोग हैं जिनके जेहन में पंडित जी ज़िंदा है और लोग उन्हें प्रणाम कर रहें हैं .( औरंगाबाद बनारस का एक सकसा हुआ मोहल्ला है जिसका जिक्र होते ही पंडित जी उठ खड़े होते हैं ,औरंगाबाद प्तातीक बनचुका है पंडित जी का ,उनकी अगली पीढ़ियों का -पंडित कमला पति त्रिपाठी , लोकपति त्रिपाठी ,राजेश पति त्रिपाठी ,और अब ललितेश त्रिपाठी .गरज यह कि इस घर में एक से एक विद्वान हैं जिनका जिक्र नहीं कर रहा हूँ .) ....हमने पंडित जी को पहली दफा जौनपुर में देखा .पंडित जी चंदौली से चुनाव हार गए थे .जौनपुर के उप चुनाव में वे जौनपुर आ गए थे .पंडित जी सर्किट हाउस में कांग्रेसियों से घिरे बैठे थे .पता नहीं कैसे अचानक मै चला गया उन्हें देखने .पंडित जी लान में बैठे थे .उनके बैठने का अंदाज भी कमाल का रहा एक पाँव जमीन पर दूसरा घुटने पर .लोग आ रहें थे और उस पैर को छू कर प्रणाम कर रहें थे जो दूसरे पैर पर टिका पड़ा था .मै गया और हाथ जोड़ कर प्रणाम किया .और वही खड़ा हो गया .पंडित जी ने गौर से देखा .तब तक किसी ने मेरा परिचय मेरे दादा के हवाले से दिया .( आजादी की लड़ाई में हमारा परिवार क्रांतिकारी माना जाता रहा है ) पंडित जी मुस्कुराए .. तुम उनके नाती हो ...किसी ने आगे बताया -ये समाजवादी है .पंडित जी मुस्कुराए ... बोले कुछ नहीं .अब लगता है पंडित जी को समाजवाद से मोह था शायद आजीवन .( बाद के दिनों में धर्मयुग में डॉ शिव प्रसाद सिंह के एक लेख में इसका जिक्र है कि कांग्रेस समाजवादी की एक बैठक में डॉ लोहिया ने पंडित जी के माथे पर लागे तिलक को लेकर पंडित जी को झिडकी दी थी ) पंडित जी से वह पहली मुलाक़ात और फलाने के नाती आजीवन बना रहा .
जौनपुर छोड़ कर जब बनारस पहुचा और विश्वविद्यालय की राजनीति में सक्रीय हुआ तो पंडित जी के पूरे परिवार से जुड गया ,गो कि हम समाजवादी रहें और पग-पग पर कांग्रेस के विरोध में रहे.चूंकी विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच कांग्रेस न के बराबर रही और समाजवादियों की टक्कर संघी घराने से होती रही इसमें कांग्रेस गाहे ब गाहे समाजवादियों के साथ आ खड़ी होती .पंडित जी के नाती आबू (पूरा नाम राजेश पति त्रिपाठी है आज कांग्रेस के अगली कतार के नेता हैं हम लोग इन्हें आबू के नाम से संबोधित करते रहे.) से हमारी दोस्ती हो गयी जो अब तक चल रही है. ७३ छात्र संघ के चुनाव में भाई मोहन प्रकाश समाजवादी खेमे से चुनाव मैदान में थे .मुकाबला संघ से था .कांग्रेस और कम्युनिस्ट ने भी अपने अपने उम्मीदवार लड़ाए थे .एक दिन हमारे नेता देबूदा ( देवब्रत मजुमदार ) ने मुझे अकेले बुला कर कहा - पंडित आये हुए हैं तुम उनसे मिल आवो ,कुछ मदद कर दे तो अच्छा रहेगा .सांझ को बचते बचाते मै औरंगा बाद पहुचा .आबू को पहले से ही मालुम था सो उन्होंने अकेले में मिलवाने की व्यवथा कर रखी थी .पंडित जी से यह आत्मीय मुलाक़ात थी .संकोच्वास मै उनसे चंदे की बात नहीं कर सका .और सोच लिया कि देबूदा से झूठ बोल दूंगा कि उन्होंने कुछ भी नहीं दिया .उठकर चलने लगा तो पंडित जी ने रोका - जाने के पहले बहू जी से मिल लेना ( आबू की मा चंद्रा त्रिपाठी जी ) और जब बहूजी से मिला तो उन्होंने जीत की अग्रिम बधाई दी और हाथ में धीरे से एक लिफाफा पकड़ा दिया और बोली -और जरूरत पड़े तो हमें बता देना .
एक और घटना का जिक्र करना चाहूँगा .७१ में कांग्रेस के सहयोग से उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह की सरकार थी .चौधरी चरण ने छात्र संघों को भंग कर दिया था .पूरे सूबे में छात्र उबाल पर थे .तमाम छात्र नेतावों पर अपराधिक मुक़दमे दर्ज हो चुके थे .लोग पकडे जा रहें थे .हम पर भी वारंट था और पुलिस बड़े मुस्तैदी से हमारी तलाश में थी .काफी सोच विचार के बाद तय हुआ कि अब क्या किया जाय . इसी बीच चौधरी चरण की सरकार गिर गयी और पंडित जी मुख्य मंत्री बन गए लेकिन पुलिस हमारीतालाश में लगी रही .और हमलोग पंडित जी के घर में डेरा डाले पड़े रहे. यह आबू की दोस्ती थी .एक दिन अचानक पंडित जी औरंगाबाद आ पहुचे .ठीक उसी समय हम लोंगो के लिए खाना लगाया जा रहा था .पंडित जी ने बहूजी पूछा कोइ आया है क्या ? बहूजी मुस्कुराई और बोलीं आबू के दोस्त लोग हैं .पंडित जी को अजीब लगा होगा कि आबू के दोस्त ..... न कोइ दुआ न बंदगी ...पंडित जी उठे और सीधे उसी कमरे के सामने आगये जहां हम लोग पसरे पड़े थे .हम लोंगो ने प्रणाम किया .पंडित जी मुस्कुराए ..अच्छा तो तुम लोग मेरे ही घर में ....अपने सचिव को कहा -डी यम और यस.पी को यहीं बुला लो .और पंडित जी वहीं दरवाजे पर कुर्सी लगा कर बैठ गए .थोड़ी देर में डी यम और यस पी सामने .पंडित जी ने पहला सवाल पूछा -उन नेताओं की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही ? एस पी ने कहा -दबिस डी जा रही है मिल नहीं रहें हैं .. पंडित जी मुस्कुराए कहाँ दे रहें हो दबिस .. मुख्यमंत्री के घर दबिस दिया ? ... हमने समझा अब गए काम से ..पंडित ने कहा तुम लोग नहीं पकड़ पाओगे .. ये सब यहीं है ...अब इन्हें पकडना भी नहीं ... कल लखनऊ पहुच कर इन पर लगे मुकदमे वापस ले लुऊंगा .. परेशान मत हो .. कम से कम मेरा खर्चा तो कुछ कम हो ... और हम मुस्कुराते हुए बाहर आगये ...
कांग्रेस के अंदरूनी खांचे में समाजवाद बनाम जड़वाद / नेहरू बनाम पटेल / उत्तर परदेस में गुप्ता बनाम गौतम / की एक कड़ी चरण बनाम पंडित जी हमने आखन देखी का जिक्र किया .पंडित जी के पास तिलक भी था और समाजवाद भी .इन्ही पंडित जी का ऐलान था -बाबरी मस्जिद पर एक भी फावड़ा गिरेगा तो वह मेरी पीठ पर गिरेगा . प्रणाम पंडित जी .
Sunday, August 26, 2012
वो इन्कलाब के दिन थे ...
उज्जवल जी के 'हल्फिया बयान ' जिस तरह मौक - ये -वारदात से दिए जा रहें है वह काफी दिलचस्प और और मौजूदा हालात को नापने में मददगार साबित हो रहें हैं .अब चूंकी हमारा भी जिक्र आ रहा है चुनांचे यह जरूरी लगने लगा कि हम उसे तस्दीक करते हुए आपको उसी मुकाम पर ले चलूँ जहां का यह अफ़साना है .काशीविश्व् विद्यालय ( हमलोग इसमें ' हिन्दू ' नहीं लगाते ) के दो प्रजातियों का जिक्र आया है . ' बलियाटिक ' और मकालू .पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार समेत तमाम हिन्दी भाषी ' लोग ' बलियाटिक और हाई फाई वाले लोग मकालू .य सच है कि मै दोनों में रहा .विश्व विद्यालय में हमारी फैकल्टी सबसे छोटी थी .कुल जमा पूंजी तीस लोग तुर्रा यह कि लडकियां किसी भी मायने में किसी से कम नहीं .उन्मुक्त माहौल .हमारे टीचर भी एक से बढ़ कर एक .' सर ! आज यहाँ क्लास करने का मन नहीं कर रहा है ....किसी एक लड़की ने बहुत ही महीन अंदाज में गुजारिश किया और पूरी क्लास कैंटीन पर लग जाती थी .कैंटीन पर चाय पीनेवाले बढ़ जाया करते थे .हमारी पढाई ,उसका विषय बंधन मुक्त रहा है .यह गांधी की बुनियादी तालीम का अघोषित प्रयोग था '.हाथ का हुनर ' और मन की उड़ान बड़े एकाग्र चित्त से स्केच बुक पर उतारते थे .कोइ चाय पी रहा है , कोइ घास पर लेटा है ,हम उसे बनाते थे पूरी मस्ती के साथ . यह था फाइन आर्ट का माहौल जिसका मै भी एक कारकून था इस लिए मै मकालू कहलाया .वो आदते आज तक जस की तस पडी हैं ,जिसके चलते बाज दफे " बे इज्जत भी होना पडता है .अभी हाल में एक संभ्रांत महिला को यार कहकर संबोधित कर दिया वो हत्थे से उखड गयी ,किसी झुके चेहरे को 'ठोढी पकड़ कर ऊपर उठा दूं और कहूँ कि अब आँख मिला कर बात करो तो कई ' छुई -मुइयों ' की तरह विलुप्त हो जाती हैं .लेकिन शुक्रगुजार हूँ फेसबुक का कि कई चेहरे ऐसे भी मिले जो दमदारी के साथ हाथा पाई तक करने पर आमादा हो जाती है .कितना अच्छा लगता है यह बराबरी का रिश्ता .अभी जिसका जिक्र नीलाक्षी जी ने किया कि वो हमसे भीड़ गयी थी सही है हमें अच्छा लगा था .औरत और मर्द के इस रिश्ते को बनाने में बहुत दिक्कते आयी लेकिन हम सफल रहे.एक वाकया सुनाता हूँ . अभी हँस के किसी अंक में प्रसिद्ध कथाकार डॉ काशी नाथ सिंह ने हमारे ऊपर दो पेज लिख डाले .उनका एक वाक्य मजेदार है -' चंचल पहले छात्र संघ अधक्ष हैं जो महज छात्रों के ही नहीं ,बल्की छात्रावों के भी अधक्ष रहे'. इसका एक कारण भी था .डॉ लोहिया का प्रभाव .औरत की इज्ज्जत करना सीखो .उसकी खुल कर तारीफ़ करो .पीठ पीछे नहीं सामने .छात्र संघ का चुनाव चल रहा था ,कानूनन हमें महिला छात्रावासों में जाकर उनके बीच बोलना होता था .प्रवेश केवल उम्मीदवारों का ही होता था .मै जब ज्योतिकुंज पहुचा उस समय विद्यार्थी परिषद के महेंद्र नाथ सिंह बोल रहें थे .कद काठी से दुरुस्त बोल्ट बोलते उन्होंने एक जुमला बोला कि अगर आपने हमें जिताया तो हम आपको गुंडों से हिफाजत की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेते है . कल से कोइ लड़का किसी लड़की को नहीं छेड़ेगा .जोर दार ताली बजी .इसके बाद हमें बोलना था .हमने अपनी बात रखी .हमारी बात खत्म होते ही एक लड़की ने महेंद्र नाथ के हवाले से पूछा -आप हमारी हिफाजत कैसे करेंगे ? हमने कहा हम दो काम करेंगे ...एक आपके मोहब्बत की हिफाजत और दूसरा 'जेल के कायदे ' से मुक्ति .( महिला छात्रावासों में छात्राओं को एक निश्चित समय पर छात्रावासों में पहुचना पड़ता था , और किसी से मिलने के लिए अगर बाहर गेट तक जाना होता तो उन्हें रजिस्टर पर लिखना पड़ता कि वो किस्से मिलने जा रही हैं .. जाहिर सी बात है हर लड़की झूठ लिखती कि वह अपने लोकल गार्जियन से मिल रही है .) .. मेरी बात सन्नाटा छा गया .हमें लगा कि गए बच्चू काम से .. लेकिन अचानक एक ताली बजी .. दो बजी .. फिर पूरा हाल तालियों की गडगडाहट से गूंजता रहा . और कुछ इस तरह धक्का मुक्की में घिरा कि हमें लगा लगा कि हम जो कुर्ता पहन के आये थे वापसी बगैर कुर्ते के होगी .....( जारी )
उज्जवल जी के 'हल्फिया बयान ' जिस तरह मौक - ये -वारदात से दिए जा रहें है वह काफी दिलचस्प और और मौजूदा हालात को नापने में मददगार साबित हो रहें हैं .अब चूंकी हमारा भी जिक्र आ रहा है चुनांचे यह जरूरी लगने लगा कि हम उसे तस्दीक करते हुए आपको उसी मुकाम पर ले चलूँ जहां का यह अफ़साना है .काशीविश्व् विद्यालय ( हमलोग इसमें ' हिन्दू ' नहीं लगाते ) के दो प्रजातियों का जिक्र आया है . ' बलियाटिक ' और मकालू .पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार समेत तमाम हिन्दी भाषी ' लोग ' बलियाटिक और हाई फाई वाले लोग मकालू .य सच है कि मै दोनों में रहा .विश्व विद्यालय में हमारी फैकल्टी सबसे छोटी थी .कुल जमा पूंजी तीस लोग तुर्रा यह कि लडकियां किसी भी मायने में किसी से कम नहीं .उन्मुक्त माहौल .हमारे टीचर भी एक से बढ़ कर एक .' सर ! आज यहाँ क्लास करने का मन नहीं कर रहा है ....किसी एक लड़की ने बहुत ही महीन अंदाज में गुजारिश किया और पूरी क्लास कैंटीन पर लग जाती थी .कैंटीन पर चाय पीनेवाले बढ़ जाया करते थे .हमारी पढाई ,उसका विषय बंधन मुक्त रहा है .यह गांधी की बुनियादी तालीम का अघोषित प्रयोग था '.हाथ का हुनर ' और मन की उड़ान बड़े एकाग्र चित्त से स्केच बुक पर उतारते थे .कोइ चाय पी रहा है , कोइ घास पर लेटा है ,हम उसे बनाते थे पूरी मस्ती के साथ . यह था फाइन आर्ट का माहौल जिसका मै भी एक कारकून था इस लिए मै मकालू कहलाया .वो आदते आज तक जस की तस पडी हैं ,जिसके चलते बाज दफे " बे इज्जत भी होना पडता है .अभी हाल में एक संभ्रांत महिला को यार कहकर संबोधित कर दिया वो हत्थे से उखड गयी ,किसी झुके चेहरे को 'ठोढी पकड़ कर ऊपर उठा दूं और कहूँ कि अब आँख मिला कर बात करो तो कई ' छुई -मुइयों ' की तरह विलुप्त हो जाती हैं .लेकिन शुक्रगुजार हूँ फेसबुक का कि कई चेहरे ऐसे भी मिले जो दमदारी के साथ हाथा पाई तक करने पर आमादा हो जाती है .कितना अच्छा लगता है यह बराबरी का रिश्ता .अभी जिसका जिक्र नीलाक्षी जी ने किया कि वो हमसे भीड़ गयी थी सही है हमें अच्छा लगा था .औरत और मर्द के इस रिश्ते को बनाने में बहुत दिक्कते आयी लेकिन हम सफल रहे.एक वाकया सुनाता हूँ . अभी हँस के किसी अंक में प्रसिद्ध कथाकार डॉ काशी नाथ सिंह ने हमारे ऊपर दो पेज लिख डाले .उनका एक वाक्य मजेदार है -' चंचल पहले छात्र संघ अधक्ष हैं जो महज छात्रों के ही नहीं ,बल्की छात्रावों के भी अधक्ष रहे'. इसका एक कारण भी था .डॉ लोहिया का प्रभाव .औरत की इज्ज्जत करना सीखो .उसकी खुल कर तारीफ़ करो .पीठ पीछे नहीं सामने .छात्र संघ का चुनाव चल रहा था ,कानूनन हमें महिला छात्रावासों में जाकर उनके बीच बोलना होता था .प्रवेश केवल उम्मीदवारों का ही होता था .मै जब ज्योतिकुंज पहुचा उस समय विद्यार्थी परिषद के महेंद्र नाथ सिंह बोल रहें थे .कद काठी से दुरुस्त बोल्ट बोलते उन्होंने एक जुमला बोला कि अगर आपने हमें जिताया तो हम आपको गुंडों से हिफाजत की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेते है . कल से कोइ लड़का किसी लड़की को नहीं छेड़ेगा .जोर दार ताली बजी .इसके बाद हमें बोलना था .हमने अपनी बात रखी .हमारी बात खत्म होते ही एक लड़की ने महेंद्र नाथ के हवाले से पूछा -आप हमारी हिफाजत कैसे करेंगे ? हमने कहा हम दो काम करेंगे ...एक आपके मोहब्बत की हिफाजत और दूसरा 'जेल के कायदे ' से मुक्ति .( महिला छात्रावासों में छात्राओं को एक निश्चित समय पर छात्रावासों में पहुचना पड़ता था , और किसी से मिलने के लिए अगर बाहर गेट तक जाना होता तो उन्हें रजिस्टर पर लिखना पड़ता कि वो किस्से मिलने जा रही हैं .. जाहिर सी बात है हर लड़की झूठ लिखती कि वह अपने लोकल गार्जियन से मिल रही है .) .. मेरी बात सन्नाटा छा गया .हमें लगा कि गए बच्चू काम से .. लेकिन अचानक एक ताली बजी .. दो बजी .. फिर पूरा हाल तालियों की गडगडाहट से गूंजता रहा . और कुछ इस तरह धक्का मुक्की में घिरा कि हमें लगा लगा कि हम जो कुर्ता पहन के आये थे वापसी बगैर कुर्ते के होगी .....( जारी )
इस मुसलमान का घर कहाँ है
एक बार किसी अखबार ने मरहूम डॉ राही मासूम राजा से पूछा था कि आपको इस बात से डर नहीं लगता कि कोइ आपको पाकिस्तानी कहदे ? राही साहेब ने बहुत माकूल जवाब डिया था - देश के प्रति वफादारी का सबूत तो हिंदुओं को देना चाहिए जिन्हें हर हाल में यहीं रहना था , हमारे सामने तो 'आप्सन' था . हम यहाँ रहते या पाकिस्तान चले जाते ,लेकिन हमने यहाँ रहना कबूल किया .हमारे बाप दादा यहा रहें , उनकी काबरे यहाँ है हम क्यों किसी और मुल्क में जांय ? यह दमदारी राही साहब में रही .इतना ही नहीं अपने हक और हुकूक के लिए कभी भी चुप नहीं रहे.आपात काल का विरोध जिस मुखर तरीके से राही साहब ने किया ( सीन ७५ ) शायद ही किसी और लेखक ने किया हो .लेकिन वो अपने मुल्क जिसमे तमीज और तहजीब भी शुमार है को बे इन्तहां प्यार भी किया .हिन्दू मुस्लिम एका उनके लेखन की जान है - 'आधा गाँव ' टोपी शुक्ला ' 'ओस की बूँद ' हिम्मत जौनपुरी ' ' कटरा बी आरजू ' नीम का पेड़ ' इसके उदाहरण हैं . आखीर में डॉ साहब एक अमूल्य निधि ' महाभारत ' की पट कथा लिख कर छोड़ गए जिसे कई पीढियां याद करेंगी .हम इस तरह के और इस जज्बात के बहुतो को जानते हैं जो सही मायने में इस्लाम में यकीन रखते है और भारतीय हैं .आज जरूरत है इस्लाम में यकीन रखने वाली समूची कौम इस जज्बे के साथ उठ खड़ी हो ,अपने को मुकम्मिल तौर पर सवारे , शिक्षा ,रोजगार ,तिजारत .में अपना दखल दर्ज कराये .यहाँ दो टूक बात कहना चाहता हूँकि दुनिया में भारत के अलावा दूसरा कोइ मुल्क नहीं है जो अपने आमजन जिसमे मुसलमान भी शामिल है को इतनी तरजीह देता हो .वरना एक अकेले ' बटवारे के फैसले ने ' मुसलमान को समूचे भारतीय उप महाद्वीप के मुसलमानों को बे घर कर के छोड़ दिया है .आज पाकिस्तान में ' पाकिस्तान बनानेवाले असल लोग ' मोहाजिर बोले जाते हैं और उन्हें भारत का एजेंट माना जाता है .बँगला देश में अपने हक और हुकूक की बात करनेवालों को 'बिहारी ' कह कर अलग कर दिया जाता है , भारत में लंबे अरसे तक कट्टर हिंदुओं की संस्था ने इन्हें पाकिस्तानी करार दिया अब भी जादा कदा उसे दुहरा दिया जाता है ,लेकिन वोट के गणित ने उन्हें भी सिम्बल के तौर पर ही सही लेकिन अपने संगठन में लेना पड़ा .सैकडो साल तक इस मुल्क में हुकूमत करनेवाली कौम एक दरी हुई कौम बन कर किसका नुकशान करेगी ? इसका जवाब बहुत सीधा है अपनी कौम का और अपने मुल्क का .
बाबरी मस्जिद का विद्ध्वंस ,एम् एफ हुसैन का दर-बदर ,बाबर की औलाद जफ़र की तौहीन किसीभी हिंदू को शर्मिन्दा करता रहेगा .अभी भी वक्त है 'अखंड भारत ' का नारा लगानेवालो अखंड भारत तो देखो ...
एक बार किसी अखबार ने मरहूम डॉ राही मासूम राजा से पूछा था कि आपको इस बात से डर नहीं लगता कि कोइ आपको पाकिस्तानी कहदे ? राही साहेब ने बहुत माकूल जवाब डिया था - देश के प्रति वफादारी का सबूत तो हिंदुओं को देना चाहिए जिन्हें हर हाल में यहीं रहना था , हमारे सामने तो 'आप्सन' था . हम यहाँ रहते या पाकिस्तान चले जाते ,लेकिन हमने यहाँ रहना कबूल किया .हमारे बाप दादा यहा रहें , उनकी काबरे यहाँ है हम क्यों किसी और मुल्क में जांय ? यह दमदारी राही साहब में रही .इतना ही नहीं अपने हक और हुकूक के लिए कभी भी चुप नहीं रहे.आपात काल का विरोध जिस मुखर तरीके से राही साहब ने किया ( सीन ७५ ) शायद ही किसी और लेखक ने किया हो .लेकिन वो अपने मुल्क जिसमे तमीज और तहजीब भी शुमार है को बे इन्तहां प्यार भी किया .हिन्दू मुस्लिम एका उनके लेखन की जान है - 'आधा गाँव ' टोपी शुक्ला ' 'ओस की बूँद ' हिम्मत जौनपुरी ' ' कटरा बी आरजू ' नीम का पेड़ ' इसके उदाहरण हैं . आखीर में डॉ साहब एक अमूल्य निधि ' महाभारत ' की पट कथा लिख कर छोड़ गए जिसे कई पीढियां याद करेंगी .हम इस तरह के और इस जज्बात के बहुतो को जानते हैं जो सही मायने में इस्लाम में यकीन रखते है और भारतीय हैं .आज जरूरत है इस्लाम में यकीन रखने वाली समूची कौम इस जज्बे के साथ उठ खड़ी हो ,अपने को मुकम्मिल तौर पर सवारे , शिक्षा ,रोजगार ,तिजारत .में अपना दखल दर्ज कराये .यहाँ दो टूक बात कहना चाहता हूँकि दुनिया में भारत के अलावा दूसरा कोइ मुल्क नहीं है जो अपने आमजन जिसमे मुसलमान भी शामिल है को इतनी तरजीह देता हो .वरना एक अकेले ' बटवारे के फैसले ने ' मुसलमान को समूचे भारतीय उप महाद्वीप के मुसलमानों को बे घर कर के छोड़ दिया है .आज पाकिस्तान में ' पाकिस्तान बनानेवाले असल लोग ' मोहाजिर बोले जाते हैं और उन्हें भारत का एजेंट माना जाता है .बँगला देश में अपने हक और हुकूक की बात करनेवालों को 'बिहारी ' कह कर अलग कर दिया जाता है , भारत में लंबे अरसे तक कट्टर हिंदुओं की संस्था ने इन्हें पाकिस्तानी करार दिया अब भी जादा कदा उसे दुहरा दिया जाता है ,लेकिन वोट के गणित ने उन्हें भी सिम्बल के तौर पर ही सही लेकिन अपने संगठन में लेना पड़ा .सैकडो साल तक इस मुल्क में हुकूमत करनेवाली कौम एक दरी हुई कौम बन कर किसका नुकशान करेगी ? इसका जवाब बहुत सीधा है अपनी कौम का और अपने मुल्क का .
बाबरी मस्जिद का विद्ध्वंस ,एम् एफ हुसैन का दर-बदर ,बाबर की औलाद जफ़र की तौहीन किसीभी हिंदू को शर्मिन्दा करता रहेगा .अभी भी वक्त है 'अखंड भारत ' का नारा लगानेवालो अखंड भारत तो देखो ...
Monday, August 20, 2012
साहेब बंदगी .......
कल त्रिलोचन जी का जन्मदिन था .
सब कुछ मिला त्रिलोचन जी को लेकिन बहुत देर से .मै बनारस छोड़ कर दिल्ली आचुका था ,' दिनमान में ट्रेनी था .एक दिन प्रयाग शुक्ल जी ने बताया कि कल त्रिलोचन जी से मिलने जाना है .हमने पूछा -बनारसवाले त्रिलोचन जी ? बोले हाँ वही .और बात खत्म हो गयी .इतने में सर्वेश्वर जी ने हमें बताया कि तुम दफ्तर से घर जाते समय शीला जी से मिलते जाना उनका फोन आया था .( उन दिनों शीला संधू राजकमल प्रकाशन की मालकिन थी और मोहन गुप्त करता धरता ..) राज कमल पहुचा तो मोहन जी ने रोक लिया ,आओ चाय पीया जाय अभी शीला जी त्रिलोचन जी से बात कर रही हैं .... अचानक शीला जी ने मोहन जी को बुलवाया , मै बगैर कुछ बोले सीधे शीला जी के कमरे में नमूदार हो गया .वहाँ एक साथ तीन 'घटना ' घटी .शीलाजी ने का यह कहना कि त्रिलोचन जी ये चंचल जी हैं बहुत बड़े....... और त्रिलोचन का उत्तर देना ' को नहीं जानत है ...' और बदले में हमने कहा साहेब बंदगी ....पूरा कमरा सहज हो गया .दरिया गंज से मंडी हाउस तक का सफर पैदल ही कटा .रास्ते में कई तरह की चर्चा चली .उस दिन मंडी हाउस के श्री राम सेंटर में त्रिलोचन जी की कथा उन्मुक्त भाव से चली .अब मै बनारस चलता हूँ ....
बनारस में गो दुलिया चौराहा पर एक तांगा स्टैंड हुआ करता था .अभी भी है शायद .वहाँ बुधिराम की किताब की दूकान हुआ करती थी ,त्रिलोचन जी का अड्डा था यह तांगा स्टैंड .कहनेवाले तो यहाँ तक कहते थे कि अगर त्रिलोचन जी का पता खोजना हो तो तांगा स्टैंड चले जाओ .एक दिन एक बंगाली ' भ्रमरी ' ( बंगाल से जो यात्री काशी लाभ लेने आते थे उन्हें कुछ मनचले भ्रमरी ही कहते थे और यह नाम भी त्रिलोचन जी का दिया हुआ था ) एक दिन हम गोपाली के पान की दूकान पर खड़े थी कि एक भ्रामरी जत्था तांगे की तलाश में भौचकियाया इधर उधर आँखे दौड़ा रहा था कि अचानक चकाचक बनारसी मुह में पान घुलाये उनके मदद में उतर गए ...' का तलाश रहें आप जन .....तांगा ?... उधर खम्भे के पास चले जाइए पूरब की तरफ .. वहीं एक तांगा होगा .. हटा कट्टा भ्रमरी उधर बढे तब तक चकाचक अपनी बात पर जारी रहें ,....खसखसी दाढ़ी ,खादी का फटा हुआ मोटा कुर्ता ,चौड़ा माथा ,, लंबी बाहें सरपट चाल ....किसी ने टोका आजकल गांधी पर बतियाते हैं त्रिलोचन जी ...
त्रिलोचन जी की सांझ तांगा स्टैंड से अस्सी और अस्सी से गोदौलिया ,गोदौलिया से अस्सी तक बीतती थी . लोगो की जिज्ञासा ,प्रश्न ,कुतूहल ,शंका सब का समाधान चलते फिरते होता था .श्रोता बदलते रहते थे और त्रिलोचन जी चलते रहते थे ....हमने त्रिलोचन जी के बहुत सारे स्केच बनाए है .आज त्रिलोचन जी नहीं हैं लेकिन हिन्दी का अरस्तू जिन्द्दा रहेगा ..
कल त्रिलोचन जी का जन्मदिन था .
सब कुछ मिला त्रिलोचन जी को लेकिन बहुत देर से .मै बनारस छोड़ कर दिल्ली आचुका था ,' दिनमान में ट्रेनी था .एक दिन प्रयाग शुक्ल जी ने बताया कि कल त्रिलोचन जी से मिलने जाना है .हमने पूछा -बनारसवाले त्रिलोचन जी ? बोले हाँ वही .और बात खत्म हो गयी .इतने में सर्वेश्वर जी ने हमें बताया कि तुम दफ्तर से घर जाते समय शीला जी से मिलते जाना उनका फोन आया था .( उन दिनों शीला संधू राजकमल प्रकाशन की मालकिन थी और मोहन गुप्त करता धरता ..) राज कमल पहुचा तो मोहन जी ने रोक लिया ,आओ चाय पीया जाय अभी शीला जी त्रिलोचन जी से बात कर रही हैं .... अचानक शीला जी ने मोहन जी को बुलवाया , मै बगैर कुछ बोले सीधे शीला जी के कमरे में नमूदार हो गया .वहाँ एक साथ तीन 'घटना ' घटी .शीलाजी ने का यह कहना कि त्रिलोचन जी ये चंचल जी हैं बहुत बड़े....... और त्रिलोचन का उत्तर देना ' को नहीं जानत है ...' और बदले में हमने कहा साहेब बंदगी ....पूरा कमरा सहज हो गया .दरिया गंज से मंडी हाउस तक का सफर पैदल ही कटा .रास्ते में कई तरह की चर्चा चली .उस दिन मंडी हाउस के श्री राम सेंटर में त्रिलोचन जी की कथा उन्मुक्त भाव से चली .अब मै बनारस चलता हूँ ....
बनारस में गो दुलिया चौराहा पर एक तांगा स्टैंड हुआ करता था .अभी भी है शायद .वहाँ बुधिराम की किताब की दूकान हुआ करती थी ,त्रिलोचन जी का अड्डा था यह तांगा स्टैंड .कहनेवाले तो यहाँ तक कहते थे कि अगर त्रिलोचन जी का पता खोजना हो तो तांगा स्टैंड चले जाओ .एक दिन एक बंगाली ' भ्रमरी ' ( बंगाल से जो यात्री काशी लाभ लेने आते थे उन्हें कुछ मनचले भ्रमरी ही कहते थे और यह नाम भी त्रिलोचन जी का दिया हुआ था ) एक दिन हम गोपाली के पान की दूकान पर खड़े थी कि एक भ्रामरी जत्था तांगे की तलाश में भौचकियाया इधर उधर आँखे दौड़ा रहा था कि अचानक चकाचक बनारसी मुह में पान घुलाये उनके मदद में उतर गए ...' का तलाश रहें आप जन .....तांगा ?... उधर खम्भे के पास चले जाइए पूरब की तरफ .. वहीं एक तांगा होगा .. हटा कट्टा भ्रमरी उधर बढे तब तक चकाचक अपनी बात पर जारी रहें ,....खसखसी दाढ़ी ,खादी का फटा हुआ मोटा कुर्ता ,चौड़ा माथा ,, लंबी बाहें सरपट चाल ....किसी ने टोका आजकल गांधी पर बतियाते हैं त्रिलोचन जी ...
त्रिलोचन जी की सांझ तांगा स्टैंड से अस्सी और अस्सी से गोदौलिया ,गोदौलिया से अस्सी तक बीतती थी . लोगो की जिज्ञासा ,प्रश्न ,कुतूहल ,शंका सब का समाधान चलते फिरते होता था .श्रोता बदलते रहते थे और त्रिलोचन जी चलते रहते थे ....हमने त्रिलोचन जी के बहुत सारे स्केच बनाए है .आज त्रिलोचन जी नहीं हैं लेकिन हिन्दी का अरस्तू जिन्द्दा रहेगा ..
Sunday, August 12, 2012
लोहिया: एक कुजात गांधीवादी
फेसबुक पर अचानक गांधी और लोहिया जेरे बहस हो गए .यह शुभ शुरुआत है .अब तक गांधी को 'गरियाने ' वालों में संघी और साम्यवादी थे अब एक तबका और आ मिला है वह है ' दलित उद्धारकों ' का.कल संदीप जी ने बाजारवाद की प्रतिस्पर्धा को आर्थिक गैरबराबरी औए विपन्नता का मूल कारण बताया जो सच भी है .लेकिन इससे निजात कैसे मिले ? बीसवीं सदी ने सबसे ज्यादा इस सवाल को अह्मियती दी .दो 'राजनीतिक दार्शनिक' सामने आये .एक मार्क्स और दूसरे गांधी .मार्क्स ने एकबारगी सब को चौका दिया जब उसने ' द्वंदात्मक भातिक्वाद ' की स्थापना की और 'थेसिस , एंटीथेसिस और सेनथेसिस के आधार पर न केवल इंसानी सभ्यता के विकास को समझाया बल्की आर्थिक सोच को भी परि लक्षित किया .मार्क्स जब तक 'दर्शन ' पार रहता हहै निश्चित रूप से वह बड़ा हो जाता है लेकिन उसके साथ राजनीति के दो तत्व और ,जो निहायत ही जरूरी होते हैं ,वो गायब मिले . दर्शन का समाज में प्रयोग और और उस दर्शन के आधार पर समाज बनाने के लिए नेतृत्व .मार्क्स केवल दार्शनिक बन कर रह जाता है ,वह नतो सामाजिक बैज्ञानिक बन पाता है न ही लीडर .दूसरे छोर पर गांधी का प्रवेश होता है .गांधी जन सामान्य की भाषा में आर्थिक विषमता का निदान देता है -उत्पादक .उत्पादन और उपभोक्ता का .मार्क्स के बर् अक्स गांधी उत्पादन को विकेंद्रित कर देता है और उसका वैज्ञानिक प्रयोग पहले खुद पर करता है .फिर समूचे समाज को इस डगर पर चलने को कहता है इस तरह गांधी राजनीति के तीनो हिस्से को एक साथ जीता है .गांधी का मानना है कि तुम उत्पादक हो और तुम्ही उपभोक्ता यहाँ लाभ जिसे मार्क्स 'अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत ' कह कर पूंजीवाद के खिलाफ 'मजदूरों एक हो ' का नारा देता है ,गांधी उत्पादन को उपभोक्ता और उत्पादक के बीच बगैर किसी लाभ और हानि के बितरित कर पूंजीवाद की मूल जड़ को ही काट देता है .मजे की बात समाज के ताने बाने पर दोनों एक मत हैं .एक 'कम्यून' की बात करता है तो दूसरा 'गाँव स्वराज की ' कम्यून में और गाँव स्वराज में दो मूल भूत फर्क है .सत्ता और संपत्ति का विकेंन्द्रीकरण गाँव स्वराज की बुनियाद है तो साम्यवादी कम्यून में उत्पादन का लाभ सत्ता को और कम्यून पराधीन होगा केन्द्रीय व्यवस्था के .इसपर निहायत ही सटीक भाषा में डॉ लोहिया परिभाषित करते है - 'समाजवाद = साम्यवाद + युद्ध + ऋण आजादी . साम्यवाद में ' द्वन्दऔर स्थाई भाव में रहेगा और आजादी लोप रहेगी .......जारी
फेसबुक पर अचानक गांधी और लोहिया जेरे बहस हो गए .यह शुभ शुरुआत है .अब तक गांधी को 'गरियाने ' वालों में संघी और साम्यवादी थे अब एक तबका और आ मिला है वह है ' दलित उद्धारकों ' का.कल संदीप जी ने बाजारवाद की प्रतिस्पर्धा को आर्थिक गैरबराबरी औए विपन्नता का मूल कारण बताया जो सच भी है .लेकिन इससे निजात कैसे मिले ? बीसवीं सदी ने सबसे ज्यादा इस सवाल को अह्मियती दी .दो 'राजनीतिक दार्शनिक' सामने आये .एक मार्क्स और दूसरे गांधी .मार्क्स ने एकबारगी सब को चौका दिया जब उसने ' द्वंदात्मक भातिक्वाद ' की स्थापना की और 'थेसिस , एंटीथेसिस और सेनथेसिस के आधार पर न केवल इंसानी सभ्यता के विकास को समझाया बल्की आर्थिक सोच को भी परि लक्षित किया .मार्क्स जब तक 'दर्शन ' पार रहता हहै निश्चित रूप से वह बड़ा हो जाता है लेकिन उसके साथ राजनीति के दो तत्व और ,जो निहायत ही जरूरी होते हैं ,वो गायब मिले . दर्शन का समाज में प्रयोग और और उस दर्शन के आधार पर समाज बनाने के लिए नेतृत्व .मार्क्स केवल दार्शनिक बन कर रह जाता है ,वह नतो सामाजिक बैज्ञानिक बन पाता है न ही लीडर .दूसरे छोर पर गांधी का प्रवेश होता है .गांधी जन सामान्य की भाषा में आर्थिक विषमता का निदान देता है -उत्पादक .उत्पादन और उपभोक्ता का .मार्क्स के बर् अक्स गांधी उत्पादन को विकेंद्रित कर देता है और उसका वैज्ञानिक प्रयोग पहले खुद पर करता है .फिर समूचे समाज को इस डगर पर चलने को कहता है इस तरह गांधी राजनीति के तीनो हिस्से को एक साथ जीता है .गांधी का मानना है कि तुम उत्पादक हो और तुम्ही उपभोक्ता यहाँ लाभ जिसे मार्क्स 'अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत ' कह कर पूंजीवाद के खिलाफ 'मजदूरों एक हो ' का नारा देता है ,गांधी उत्पादन को उपभोक्ता और उत्पादक के बीच बगैर किसी लाभ और हानि के बितरित कर पूंजीवाद की मूल जड़ को ही काट देता है .मजे की बात समाज के ताने बाने पर दोनों एक मत हैं .एक 'कम्यून' की बात करता है तो दूसरा 'गाँव स्वराज की ' कम्यून में और गाँव स्वराज में दो मूल भूत फर्क है .सत्ता और संपत्ति का विकेंन्द्रीकरण गाँव स्वराज की बुनियाद है तो साम्यवादी कम्यून में उत्पादन का लाभ सत्ता को और कम्यून पराधीन होगा केन्द्रीय व्यवस्था के .इसपर निहायत ही सटीक भाषा में डॉ लोहिया परिभाषित करते है - 'समाजवाद = साम्यवाद + युद्ध + ऋण आजादी . साम्यवाद में ' द्वन्दऔर स्थाई भाव में रहेगा और आजादी लोप रहेगी .......जारी
Saturday, August 11, 2012
सवनवा में ना जईबे ननदी
बादल...मेघ ..
भारतीय साहित्य का ओढ़ना -बिछौना है .नाम नहीं गिनाउंगा .लोक साहित्य .लोकगीत ,लोक कथा बादल और बदरी के बीच खींची पतली लकीर के मर्म को उजागर कर देती है .बादर 'घिरते ही ' पृथ्वी व्याकुल हो जाती है .और पहली फुहार ? प्रफुल्लित धरती की सुगंध जिसे नहीं सुहाया उसकी जिंदगी अकारथ .सस्य श्यामला पृथ्वी धानी चूनर ओढ़ लेती है .ऋतु संहार में काली दास ने मुग्धाओं के ग्व्याकुल मन का जिक्र किया है .दामिनी की तड़क प्रेमी युग्म को चिपटा देता है .नई नवेली दुल्हन आयी है .मायके में झूला पड़ा है ,भाई बुलाने आया है .वह अपने प्रेमी के साथ रहना चाहती है .अपनी ननद से कहती है -चाहे रिसिआयं चाहे कोहाय ,सवनवा में ना जईबे ननदी . गिरिजा देवी कजरी गा रही हैं ..मै अपने बरामदे में बैठा हूँ . पुराने घर के खपरैले मुडेर पर काली कजरारी बदरी चढी बैठी है ... गाँव की खुशबू से सराबोर ...मोटू अनार के दाने निकाल कर ,आँखों में बदरी फैलाए है .....
बादल...मेघ ..
भारतीय साहित्य का ओढ़ना -बिछौना है .नाम नहीं गिनाउंगा .लोक साहित्य .लोकगीत ,लोक कथा बादल और बदरी के बीच खींची पतली लकीर के मर्म को उजागर कर देती है .बादर 'घिरते ही ' पृथ्वी व्याकुल हो जाती है .और पहली फुहार ? प्रफुल्लित धरती की सुगंध जिसे नहीं सुहाया उसकी जिंदगी अकारथ .सस्य श्यामला पृथ्वी धानी चूनर ओढ़ लेती है .ऋतु संहार में काली दास ने मुग्धाओं के ग्व्याकुल मन का जिक्र किया है .दामिनी की तड़क प्रेमी युग्म को चिपटा देता है .नई नवेली दुल्हन आयी है .मायके में झूला पड़ा है ,भाई बुलाने आया है .वह अपने प्रेमी के साथ रहना चाहती है .अपनी ननद से कहती है -चाहे रिसिआयं चाहे कोहाय ,सवनवा में ना जईबे ननदी . गिरिजा देवी कजरी गा रही हैं ..मै अपने बरामदे में बैठा हूँ . पुराने घर के खपरैले मुडेर पर काली कजरारी बदरी चढी बैठी है ... गाँव की खुशबू से सराबोर ...मोटू अनार के दाने निकाल कर ,आँखों में बदरी फैलाए है .....
Thursday, August 9, 2012
मोहन से महात्मा तक
अब तक गांधी साम्यवादियो और संघियो के निशाने पर थे ,अब एक नयी जाति और उभरी है जो अपने आपको दलित उद्धारक कहती है उसने भी गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और बे सर पैर के आरोप लगा रही है .एक छोटे से अरसे तक हम भी गांधी को थोड़ा ढीला ढाला नेता मानता रहा .लेकिन जेल यात्रा ने मेरे लिए जो सबसे बड़ा काम किया वह था गांधी को जानना .ज्यों ज्यो गांधी को पढ़ता गया ,गांधी कके प्रति जो दुराग्रह था दूर होता गया .और इसमें डॉ लोहिया के लेखन ने बहुत मदद किया .' भारत विभाजन के अपराधी ' ( डॉ लोहिया ) पढते समय यह महसूस हुआ कि एक शख्स जिसने सत्य और अहिंसा के सहारे न केवल आजादी की लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की बल्की सारी दुनिया को इस सत्य और अहिंसा से बने एक हथियार 'सिविल नाफरमानी '( न मारेंगे ,न मानेगे ) को उनके हाथ में दे दिया जो दबे और कुचले लोग थे , मजबूर थे मजलूम थे ,उन्हें अपने हक के लड़ने की ताकत दी .उस निहत्थे महात्मा को एक कट्टर और कायर संघी ने क्यों ह्त्या की ? वह शख्स जो बटवारे का कत्तई पक्षधर नहीं था उस पर इन संघियों ने बटवारे का झूठा आरोप क्यों लगाया ? जब कि सच्चाई यह है कि बटवारे का समर्थन संघ और साम्यवादी दोनों कर रहें थे .जिन्ना का नारा था मुसलमानों पाकिस्तान चलो ,संघ का नारा था -मुसलमानों भारत छोड़ो .कम्युनिस्ट का बाकायदे प्रस्ताव था .पाकिस्तान बनाओ .मुस्लिम लीग का डाइरेक्ट एक्सन दंगा में तब्दील हो चुका था .लन्दन में बैठा चर्चिल बटवारे की स्क्रिप्ट लिख रहा था .गांधी और उनके साथ समाजवादी कांग्रेस को छोड़ कर कोइ और नहीं था जो बटवारे का विरोधी रहा हो .कांग्रेस नेतृत्व 'गृह युद्ध 'की स्थिति से विचलित थी . सरदार पटेल कुछ ज्यादा ही मुखर थे .गांधी अकेला है .डॉ लोहिया ने समूचे दस्तावेज को उघार कर लिखा कि जब गांधी को जो कि कांग्रेस कार्य कारिणी के आमंत्रित सदस्य हैं को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया है .( १९३४ में गांधी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है ,इस आशय के साथ कि जब भी कभी कांग्रेस चाहे वह उन्हें आमंत्रित कर सकती है ,..इस इस्तीफे के बाद गांधी चरखा और अछूतोद्धार का कार्य क्रम चला रहें थे ,इससे गांधी को समझा जा सकता है कि जब आजादी बिलकुल साम्ने खड़ी है गांधी की चिंता 'अछूत ' और दलित है .इस गांधी ने अछूत और दलित में उठ खड़े होने की इक्षा शक्ति पैदा की .वही लोग जब गांधी को गरियाते हैं तो उनकी दिमागी हालत पर तकलीफ होती है .) बटवारे के सवाल पर बैठी कांग्रेस कार्य कारिणी में गांधी ने दो प्रस्ताव सुझाया -एक अंग्रेज चले जायं बटवारा हम कर लेंगे .दो -कांग्रेस दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं मानती .इस सवाल के पहले पटेल ,नेहरू और लोहिया के बीच झड़प भी हुई कि बटवारे की पूर्व सूचना गांधी को क्यों नहीं दी गयी ?.
हमने इस लिए जिक्र किया कि आज गांधी को जानने की ज्यादा जरूरत है .विशेष कर नयी पीढ़ी को .कुछ लोग गांधी को निहायत ही रूखा समझते हैं .( बहुत दिनों तक हम भी इसी राय के थे लेकिन ज्यो ज्यो गांधी के न्नाज्दीक जाता गया पर्दा हटता गया .हमने जान बूझ कर गांधी और दुनिया के सबसे बड़े हास्य कलाकार चार्ली चैप्लिन की तस्वीर चिपकाया )) यह उस समय की तस्वीर है जब १९२९ में गांधी के आह्वाहन पर विदेशी कपड़ों की होली जला कर गांधी गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने लन्दन गए थे .मीडिया ने गांधी से जानना चाहा था कि कांफ्रेंस के अलावा और क्या प्रोग्राम है ? गांधी ने कहा -एक - मानचेस्टर के मजदूरों के बीच रहूँगा और दूसरा चार्ली चैप्लिन से मिलूँगा .यह दोनों बाते राज नीति से जुड़ी हुई थी और चर्चिल का जवाब भी था .( चर्चिल ने गांधी को अधनंगा फ़कीर कहा था .और गांधी को मशखरा कहा था ) मानचेस्टर के मजदूरों के बनाए गए कपड़ों की होली जला कर उनके बीच जाना और अधनंगे जाना हिन्दुस्तान की हकीकत बयान करता है .दूसरा जवाब था -सुना है चार्ली चैप्लिन हमसे भी बड़ा मसखरा है ... इस बयान के बाद चार्ली चैप्लिन अपनी शूटिंग रोक कर गांधी के साथ आ मिला ...
अब तक गांधी साम्यवादियो और संघियो के निशाने पर थे ,अब एक नयी जाति और उभरी है जो अपने आपको दलित उद्धारक कहती है उसने भी गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और बे सर पैर के आरोप लगा रही है .एक छोटे से अरसे तक हम भी गांधी को थोड़ा ढीला ढाला नेता मानता रहा .लेकिन जेल यात्रा ने मेरे लिए जो सबसे बड़ा काम किया वह था गांधी को जानना .ज्यों ज्यो गांधी को पढ़ता गया ,गांधी कके प्रति जो दुराग्रह था दूर होता गया .और इसमें डॉ लोहिया के लेखन ने बहुत मदद किया .' भारत विभाजन के अपराधी ' ( डॉ लोहिया ) पढते समय यह महसूस हुआ कि एक शख्स जिसने सत्य और अहिंसा के सहारे न केवल आजादी की लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की बल्की सारी दुनिया को इस सत्य और अहिंसा से बने एक हथियार 'सिविल नाफरमानी '( न मारेंगे ,न मानेगे ) को उनके हाथ में दे दिया जो दबे और कुचले लोग थे , मजबूर थे मजलूम थे ,उन्हें अपने हक के लड़ने की ताकत दी .उस निहत्थे महात्मा को एक कट्टर और कायर संघी ने क्यों ह्त्या की ? वह शख्स जो बटवारे का कत्तई पक्षधर नहीं था उस पर इन संघियों ने बटवारे का झूठा आरोप क्यों लगाया ? जब कि सच्चाई यह है कि बटवारे का समर्थन संघ और साम्यवादी दोनों कर रहें थे .जिन्ना का नारा था मुसलमानों पाकिस्तान चलो ,संघ का नारा था -मुसलमानों भारत छोड़ो .कम्युनिस्ट का बाकायदे प्रस्ताव था .पाकिस्तान बनाओ .मुस्लिम लीग का डाइरेक्ट एक्सन दंगा में तब्दील हो चुका था .लन्दन में बैठा चर्चिल बटवारे की स्क्रिप्ट लिख रहा था .गांधी और उनके साथ समाजवादी कांग्रेस को छोड़ कर कोइ और नहीं था जो बटवारे का विरोधी रहा हो .कांग्रेस नेतृत्व 'गृह युद्ध 'की स्थिति से विचलित थी . सरदार पटेल कुछ ज्यादा ही मुखर थे .गांधी अकेला है .डॉ लोहिया ने समूचे दस्तावेज को उघार कर लिखा कि जब गांधी को जो कि कांग्रेस कार्य कारिणी के आमंत्रित सदस्य हैं को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया है .( १९३४ में गांधी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है ,इस आशय के साथ कि जब भी कभी कांग्रेस चाहे वह उन्हें आमंत्रित कर सकती है ,..इस इस्तीफे के बाद गांधी चरखा और अछूतोद्धार का कार्य क्रम चला रहें थे ,इससे गांधी को समझा जा सकता है कि जब आजादी बिलकुल साम्ने खड़ी है गांधी की चिंता 'अछूत ' और दलित है .इस गांधी ने अछूत और दलित में उठ खड़े होने की इक्षा शक्ति पैदा की .वही लोग जब गांधी को गरियाते हैं तो उनकी दिमागी हालत पर तकलीफ होती है .) बटवारे के सवाल पर बैठी कांग्रेस कार्य कारिणी में गांधी ने दो प्रस्ताव सुझाया -एक अंग्रेज चले जायं बटवारा हम कर लेंगे .दो -कांग्रेस दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं मानती .इस सवाल के पहले पटेल ,नेहरू और लोहिया के बीच झड़प भी हुई कि बटवारे की पूर्व सूचना गांधी को क्यों नहीं दी गयी ?.
हमने इस लिए जिक्र किया कि आज गांधी को जानने की ज्यादा जरूरत है .विशेष कर नयी पीढ़ी को .कुछ लोग गांधी को निहायत ही रूखा समझते हैं .( बहुत दिनों तक हम भी इसी राय के थे लेकिन ज्यो ज्यो गांधी के न्नाज्दीक जाता गया पर्दा हटता गया .हमने जान बूझ कर गांधी और दुनिया के सबसे बड़े हास्य कलाकार चार्ली चैप्लिन की तस्वीर चिपकाया )) यह उस समय की तस्वीर है जब १९२९ में गांधी के आह्वाहन पर विदेशी कपड़ों की होली जला कर गांधी गोलमेज कांफ्रेंस में भाग लेने लन्दन गए थे .मीडिया ने गांधी से जानना चाहा था कि कांफ्रेंस के अलावा और क्या प्रोग्राम है ? गांधी ने कहा -एक - मानचेस्टर के मजदूरों के बीच रहूँगा और दूसरा चार्ली चैप्लिन से मिलूँगा .यह दोनों बाते राज नीति से जुड़ी हुई थी और चर्चिल का जवाब भी था .( चर्चिल ने गांधी को अधनंगा फ़कीर कहा था .और गांधी को मशखरा कहा था ) मानचेस्टर के मजदूरों के बनाए गए कपड़ों की होली जला कर उनके बीच जाना और अधनंगे जाना हिन्दुस्तान की हकीकत बयान करता है .दूसरा जवाब था -सुना है चार्ली चैप्लिन हमसे भी बड़ा मसखरा है ... इस बयान के बाद चार्ली चैप्लिन अपनी शूटिंग रोक कर गांधी के साथ आ मिला ...
Thursday, August 2, 2012
वो क़त्ल हो गया बद्सूरतों की महफ़िल में .......
कतील सिफाई की एक सतर है -वो क़त्ल हो गया बद्सूरतों की महफ़िल में ,जो सारे शहर के आईने साफ़ किया करता था ./
जो अन्ना को अच्छी तरह नहीं जानते थे ,जो यह भी नहीं जानते थे कि अन्ना किसके इसके इशारे पर काम कर रहें हैं ,जिन्होंने अन्ना को मसीहा मान लिया था ,कल के अन्ना के इस फैसले से कि अन्ना अब एक पार्टी बनाएंगे जो चुनाव लड़ेगी तब 'मजबूत ' लोकपाल लायेगी .वे बहुत मायूस हुए हैं .जिस जनता ने बहुत लगन के साथ अन्ना का साथ दिया वह इस हद तक दुखी है कि गालिया तक निकाल रही है .आइये अब इस पूरे खेल की पड़ताल की जाय .
अन्ना को गांधीवादी क्यों बताया गया ?
बाँझ हो चुकी प्रतिपक्षी राजनीति बौने नेतृत्व से फिसलने लगी थी .७७ के बाद देश में न तो कोइ बड़ा सवाल उठा ,न ही कोइ आंदोलन हुआ .महगाई पर एक 'प्रायोजित और दिखावटी ' लड़ाई जरूर शुरू हुई लेकिन उसे बीच में ही मरना था सो मर गयी .इसी बीच संधी धराने ने अन्ना को प्रस्तुत किया . बड़े सलीके और गाजे-बाजे के साथ .चुकी मीडिया के पास विशेष कर इलेक्टोनिक मीडिया एक ऐसे दौर से गुजर रही थी जब उसके पास कोइ ऐसी खबर नही थी जिसे वह बेच सके और उत्तेजना पैदा कर सके .ऐसे में अन्ना आ गए .खादी का लिबास और टोपी को देखते ही इस मीडिया ने अपनी तरफ से अन्ना को गांधीवादी घोषित कर दिया .जब कि इस मीडिया को इतना भी नहीं मालुम कि अन्ना का लिबास समूचे महाराष्ट्र का लिबास है .यह इस मीडिया की सबसे बड़ी भूल थी .अन्ना आंदोलन में संघी घराने ने पूरी ताकत लगा दी .लेकिन जब दिशा ,कार्यक्रम और विकल्प की बात आई तो आपसी मतभेद उभरने लगे और अन्ना टीम का एक एक सदस्य उघार होने लगा .इसी में रामदेव यादव भी बाबा बन कर कूद पड़े .आहिस्ता अहिस्ता जनता को यह पता चल गया कि यह कोइ आंदोलन नहीं है बल्कीभ्रष्टाचार को सामने रखकर राजनीति खेला जा रहा है .अपने चरम पर यह साबित हो ही गया जब अन्ना ने एक पार्टी बनाने की बात कही .इस पार्टी का अगला कदम होगा प्यात्यक्ष या परोक्ष रूप से संघी घराने से ताल मेल .
इस खेल का पटाक्षेप हो गया लेकिन जिस सवाल पर जनता में एक कुतूहल मचा था - भ्रष्टाचार उसका क्या होगा .? क्योकि सवाल तो जस का तस बना हुआ है इसके कम से कमतर करने के लिए कांग्रेस को ही पहल करनी पड़ेगी और उसे संकल्प लेना होगा .और इस लड़ाई को दोनों मुहानो पर एक साथ लड़ना होगा संसद और सड़क दोनों को सचेत करना होगा .
इस खेल का पटाक्षेप हो गया लेकिन जिस सवाल पर जनता में एक कुतूहल मचा था - भ्रष्टाचार उसका क्या होगा .? क्योकि सवाल तो जस का तस बना हुआ है इसके कम से कमतर करने के लिए कांग्रेस को ही पहल करनी पड़ेगी और उसे संकल्प लेना होगा .और इस लड़ाई को दोनों मुहानो पर एक साथ लड़ना होगा संसद और सड़क दोनों को सचेत करना होगा .
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