विवेकी राय / श्रद्धांजलि
--------------------aaj
मास्साब की चिट्ठी
० चंचल
उन्नीस बीस की लोकोक्ति भोजपुरी पट्टी में दौड़ने वाली कहावत है , विवेकी राय ने अपने लेखन में इस लोकोक्ति का जम कर प्रयोग किया है , उन्हें का
मालुम रहा की अपने अंतिम दिन वे खुद इस लोकोक्ति को वोढ लेंगे .१९ नवंबर १९२४ को पैदा हुए विवेकी राय २१ नवंबर २०१६ को विदा हो गये . ' एकाध
दिन ' का हेर फेर कोइ मतलब होता है का ? पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक ' महकौवा ' जिला गाजीपुर (अरसे तक गाजी पुर गुलाबजल
और केवडा जल का उत्पादन केन्द्र रहा है , ) के एक ठेठ गाँव में पैदा हुए विवेकी राय की जिन्दगी
बहत खुरदुरी रही . विवेकी राय के पैदा होने के डेढ़ महीना पहले इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी . माँ ने अपने मायके में इन्हें पाला , बड़ा किया और समाज की
बोलियों ने विवेकी राय को बचपन से ही जिम्मेदार बना दिया . मिडिल तक की पढाई करके विवेकी राय प्राइमरी के अध्यापक बन गये . यहाँ से विवेकी
राय के पीठ चिपका ' बेचारा ' खुद को गड़ने लगा . इस एक फांस ने हौसला दिया . प्राइवेट परीक्षा देकर आगे बढ़ते गये . सामने माटी का दिया था , बगल में माँ
का दुलार विवेकी पढ़ा रहे हैं विवेकी पढ़ रहे हैं ,और एक विवेकी राय उठ रहा है . खुदमुख्तारी का यह जज्बा रंग लाया और विवेकी राय अपनी मोदार्रिसी भी बढाते गये .
प्राइमरी से मिडिल , फिर इंटर कालेज , डिग्री कालेज और फिर स्नातकोत्तर महा विद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक . लेकिन यह सब बड़ी आसानी नही हुआ
बहुत जद्दोजेहद से चलती है जिन्दगी .प्राइमरी पास करते करते एक तूफ़ान से उलझ गयी .तूफ़ान था गांधी का , सुराज का जलसा और जुलुस का
गाजीपुर अलग ऐसे रहता . गान्ही बाबा घर घर में कहानी
की तरह कहे जा रहे थे . विवेकी का बाल मन कुतूहल के साथ गांधी जी के साथ हो गया . ज्यों ज्यों विवेकी राय बड़े होते गये , गांधी का विस्तार भी
बढ़ता गया .विवेकी राय गांधी में डूबते गये . खादी का पहनावा , सादगी से भरा जीवन , गाँव से लगाव सब गांधी से मिला , विवेकी तो बस वाहक रहे ,
विनम्र , सचेत और संकोची भी . भाषा की कोइ कशमकश उनके पास नही है , पैदा ही दो भाषा में हुए हैं , एक माँ से दुसरी माटी से . हिंदी और भोजपुरी
दोनों भाषाओं को कांख में दबाये विवेकी राय बगैर किसी आडम्बर और अहंकार के संवाद करते रहे . एक दिन अचानक विवेकी राय 'इज्जतदार ' हो गये
यह उस जमाने की बात है जब इज्जतदार की ओअरिभाषा कत्तई दूसरी थी . किसी भी तरह के छल प्रपंच से दूर , पर हित की भावना , सादगी का जीवन
खादी का लिबास , आँख पर मोटा चश्मा , साइकिल भी तो थी ,विवेकी भाई इलाके में इज्जतदार हो गये . भोजपुरी भाषा में बहुतकम शब्द होंगे जिनकी
कोइ सीमा तय हो . इसके शब्द आजाद परिंदों की तरह उड़ान भरते हैं , इलाका उसमे से एक है . यह भूगोल नही है .यश और भाव की धारा है .
कल तक गाँव बहुत सोच समझ कर इज्जतदार की पदवी देता था. यह पदवी पहला काम करती है उसके असल नाम को इज्जत में लपेट देती है और
एक उपनाम दे देती है . अब विवेकी राय मास्टर साहब हो गये . पर गाँव , वो भी भोजपुरी ? बगैर लय ताल और संगीत के ? चुनांचे अब मास्साब चल पड़े
मास्साब की तीन लत थी . खैनी , बीडी और तम्बाकू . चाहते तो महगा शौक पाल सकते थे ,लेकिन तब गाँव से टाट बाहर हो जाते . लेकिन इतना सब क्यों
बता रहा हूँ ? हम उनके लिखे पर बहस चला सकते थे , उन्ही के बहाने हम खुद गंभीर बन सकते थे लेकिन फिर हमारे पाठक को विवेकी राय के लेखन
का मर्म न मिल पाता . एक उदाहरण देखिये . मनबोध की डायरी , . उन दिनों देश आजाद हुआ था समस्याए सामने थी . गाँव भिउस्से अछूता नही था .
पूर्वी उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा अखबार रहा ' आज ' . मनबोध की डायरी नियमित पढ़ी जाती थी . सच कहा जाय तो गाँव मनबोध के साथ ताल दे रहा था
गाजीपुर में भी मनबोध सिद्दत के साथ खोज खोज के पढ़े जा रहे थे लेकिन खुद गाजीपुर को नही मालुम रहा की ये मनबोध मास्टर है कौन ? एक वाकया
जिसे खुद विवेकी राय बताते थे , गाजीपुर की एक सडक जिससे होकर विवेकी राय कालेज जाते थे , टूट चुकी थी बीच बीच में इतने बड़े गड्ढे हो चुके थे
की उसमे भैंसे भी नहा लें . मनबोध मास्टर की डायरी के हिस्से में उस सडक का जिक्र करते हुए , विवेकी राय ने सडक को नया नाम दिया ' भैंसा लोटन '
सडक . जिस दिन आज अखबार में यह चिट्ठी छपी उसके दुसरे दिन से ही उसपर काम शुरू हो गया . विवेकी राय रुके और बोले इतनी जल्दी काम शुरू
हो गया ? ठेकेदार ने बताया की साहेब ! कोइ मन बोध मास्टर हैं जिन्होंने मंत्री जी को चिट्ठी लिख दिया था , विवेकी राय कुछ बोले नही चुपचाप
आगे निकल गये .
विवेकी राय ने भोजपुरी के अलावा हिंदी में भी बहुत कुछ लिखा है , उपन्यास ,कहानियां , कविता और निबन्ध . और आहूत ही अच्छा लिखा है ,लेकिन
भोजपुरी ने जिस तरह विवेकी राय ऊपर उछाला वह तामुम्र उसका एहसान मानते रहे . ललित निबंध की चर्चा चलती है तो हिंदी जो दमदार नाम सामने आते हैं
वे सब इसी माटी की उपज हैं , आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , पंडित विद्यानिवास मिश्र ,डॉ शिव प्रसाद सिंह कुबेरनाथ राय , निश्चित रूप से इ बड़े नाम हैं
विवेकी राय थोड़ा अलग दीखते हैं , इनमे माटी की खुशबु है , भाषा इ सरल रवानी है ,सीधे सपाट ढंग से कथ्य को कह जाते हैं , बगैर कोइ पांडित्य बघारे
विवेकीराय की सबसे बड़ी ताकत वह पाठक है जो भूखा भी है और सुस्वादु भी . लेकिन यह पाठक गंवई और नगरी दोनों सभ्यताओं में विभक्त होने
के बावजूद विवेकी राय की और लपकता जरूर है .
विवेकी राय याद किये जांयगे जब साहित्य अपने आपको समेट कर , सिमट कर केन्द्रीयकरण के खूंटे में बाँध लेगा तो कहा जायगा एक छुट्टा फ़कीर
गाँव में खडा गान की भाषा में सबसे बोल बतिआय रहा है और पुनह विकेंद्री करण की लहर चलेगी . अभी कल की बात है साहित्य के मुहाने विकेन्द्रित
थे , काशी , प्रयाग , लखनऊ में ऐसे फलते फूलते दरख्तों से ताजा हवा निकलती थी और लोग सीखने को आतुर रहते थे . तरह तरह के साहित्य ,
उनकी अलग अलग तासीर , महक , लिए समाज की नब्ज पर उंगली रख देते थे , केन्द्रीयकरण ने सब बराबाद किया है . लेकिन यह दीप जलता मिलेगा .
अलविदा मास्स्साह्ब !
-------------------------------------------------------------
भाउकता मन को कितना संचालित करती है एक छोटा सा उदाहरण
विवेकी राय को तीन लत थी . बीडी , खैनी और तम्बाकू . ३० जनवरी ४८ को महात्मा गांधी की ह्त्या हुयी . खबर गाजीपुर पहुंची . लोग बताते हैं
वह दिन उनकी जिन्दगी का सबसे उदास दिन रहा . दिन भर कमरे में बैठे रोते रहे , अचानक अपनी तीनो लतों को खिड़की से बाहर फेंक दिए
और फिर कभी पलट कर उधर नहीं देखे .