क्रान्ति सड़क से उठती है
....... "जन संचार के जितने भी माध्यम हैं सबकी अपनी एक सीमा है , वह क्रान्ति की दिशा और उसके उफान को मापती है , आगे लेजाती है और बाज दफे उसे दफना देती है . "- यह एक भ्रम है भारतीय जमीन पर अभी हाल की दो एक घटनाओं ने इसका सबूत दे दिया है . अन्ना और केजरीवाल इसके उदाहरण हैं . इस विषय पर आज भाई अम्बरीश ने एक सवाल उठाया है - क्या इन्टरनेट पर ( से ) क्रान्ति संभव है ?
ऋग्वेद की एक ऋचा है - जानाति इच्छति अथ करोति ' इच्छा , ज्ञान और शक्ति ये तीन आवश्यक तत्व हैं जो उड़ान भरने के लिए जरूरी होते हैं . जिस कौम की इच्छाशक्ति ही मर जाती है वह अपने आप लुप्त हो जाती है . पिछले दिनों यह सवाल जोर शोर से चला कि नेट के जरिये क्रान्ति संभव है उदाहरण के लिए मध्येसिया के तमाम् तानाशाहों के खिलाफ लड़े गए आंदोलनों का जिक्र किया जा सकता है . लेकिन एक बात लोग नजरअंदाज कर देते हैं कि वहाँ जनतंत्र नहीं था , जनसंचार के माध्यम सरकारी थे , नेट ने वहाँ काम कर दिया . लेकिन जनतंत्र में गुस्से का एक मुस्त दबाव नहीं बन पाता वह रोजही होता है और रोज रोज निकलता रहता है .
मीडिया में जिन तीन चीजों से परहेज करने की नसीहत डी गयी है उसमे से एक है ' प्रिडिक्टसन ' आज मीडिया इसी बीमारी के चलते अपने आपको मार रही है . अचानक उसने अपनेआपको खुदा समझ लिया और सन्निपात में चला गया . इस विषय पर भाई प्रमोद जोशी ने अच्छी टिप्पणी की है उसे देखा जाना चाहिए . इसे और भी सरल बनाया है भाई संदीप वर्मा ने ' चौथी टांग भी टूट गयी ' . इसका मतलब यह नहीं कि अब कोइ रास्ता नहीं बचा या हम अपाहिज हो गए है . यहाँ दो पन्नों का खुलासा करना चाहता हूँ एक आजादी की लड़ाई में जब प्रेस पर सत्ता का जबर दस्त दबाव था तब भी सुराजियो की आवाज गाँव गाँव तक पहुच जाती थी . दूसरा आपातकाल के दौरान .
इससे अलहदा जो मूल सवाल है आप बदलाव के हामी हैं तो आप चाहते क्या हैं ? जो चाहते हैं उसकी जमीन ( लोंगो में इच्छाशक्ति) तैयार है क्या ? उसका पूरा ज्ञान है कि नहीं ? कथनी और करनी के बीच की कम से कम की दूरी पर नेतृत्व का खड़ा होना जरूरी होता है इसके बाद सड़क आती है . यहाँ प्रसंग्वस् एक उदाहरण देना चाहता हूँ . फेसबुक पर ' कई दलित चिन्तक ' हैं जो हर वक्त एक ही र्रोना रोते रहते हैं उन्हें ब्राहमणवाद नेमारा है . उंच नीच का खेल उन्होंने बनाया है . हमारा उनसे यह कहना है कि भाई यह तो हर कोइ जानता है हम भी इसके खिलाफ हैं लेकिन पहले अपना घर तो देख आओ . आज डालियों में भी उंच नीच है . छुआ छूत है . कर्मकांड से भरा पड़ा है . उसे तो दूर करो . इसके लिए हमने रचनात्मक संघर्ष का सुझाव दिया . बापू का हथियार . इस रचनात्मक संघर्ष पर भी सवाल उठे -यह क्या होता है ? इसे अगली कड़ी में -
....... "जन संचार के जितने भी माध्यम हैं सबकी अपनी एक सीमा है , वह क्रान्ति की दिशा और उसके उफान को मापती है , आगे लेजाती है और बाज दफे उसे दफना देती है . "- यह एक भ्रम है भारतीय जमीन पर अभी हाल की दो एक घटनाओं ने इसका सबूत दे दिया है . अन्ना और केजरीवाल इसके उदाहरण हैं . इस विषय पर आज भाई अम्बरीश ने एक सवाल उठाया है - क्या इन्टरनेट पर ( से ) क्रान्ति संभव है ?
ऋग्वेद की एक ऋचा है - जानाति इच्छति अथ करोति ' इच्छा , ज्ञान और शक्ति ये तीन आवश्यक तत्व हैं जो उड़ान भरने के लिए जरूरी होते हैं . जिस कौम की इच्छाशक्ति ही मर जाती है वह अपने आप लुप्त हो जाती है . पिछले दिनों यह सवाल जोर शोर से चला कि नेट के जरिये क्रान्ति संभव है उदाहरण के लिए मध्येसिया के तमाम् तानाशाहों के खिलाफ लड़े गए आंदोलनों का जिक्र किया जा सकता है . लेकिन एक बात लोग नजरअंदाज कर देते हैं कि वहाँ जनतंत्र नहीं था , जनसंचार के माध्यम सरकारी थे , नेट ने वहाँ काम कर दिया . लेकिन जनतंत्र में गुस्से का एक मुस्त दबाव नहीं बन पाता वह रोजही होता है और रोज रोज निकलता रहता है .
मीडिया में जिन तीन चीजों से परहेज करने की नसीहत डी गयी है उसमे से एक है ' प्रिडिक्टसन ' आज मीडिया इसी बीमारी के चलते अपने आपको मार रही है . अचानक उसने अपनेआपको खुदा समझ लिया और सन्निपात में चला गया . इस विषय पर भाई प्रमोद जोशी ने अच्छी टिप्पणी की है उसे देखा जाना चाहिए . इसे और भी सरल बनाया है भाई संदीप वर्मा ने ' चौथी टांग भी टूट गयी ' . इसका मतलब यह नहीं कि अब कोइ रास्ता नहीं बचा या हम अपाहिज हो गए है . यहाँ दो पन्नों का खुलासा करना चाहता हूँ एक आजादी की लड़ाई में जब प्रेस पर सत्ता का जबर दस्त दबाव था तब भी सुराजियो की आवाज गाँव गाँव तक पहुच जाती थी . दूसरा आपातकाल के दौरान .
इससे अलहदा जो मूल सवाल है आप बदलाव के हामी हैं तो आप चाहते क्या हैं ? जो चाहते हैं उसकी जमीन ( लोंगो में इच्छाशक्ति) तैयार है क्या ? उसका पूरा ज्ञान है कि नहीं ? कथनी और करनी के बीच की कम से कम की दूरी पर नेतृत्व का खड़ा होना जरूरी होता है इसके बाद सड़क आती है . यहाँ प्रसंग्वस् एक उदाहरण देना चाहता हूँ . फेसबुक पर ' कई दलित चिन्तक ' हैं जो हर वक्त एक ही र्रोना रोते रहते हैं उन्हें ब्राहमणवाद नेमारा है . उंच नीच का खेल उन्होंने बनाया है . हमारा उनसे यह कहना है कि भाई यह तो हर कोइ जानता है हम भी इसके खिलाफ हैं लेकिन पहले अपना घर तो देख आओ . आज डालियों में भी उंच नीच है . छुआ छूत है . कर्मकांड से भरा पड़ा है . उसे तो दूर करो . इसके लिए हमने रचनात्मक संघर्ष का सुझाव दिया . बापू का हथियार . इस रचनात्मक संघर्ष पर भी सवाल उठे -यह क्या होता है ? इसे अगली कड़ी में -