ईंट में दब गयी एक सभ्यता
हमारे कई दोस्त गाँव लौट रहें हैं .इन्ही में एक है शीतल जी .इन्होने सुल्तानपुर के कादीपुर और सूरापुर के बीच एक ठेठ गाँव में जमीन ली है और वहाँ निर्माण कार्य में लगे हैं .अक्सर हमलोग वहाँ इकट्ठे हो जाया कतरे है .कल की सांझ ऐसी ही एक बैठकी में गुज़री और हम लोग गाँव के बारे चर्चा कर्रने लगे .हम सब इस बात से सहमत थे कि अब गाँव का चेहरा भी बदलने लगा है और बदसूरत हो रहा है .पत्रकार मित्र कुमार सौबीर ने एक मजेदार टुकड़ा जोड़ा -'शुरुआत ईंट से होती है '.यह सुलेख इसी ईंट पर है .
अब तक माटी का कोइ भाव नहीं था ,प्रचलित मुहावरा है 'माटी के भाव '.लेकिन अचानक गाँव में भी माटी बिकने लगी और अच्छे दाम पर .आज शहर में ईंट का क्या भाव है हमें नहीं मालुम लेकिन गाँव में ईट की कीमत है पांच रूपये .ईंट का अर्थ शास्त्र और भी दिचास्प है .ईंट भट्ठे का मालिक किसान से ' माटी के भाव ' मिट्टी लेता है .वही मिट्टी जब जब उसके कारखाने( भट्ठे ) से ईंट के रूप में बाहर आती है तो उसकी कीमत सात गुनी बढ़ चुकी होती है .इसका भुगतान वही किसान ईंट खरीद कर करता है .इतना ही नहीं माटी से ईंट बनाने की प्रक्रिया में गाँव के ही लोग होते है .विशेषकर आदिवासी जो गुलामो की तरह खरीदे जाते हैं .
इस ईंट ने एक समूची सभ्यता को ही दबा कर मार डाला .गाँव में अब माटी के घर नहीं बनते ,ईंटों के मकान बनते हैं .उस 'घर' और इस 'मकान' के बीच फ़ैली खाई में एक सभ्य्ता लुप्त हो गयी .माटी के घर गाँव के ही लोग बनाते थे .उनकी जिंदगी ,रोजी रोटी इसी निर्माण कला से चलती थी .और दलित होने केबावजूद समाज में इनकी इज्जत थी .( दलित और बावजूद हमने जानबूझ कर जोड़ा है ,.. उनके लिए जो नए नए दलित प्रेमी पैदा हुए हैं वो दलितों पर चिंतित तो हैं लेकिन कारणों पर बात नहीं करते ) इस घर निर्माण में जो दूसरी जाति अपनी भूमिका निभाती थी वह थे लुहार ,लकड़ी का काम होता था .उनके कारी गरी की कीमत थी .माटी के घर में खिड़की दरवाजे से पहले ,घोरी,धन्,बदेर.फरका .उतरन ये गढे जाते थे .( आज ये शब्द ही चलन में नहीं हैं ,घर और मकान केबीच हमारी शब्द संपदा चूक रही है यह सबसे बड़ा घाटा है ) इसके बाद नाम्बर्र आता था कुम्हार का वह छत के लिए 'खपडा' तैयार करता था .उसे 'नरइ और थपुआ ' कहते है .माटी को चाक पर चढ़ा कर नरइ गढना एक कला थी .अब न तो इस खपडे की जरूरत रह गयी है न उस कला की .लिहाजा एक जाति अपने पुश्तैनी पेशे से हट कर रोजगार की तलाश में दर ब दर हो रही है
गाँव का अपना विनमय का अर्थशास्त्र टूट कर भसक गया और गाँव ईंट के पक्के मकान में 'पकस् ' रहा है . .
हमारे कई दोस्त गाँव लौट रहें हैं .इन्ही में एक है शीतल जी .इन्होने सुल्तानपुर के कादीपुर और सूरापुर के बीच एक ठेठ गाँव में जमीन ली है और वहाँ निर्माण कार्य में लगे हैं .अक्सर हमलोग वहाँ इकट्ठे हो जाया कतरे है .कल की सांझ ऐसी ही एक बैठकी में गुज़री और हम लोग गाँव के बारे चर्चा कर्रने लगे .हम सब इस बात से सहमत थे कि अब गाँव का चेहरा भी बदलने लगा है और बदसूरत हो रहा है .पत्रकार मित्र कुमार सौबीर ने एक मजेदार टुकड़ा जोड़ा -'शुरुआत ईंट से होती है '.यह सुलेख इसी ईंट पर है .
अब तक माटी का कोइ भाव नहीं था ,प्रचलित मुहावरा है 'माटी के भाव '.लेकिन अचानक गाँव में भी माटी बिकने लगी और अच्छे दाम पर .आज शहर में ईंट का क्या भाव है हमें नहीं मालुम लेकिन गाँव में ईट की कीमत है पांच रूपये .ईंट का अर्थ शास्त्र और भी दिचास्प है .ईंट भट्ठे का मालिक किसान से ' माटी के भाव ' मिट्टी लेता है .वही मिट्टी जब जब उसके कारखाने( भट्ठे ) से ईंट के रूप में बाहर आती है तो उसकी कीमत सात गुनी बढ़ चुकी होती है .इसका भुगतान वही किसान ईंट खरीद कर करता है .इतना ही नहीं माटी से ईंट बनाने की प्रक्रिया में गाँव के ही लोग होते है .विशेषकर आदिवासी जो गुलामो की तरह खरीदे जाते हैं .
इस ईंट ने एक समूची सभ्यता को ही दबा कर मार डाला .गाँव में अब माटी के घर नहीं बनते ,ईंटों के मकान बनते हैं .उस 'घर' और इस 'मकान' के बीच फ़ैली खाई में एक सभ्य्ता लुप्त हो गयी .माटी के घर गाँव के ही लोग बनाते थे .उनकी जिंदगी ,रोजी रोटी इसी निर्माण कला से चलती थी .और दलित होने केबावजूद समाज में इनकी इज्जत थी .( दलित और बावजूद हमने जानबूझ कर जोड़ा है ,.. उनके लिए जो नए नए दलित प्रेमी पैदा हुए हैं वो दलितों पर चिंतित तो हैं लेकिन कारणों पर बात नहीं करते ) इस घर निर्माण में जो दूसरी जाति अपनी भूमिका निभाती थी वह थे लुहार ,लकड़ी का काम होता था .उनके कारी गरी की कीमत थी .माटी के घर में खिड़की दरवाजे से पहले ,घोरी,धन्,बदेर.फरका .उतरन ये गढे जाते थे .( आज ये शब्द ही चलन में नहीं हैं ,घर और मकान केबीच हमारी शब्द संपदा चूक रही है यह सबसे बड़ा घाटा है ) इसके बाद नाम्बर्र आता था कुम्हार का वह छत के लिए 'खपडा' तैयार करता था .उसे 'नरइ और थपुआ ' कहते है .माटी को चाक पर चढ़ा कर नरइ गढना एक कला थी .अब न तो इस खपडे की जरूरत रह गयी है न उस कला की .लिहाजा एक जाति अपने पुश्तैनी पेशे से हट कर रोजगार की तलाश में दर ब दर हो रही है
गाँव का अपना विनमय का अर्थशास्त्र टूट कर भसक गया और गाँव ईंट के पक्के मकान में 'पकस् ' रहा है . .