Sunday, August 26, 2012

वो इन्कलाब के दिन थे ...
उज्जवल जी के   'हल्फिया बयान ' जिस तरह मौक - ये -वारदात से दिए जा रहें है वह काफी दिलचस्प और और मौजूदा हालात को नापने में मददगार साबित हो रहें हैं .अब चूंकी हमारा भी जिक्र आ रहा है चुनांचे यह जरूरी लगने लगा कि हम उसे तस्दीक करते हुए आपको उसी मुकाम पर ले चलूँ जहां का यह अफ़साना है .काशीविश्व् विद्यालय ( हमलोग इसमें ' हिन्दू ' नहीं लगाते ) के दो प्रजातियों का जिक्र आया है . ' बलियाटिक ' और मकालू .पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार समेत तमाम हिन्दी भाषी ' लोग ' बलियाटिक और हाई फाई वाले लोग मकालू .य सच है कि मै दोनों में रहा .विश्व विद्यालय में हमारी फैकल्टी सबसे छोटी थी .कुल जमा पूंजी तीस लोग तुर्रा यह कि लडकियां किसी भी मायने में किसी से कम नहीं .उन्मुक्त माहौल .हमारे टीचर भी एक से बढ़ कर एक .' सर ! आज यहाँ क्लास करने का मन नहीं कर रहा है ....किसी एक लड़की ने बहुत ही महीन अंदाज में गुजारिश किया और पूरी क्लास कैंटीन  पर लग जाती थी .कैंटीन पर चाय पीनेवाले बढ़ जाया करते थे .हमारी पढाई ,उसका विषय बंधन मुक्त रहा है .यह गांधी की बुनियादी तालीम का अघोषित प्रयोग था '.हाथ का हुनर ' और मन की उड़ान बड़े एकाग्र चित्त से स्केच बुक पर उतारते थे .कोइ चाय पी रहा है , कोइ घास पर  लेटा है ,हम उसे बनाते थे पूरी मस्ती के साथ . यह था फाइन आर्ट का माहौल जिसका मै भी एक कारकून था इस लिए मै मकालू कहलाया .वो आदते आज तक जस की तस पडी हैं ,जिसके चलते बाज दफे " बे इज्जत भी होना पडता है .अभी हाल में एक संभ्रांत महिला को यार कहकर संबोधित कर दिया वो हत्थे से उखड गयी ,किसी झुके चेहरे को 'ठोढी पकड़ कर ऊपर उठा दूं और कहूँ कि अब आँख मिला कर बात करो तो कई ' छुई -मुइयों ' की तरह  विलुप्त हो जाती हैं .लेकिन शुक्रगुजार हूँ फेसबुक का कि कई चेहरे ऐसे भी मिले जो दमदारी के साथ हाथा पाई तक करने पर आमादा हो जाती है .कितना अच्छा लगता है यह बराबरी का रिश्ता .अभी जिसका जिक्र नीलाक्षी जी ने किया कि वो हमसे भीड़ गयी थी सही है हमें अच्छा लगा था .औरत और मर्द के इस रिश्ते को बनाने में बहुत  दिक्कते आयी लेकिन हम सफल रहे.एक वाकया सुनाता हूँ . अभी हँस के किसी अंक में प्रसिद्ध कथाकार डॉ काशी नाथ सिंह ने हमारे ऊपर दो पेज लिख डाले .उनका एक वाक्य मजेदार है -' चंचल पहले छात्र संघ अधक्ष हैं जो महज छात्रों के ही नहीं ,बल्की छात्रावों के  भी अधक्ष रहे'. इसका एक कारण भी था .डॉ लोहिया का प्रभाव .औरत की इज्ज्जत करना सीखो .उसकी खुल कर तारीफ़ करो .पीठ पीछे नहीं सामने .छात्र संघ का चुनाव चल रहा था ,कानूनन हमें महिला छात्रावासों में जाकर उनके बीच बोलना होता था .प्रवेश केवल उम्मीदवारों का ही होता था .मै जब ज्योतिकुंज पहुचा उस समय विद्यार्थी परिषद के महेंद्र नाथ सिंह बोल रहें थे .कद काठी से दुरुस्त बोल्ट बोलते उन्होंने एक जुमला बोला कि अगर आपने हमें जिताया तो हम आपको गुंडों से हिफाजत की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेते है . कल से कोइ लड़का किसी लड़की को नहीं छेड़ेगा .जोर दार ताली बजी .इसके बाद हमें बोलना था .हमने अपनी बात रखी .हमारी बात खत्म होते ही एक लड़की ने महेंद्र नाथ के हवाले से पूछा -आप हमारी हिफाजत कैसे करेंगे ? हमने कहा हम दो काम करेंगे ...एक आपके मोहब्बत की हिफाजत और दूसरा 'जेल के कायदे ' से मुक्ति .( महिला छात्रावासों में छात्राओं को एक निश्चित समय पर छात्रावासों में पहुचना पड़ता था , और किसी से मिलने के लिए अगर बाहर गेट तक जाना होता तो उन्हें रजिस्टर पर लिखना पड़ता कि वो किस्से मिलने जा रही हैं .. जाहिर सी बात है हर लड़की झूठ लिखती कि वह अपने लोकल गार्जियन से मिल रही है .) .. मेरी बात सन्नाटा छा गया .हमें लगा कि गए बच्चू काम से .. लेकिन अचानक एक ताली बजी .. दो बजी .. फिर पूरा हाल तालियों की गडगडाहट से गूंजता रहा . और कुछ इस तरह धक्का मुक्की में घिरा कि  हमें लगा लगा कि हम जो कुर्ता पहन के आये थे वापसी बगैर कुर्ते के होगी .....( जारी )

2 comments:

  1. जीवन्त कर दिया वह दौर। मुमकिन है कि आपकी डाली बुनियाद का ही असर था कि जब चेक-शर्ट पहनकर चुनाव प्रचार में हम पहुंचे तब ,'Look at the moving graph-paper.' का फिकरा कसा जा सका। या 'सुन साहिबा सुन- अफलातून' 'मैंने तुझे चुन लिया,...' जैसे अराजनैतिक नारों का चलन हो सका ।

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  2. बेहद जीवंत वर्णन...वह बेशक छात्राओं के लिए सार्वजनिक स्पेस ढूंढ़ने की कसमसाहट का दौर था...क्या वह आगे बढ़ा ? शायद...लेकिन उसमें छात्र आंदोलन की क्या भूमिका थी ? मैं बनारस छोड़ चुका था...इसे बताना मेरे ख्याल से अफ़लातून का काम होगा...

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